आजादी मिलने के साथ ही साथ भारत में वह शिक्षित मध्यवर्ग स्थापित, विकसित और संवर्धित हुआ, जो नयी कहानी का जन्मदाता माना जाता है। शुरु के तीन-चार वर्षो की संक्रमणकालीन स्थिति समाप्त होते ही एक नये वातावरण की सृष्टि होती है जिसमें कहानी को फलने-फूलने का अनुकूल वातावरण मिला। “कहानी' पत्रिका के माध्यम से नए कहानीकारों को आगे आने का मौका मिला। “कहानी पत्रिका के प्रकाशन ने इस क्षेत्र में बहुत दिनों रो महसूस की जा रही कमी को पूरा किया। प्रेमचंद के बाद जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल को छोड़कर पाठक हिंदी-कहानियों में किसी ऐसे स्थान पर रुकने के लिए बाध्य नहीं हुआ जहाँ वस्तु और शैली की दृष्टि से समृद्ध कहानीकारों ने आकृष्ट किया हो। आजादी के बाद कहानीकारों की एक ऐसी पीढ़ी सामने आयी जिसने रूचियों और सामाजिक संस्कार की भिन्नता के बावजूद पाठकों में अपनी पहचान बनायी। पुराने लेखक नए संदर्भ से ठीक-ठीक जुड़ नहीं पाए। वे नए भाव बोध को न तो अच्छी तरह पहचान पाए और न ही उसे ग्रहण कर सके। श्रीपत राय "कहानी : नववर्षांक - 1956' में कहते है “यह स्वीकार करने में मुझे आपत्ति नहीं कि कहानी का स्वरूप बदल रहा है और मैं शायद अपने पुराने संस्कारों के कारण कहानी से वह माँग कर रहा हूँ, जो आज उसका लक्ष्य ही नहीं है।' इस संदर्भ में अंग्रेजी के प्रतिष्ठित कथाकार ई.एम. फॉर्स्टर का कथन उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा, 'मैं सोचता हूँ कि जिन कारणों से मैंने उपन्यास लिखना बंद कर दिया, उनमें से एक कारण यह है कि संसार का सामाजिक रूप इतना बदल चुका है और मैं पुराने ढंग की, परिवारों वाली दुनिया के बारे में लिखने का आदी था, जो अपेक्षाकृत शांत थी। वह सब चला गया और यद्यपि मैं नयी दुनिया के बारे में सोच सकता हूँ, फिर भी उसे कथाकृति में नहीं रख सकता।'
इस प्रकार की आत्म-स्वीकृतियों से नए-पुराने का द्वंद्व स्पष्ट हो जाता है। नयी पीढ़ी पुरानी कथा रूढ़ियों से सर्वथा मुक्त होकर वास्तविक जीवन से जुड़ने के लिए आकुल थी। नव लेखन के इस व्यापक परिवेश को देखते हुए, नयी कविता की तर्ज़ पर नयी कहानी का प्रश्न उठना स्वाभाविक था। क्योंकि किसी भी साहित्य के लिए यह स्पृषहणीय स्थिति नहीं हो सकती कि कविता तो किसी एक भावबोध पर चले और कहानी-उपन्यास आदि गद्य-कृतियाँ किसी दूसरे भावबोध के रास्ते पर। यदि समूचा नव लेखन एक ही ऐतिहासिक संदर्भ से जुड़ा हुआ है. तो जीवन-दृष्टियों के मेद और वैयक्तिक विशिष्टताओं, के बावजूद समूचे नवलेखन के मूल में एक- सी बुनियादी संवेदनाओं का होना ऐतिहासिक आवश्यकता है। इस प्रकार 1956-57 का समय इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि बहुत दिनों तक अलग-अलग रहने के बाद हिंदी-कहानी समूचे नवलेखन के केंद्र में आ गई। यह समय इसलिए भी ज्यादा महत्व रखता है क्योंकि 'कहानी' नववर्षाक, 1956 में पहली बार 'नयी कहानी' की बात उठाई गई थी। 'नयी कहानी' की आवाज वस्तुतः एक रचनात्मक संभावना को देखकर उठी थी, जो आज भी नयी पीढी के कहानीकारों की पहली कृतियों में साफ झलकती है। ये कृतियाँ आज भी ताजा मालूम होती हैं, क्योंकि इसके मूल में सृजनात्मक प्रयास है। एक लम्बे अवकाश के बाद हिंदी कहानी में जीते- जागते आदमी दिखायी पड़े। "आजादी ने एक बारगी अनेक रूढ् विचारधाराओं को निस्सार साबित कर दिया। अकेला अनुभव भले ही बहुत दूर न ले जाए, लेकिन उस समय “निजी अनुभव' ही लेखक को एकमात्र सहारा मालूम हुआ और उसे लगा कि किसी भी कीमत पर अपनी अनुभूति क्षमता को सतत् जागृत रखना अपने जीवन और अपने सृजन के लिए अनिवार्य है।'
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक आजादी से नयी पीढ़ी ने सचमुच अपने को स्वतंत्र महसूस किया। उसे लगा कि वह स्वयं अपनी आँखों से हर चीज को देख सकता है और उसने देखा कि आजादी के साथ अंधेरे में से एक जीता जागता भारत बाहर निकल आया। उल्लेखनीय है कि बाबा, दादी, दादा आदि को लेकर इस नयी पीढी ने अनेक कहानियाँ लिखी। कुछ लोगों को यह आश्चर्य हुआ कि यह कैसी नयी पीढी है जो खुद पर न लिखकर पुरानी पीढी के लोगों के बारे में लिखना पसंद करती है। कुछ ने इसे वर्तमान से पलायन कहा, तो कुछ ने रौमांटिसिज्म। परंतु नयी पीढ़ी का यह आत्मान्वेषण था।
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