धर्मवीर भारती के नाटक 'अंधा-युग' की कथ्य पर विचार करें तो सबसे पहले हमें यह जानना आवश्यक है कि इसके स्वरूप के संदर्भ क्या है। अंधा-युग काव्य नाटक है, इसमें कोई संशय नहीं है। इसके पक्ष में कई बातें कही जा सकती हैं। एक तो यह कि प्राय: काव्य नाटक मुक्त छंद में लिखे गये हैं जैसे 'अंधा-युग'। काव्य नाटक में घटना या क्रियाशीलता का महत्वपूर्ण स्थान है और अन्य संरचनात्मक अवयवों का संघटन भी नाटक की तरह ही होता है। अंधा-युग में भी क्रिया व्यापार एवं घटनाओं की योजना है। चरित्रों का विकास नाटक के अनुरूप है। महाभारत की प्रख्यात कथा से भिन्न ऐसा कोई चरित्र नहीं है जिसे स्थापित करने के लिए नाटककार को अतिरिक्त परिश्रम करना पड़े। वस्तु विधान के सभी तत्व इस प्रकार नियोजित किये गये हैं कि उनके काव्यात्मक अभिव्यक्ति संभव हो उठी है।
अंधा-युग का आरंभ
मंगलाचरण और उद्घोषणा से होता है। पहले अंक का आंरभ कथा गायन से होता है और
दर्शकों को उन प्रश्नों का संकेत मिल जाता है जो इस काव्यनाटक की रचना के आधार
हैं। अंधा-युग में पहले अंक में पूर्व कथा का ज्ञान होता है। और संजय द्वारा
दिखाये जाने वाले युद्ध समाचार में जिज्ञासा है। दूसरे अंक में अश्वत्थामा का
स्वालाप से उसकी कुठा और संत्रास का पता मिलता है। वृद्ध की हत्या से कार्यव्यापार
में सघटन आती है। तीसरे अंक में दैत्यकार योद्धा का मायावी रूप, युयुत्सु गांधारी प्रसंग की विडंबना, गूँगे सैनिक का
प्रसंग, दुर्येधन और भीम के दुंद्व युद्ध के प्रति दर्शक
पाठक में जिज्ञासा का संचार होता है।
अश्वत्थामा द्वारा अर्द्धसत्य की प्राति तथा उसकी प्रतिशांध
प्रतिज्ञा के साथ नाटक अंपने चरम पर पहुँचता है। अंतराल में प्रेतलोक सा वातावरण
है। चौथे अंक के आंरभ में गांधारी के पाषाण रूप से दर्शक प्रभावित होते
हैं। अश्वत्थामा और अर्जुन के ब्रह्मास्त युद्ध से क्रिया व्यापार
में तीव्रता लक्षित होती है। दुर्योधन के कंकाल तथा अश्वत्थामा के प्रति कृष्ण के
अन्याय के विरुद्ध गांधारी के शाप के साथ नाटक का कार्य व्यापार तीत्र हो उठता है।
कृष्ण द्वारा गांधारी के श्राप भाव से स्वीकार करना दर्शक मन में कृष्ण के प्रति
उदात्त भावना को खंडित होने से बचाता है। पाँचवाँ अंक युधिष्ठिर की चिंता, तत्कालीन राजनीतिक स्थिति का वर्णन, युयुत्सु का,
धृतराष्ट्र तथा गांधारी का आत्मदाह इत्यादि सभी प्रसंग लगभग
वर्णनात्मक है।
अंधा-युग नाटक में महाभारत के कथानक की नई मौलिक वैचारिक और सैद्धातिक संकल्पनाएँ की गई और उनको नये युग सापेक्ष संबंधों में देखा गया है। चरित्रों के माध्यम से जीवन की विभिन्न संदृष्टियों को व्यक्त करते हुए विदरट जीवन की झाँकी प्रस्तुत करना लेखक की महती प्रतिभा का प्रमाण है। घोर अव्यवस्था, मूल्यहीनता और अंधकार के बीच विदुर, वृद्ध व्याध और कृष्ण के माध्यम से मानवीय आस्था को वाणी दी गई है। आजादी के बाद का सत्ता संघर्ष, भ्रष्णचार, मूल्याधवा और आम आदमी का मोहभंग अंधा-युग का सामयिक संदर्भ है। इस कृति में अश्वत्थामा का ब्रह्मास्त्र परमाणु संहार का, संजय की तटस्थता भारतीय विदेशनीति का युधिष्ठिर की आत्म-ग्लानि में स्वातंत्रयोतर गांधी की छाप का आभास मिलता है। सारभूत रूप में धर्मबीर भारती का कहना है मनुष्य की सृजनात्मकता में आस्था ही वह तत्व है जो ट्रेजेडी को भायानक और एकांगी नहीं बनने देती है। अनेक अर्थ व्यंजित करने को क्षमता अंधा-युग की श्रेष्ठता का प्रमाण है।
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