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हिंदी जीवनी साहित्य मैं कलम का सिपाही एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।इस कथन की समीक्षा कीजिए।

जीवनी विधा की दृष्टि से कलम का सिपाही की अद्वितीयता स्वतः सिद्ध है, जिस रूप में यह जीवनी प्रेमचन्द जैसे साहित्य-सेवी के जीवन-संघर्ष और उनकी विचारधारा को प्रस्तुत करती है। उसमें उनके व्यक्तित्व के सभी रंग दिखाई पड़ते है। परिवार के छोटे-छोटे सुख-दुखों में फंसे साधारण व्यक्ति-जीवन से लेकर राष्ट्रीय-सामाजिक और साहित्यिक मसलों पर गंभीरता से विचार करने बाले बुद्धिजीवी-जीवन तक प्रेमचन्दर का जीवन फैला हुआ था। लेखन कार्य में तललीन प्रेमचन्द को परिवार के सदस्यों का बार-बार आकर पुकारना और अंत में पत्नी शिवरानी देवी का स्वयं आकर कलम छुड़ाना और जबरदस्ती भोजन के लिए ले जाना, बच्चों का पिता के साथ हीं भोजन करने की प्रतीक्षा में सरो जाना और फिर सबका एक-साथ बैठकर रात का भोजन करना-इन सब प्रसंगों द्वारा अमृतराय ने प्रेमचन्द के पारिवारिक जीवन, उनके सहज व्यक्तित्व तथा आत्मीयता की सुन्दर संक्षिप्त झलक प्रस्तुत की है। कहीं पर स्वयं जी तोड़कर मेहनत करने वाले अपने बच्चों को सदैव खेलने-कूदने की नसीहत देते प्रस्तुत हुए हैं तो कहीं बीमार बेटी के स्वास्थ्य की चिंता में विचार-मग्न।

   प्रेमचन्द का साहित्यिक व्यक्तित्व भले ही समृद्धि के शिखर पर रहा हो लेकिन व्यक्तिगत जीवन में वे सदैव अभावों और तकलीफों से घिरे रहे। अपने मित्रों को लिखे पढ्रों में प्रेमचन्द ने बार-बार अपनी स्थितियों का उल्लेख किया है। उन पात्रों के कुछ अंश अमृतराय ने उद्धृत किए है, जिनमें प्रेमचन्द के संघर्षरत जीवन की व्यथा-कथा झलकती है-

“मैं तो इधर बहुत परेशान रहा।.....बेटी के पुत्र हुआ ओर उसे प्रसृत ज्वर ने पकड़ लिया, मरते-मरते बची...।...

.मैं अकेला रह गया था। बीमार पड़ा, दाँतों ने कष्ट दिया....बुढ़ाषा स्वयं रोग है और अब मुझे उसने स्वीकार करा दिया कि अब मै। उसके पंजे में आ गया हूँ।' किन्तु बुढ़ापे का यह अहसास, अस्वस्थता और बेचारगी, प्रेमचन्द के व्यक्तित्व पर कभी हावी नहीं रहे, भले ही शारीरिक स्तर पर उन्होंने इसकी पीड़ा को भोगा हो। अमृतराय ने बहुत सुन्दर-सटीक शब्दों में प्रेमचन्द के जीवन का परिचय दिया है-

 

  'बुढ़ापा वह है जब चित्त बुद्ढ़ा हो जाता है और आदमी केवल साँस के आने-जाने को जिन्दगी समझने लगता है जब निष्ठा के पैर डगमगाने लगते हैं और तरुणाई के आदर्श संकल्प सदा झूठे जान पड़ते है। जब अन्याय देखकर आँखों में खून नहीं उतरता, बुढ़ापा वह है यहाँ तो अभी वैसी कोई बात नहीं हैं।” वस्तुत: प्रेमचन्द के व्यक्तित्व में जो उत्कट जिजीबिषा और जीव॑ंतता है सामाजिक अन्याय के विरुद्ध लड़ता हुआ, साम्प्रदायिक सद्भाव के. प्रति सचेत, साहित्यिक मसलों पर निडर और दो-टूक बात करने वाला 'प्रेमचन्द का जुढारू रूप अनेंक घटनाओं के माध्यम से उंभरकर सामने आया है। जैसा कि अमृतराय ने टिप्पणी की है-'.. कोई भी बात हो, छोटी हो बड़ा हो, अपनी हो' पराई हो, जहाँ भी कोई अन्याय हो रहा हो, मुंशीजी जूझने के लिए तैयार हैं।' राष्ट्रीय एकता और साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रति मुंशी जी सदा जागरूक दिखते हैं। हजरत मुहम्मद की पुण्य-तिथ पर हुए जलसे और उसमें पंडित सुन्दरलाल की दी हुई स्पीच को वे अपनी पत्रिका में महत्वपूर्ण स्थान देते हैं। जबकि दोनों सम्प्रदायों के बीच विद्वेष बढ़ाने वाले हर व्यक्ति को वे आड़े-हाथों लेते हैं फिर चाहे वह कोई प्रसिद्ध लेखक ही क्यों न हो-

   'इन चतुरसेन को कया हो गया कि “इस्लाम का विषवृक्ष! लिख डाला? उसकी एक आलोचना तुम लिखों और वह पुस्तक मेरे पास भेजों....इस कम्युनल प्रोपेगण्डा का जोरों से मुकाबला करना होगा.....

   प्रेमचन्द हिन्दू जाति का पुरोहितों, पुजारियों, पंडों और धर्मोपजीवी कीटाणुओं से मुक्त कराने के अभिलाषी है। वे मानते हैं कि हिन्दू जाति का सबसे घृणित कोढ़ सबसे लज्जाजनक कलंक यहौ टक्रेपंथी दल हर जो एक विशाल जोंक की भाँति उसका खून चूस रहा हैं। पूँजीवादी अर्थ-नेतिक विडम्बना पर भी मुंशीजी के विचार स्पष्ट रूप से इस अध्याय में उभरकर आए है। उनके अनुसार, वर्तमान समय में सामाजिक विसंगतियों की जड़ यही वर्ग हैं पूँजीवादी चाहे वह किसी भी देश या जाति का हो, मुंशी जी उसे एक ही प्रवृत्ति का मानते हैं और संसार मे आई हुई हर तबाही का कारण पूँजीपति को ही मानते हैं-

   “यह साप्राज्यवाद की विपत्ति जिससे संसार त्राहि-त्राहि कर रहा है, यह किसकी बुलाई हुई है? इन्हीं कुबेर के गुलामों की।......यह जो बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ होती हैं जिनमें खून की नदियाँ बह जाती हैं इसका जिम्मेदार कौन है? यही लक्ष्मी के उपासक।' इसलिए वे मानते हैं कि जब तक सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार रहेगा, तब तक मानव समाज का उद्धार नहीं हो सकता। पुरोहितवाद की ही तरह, इस पूँजीवाद के प्रति भी प्रेमचन्द की लेखनी में असंतोष और आक्रोश के तीखे स्वर हैं-

   “यह आशा करना कि पूँजीपति किसानों कौ दीन दशा से लाभ उठाना छोड्ड देंगे, कुत्ते से चमड़े की रखवाली करने की आशा करना है। इस खूंखार जानवर से अपनी रक्षा करने के लिए हमें स्वयं सशस्त्र होना पड़ेगा।” प्रेमचन्दर का जीवन और उनका बहु-आयामी व्यक्तित्व हर मो्चें पर कमर कसे दिखाई देता है। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय हर महत्वपूर्ण मसले पर उनका गंभीर चिंतन उनके सरकारों का स्पष्ट उदाहरण है, चाहे सीमा प्रदेश में हो रही बमबारी हो या पुलिस के अमानवीय कृत्य, कोर्ट-कचहरी कर लचर व्यवस्था हो या जेलों की स्थिति। मुंशी जी की लेखनी हर मसले पर उठती है, एक अन्य घटना जिसका संबंध तत्कालीन साहित्यिक माहोल से है, प्रस्तुत अध्यया में विस्तार से वर्णित कौ गई है। ठाकुर श्रीनाथ सिंह ने बनारसीदासका इंटरव्यू लेकर उसमें अपनी तरफ से नमक-मिर्च लगाकर पत्रिका में छाप दिया, मुंशी जी इस मसले परभी चुप नहीं रहे और 'साहित्यिक गुंडापन' शीर्षक से “इंस' में इस मामले की चर्चा करते हुए कूद पड़े और बनारसीदास जी की ओर से जोरदार पैरवी कर डाली। इस प्रसंग से जहाँ प्रेमचन्दर की सहदयता, निर्भीकताऔर बेलाग बात करने की प्रवृत्ति पर प्रकाश पड़ता है वहीं तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं को साधनहीनता और उनकी दयनीय स्थिति का भी संकेत मिलता है।

   कलम का सिपाही में प्रेमचन्द का जुझारू व्यक्तित्व ही उभरकर सामने आता है, जो हर कठिनाई, हर चुनौती का सामना करने को प्रस्तुत है लेकिन कहीं-कहीं उनकी निराशा और टूटन की झलक भी मिलती है। विशेष रूप से पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से जुड़ी समस्याओं के संदर्भ में। प्रेमचन्द ने अपने प्रसिद्ध पत्र 'हंस” के साथ-साथ “जागरण” का दायित्व भी संभाला था लेकिन पत्रिकाओं की दयनीय दशा का असर उनके प्रकाशन पर भी पड़ा, उनके पूरे श्रम और समर्पण के बावजूदभी दोनों पत्र घाटे में चलते रहे। कभी कागज के पैसे चुकाने में कठिनाई हो, कभी मजदूरों के वेतन की समस्या, जिससे निपटने के लिए वे पूजीपतियों से गुजारिश करते हैं ताकि विज्ञापन मिल सके, इधर-उधर हाथ-पैर मारते हैं, पर फिर भी प्रकाशन का कार्य छोड़ नहीं पाते। अपनी किताबों की आमदनी फूँककर अपनी जिन्दगी का आराम-चैन गंवाकर भी इस कार्य को संभाले रहते हैं। अपने सहयोगी मित्रों को लिखे पत्रों में उनकी हताशा, छटपटाहट और जद्दोजहद बड़ी शिद्दत से उभरी है-

   “दस हजार रुपए और ग्यारह साल की मेहनत सब अकस्थ हो गई। इस प्रेस के पीछे कितने मित्रों से बुरा बना, कितनों से वादा खिलाफी की, कितना बहुमूल्य समय जो लिखने में कटता बेकार प्रूफ देखने में कटा। मेरी जिन्दगी को यह सबसे बड़ी गलतो है।” इस तरह, संबेदना के स्तर पर प्रेमचन्द के संघर्षशील व्यक्तित्व को रूपायित करने के साथ-साथ तद्युगीन समस्याओं, साम्प्रदायिकता और पूँजीवाद के स्वरूप को भी प्रकट करता है। आज प्रेमचन्द की प्रतिष्ठा एक युग-प्रवर्तक स्राहित्यकार के रूप में है लेकिन उस समय में वे किस तरह साहित्यिक विवादों के घेरे में फंसे रहे और साहित्य को व्यवसाय बनाने वाले साहित्य-कर्मियों का उन्होंने कैसे डटकर विरोध किया उससे उनके जीवट का पता चलता है। साहित्य को अपने जीवन का उद्देश्य मानने वाले प्रेमचन्द ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी 'हंस' और 'जागरण' को चलाने का भरसक प्रयत्न किया लेकिन अपने निकट उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा कि शायद यह उनके जीवन की सबसे बड़ी गलती थी। फिर भी तमाम निराशाओं के बावजूद वे निरुत्साहित नहीं ुए बल्कि जीवन के अंत तक अपनी इस साधना में लीन रहे। प्रेमचन्द के ऐसे अपराजेय, युगद्रष्टा और क्रान्द्रदर्शी व्यक्तित्व को साकार करने में अमृतराय निश्चित रूप से सफल रहे हैं।

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