मुगल चित्रकला के विकास से पहले ही 13 वीं शताब्दी के अंत में दक्खन में अहमदनगर, बीजापुर और गोलकंडा राज्यों में चित्रकला की एक विशिष्ट शैली का उदय हो चुका था। परन्तु दक््खनी राज्यों में विकसित इस चित्रकला को 16 वीं शताब्दी में सबसे ज्यादा संरक्षण प्राप्त हुआ। 17 वीं शताब्दी में ही मुगल परंपरा के प्रभाव में यह दक्खनी शैली अपने उत्कर्ष पर पहुंच गईं। यहां हम 16 वीं-17 वीं शताब्दी में दक्खनी चित्रकला के विकास को समझने का प्रयास करेंगे।
दरबारी
संरक्षण
बहमनी राज्य के उत्तराधिकारी राज्यों ने चित्रकला को विशेष संरक्षण प्रदान किया। इन राज्यों के तहत की गई आरंभिक चित्रकारी 1565-69 के बीच के काल की है। इस चित्रकला के नमूने हमें तारीफ-ए-हुसैन शाही के चित्रण में मिलते हैं जिसका निर्माण और चित्रण अहमदनगर में किया गया था। इसी समय बीजापुर में 1570 ई. के आसपास एक और दक्खनी पाण्डुलिपि का निर्माण और चित्रण हुआ। यह चित्रित पुस्तक नुजूम-उल-उलूम है। संभवत: इसका निर्माण अली आदिल शाह के संरक्षण में हुआ, जिसके दरबार में अनेक चित्रकार कार्यरत थे। लेकिन बीजापुर की परंपरा में और संभवत: बहमनी राज्य के सभी उत्तराधिकारी राज्यों के शासकों में इद़्हिम आदिल शाह (1580-1627) का नाम सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है जो स्वंय एक सिद्ध चित्रकार था। 16 वीं शताब्दी के अंत में अहमदनगर और वीजापुर में रागमाला के नाम से चित्रकला की एक नयी परम्परा का उदय हुआ। इब्राहिम आदिल शाह के संरक्षण में यह परम्परा अपने उत्कर्ष पर पहुंच गई। दक्खनी चित्रकला का एक और प्रकार विकसित हुआ जिसमें राजकीय जुलूसों को भव्यता के साथ प्रस्तृत किया गया। इस प्रकार के कई चित्र गोलकंडा के अब्दुल्ला कतुब शाह (1626- 72 ई.) के काल तक मिलते हैं।
18 वीं शताब्दी में हैदराबाद के आसफ जाही राजवंश के संरक्षण में दक्खनी चित्रकला फली-फली। पक्षी का शिकार कर लौटते हुए और गोलकंडा किले के समीप अपने खुशनुमा बगीचे में जाते आजम शाह और निजाम के दरबार के एक कलीन हिक्मतयार खां का अपना चित्र संग्रह आदि, हैदराबाद की दक््खनी चित्रकारी के कछ ज्वलंत उदाहरण हैं।
शैली
और विषय
दक्खनी परम्परा के निर्माण के क्रम में उस पर कई परम्पराओं का प्रभाव पड़ा। दक्खनी राज्यों के कई शासक ईरानी चित्रकला के प्रशंसक थे और उनके पास चित्रों के अच्छे संग्रह थे। अत: उनके दरबारों में की गई चित्रकारी पर ईरानी शैली का प्रभाव स्पष्ट है। परन्तु यह समझ लेना चाहिए कि इस प्रभाव को ग्रहण करने में कोई एकरूपता और अनुशासन नहीं था। परिणामस्वरूप ईरानी चित्रकला के कई गुणों की बारीकी इनमें नहीं आ पाई। दक्खनी चित्रकला पर मुगल चित्रकला का भी प्रभाव था। दक्खनी और मुगल परम्पराओं के बीच संपर्क कई तरह से स्थापित हुआ। दोनों दरबारों के बीच चित्रकारों के साथ-साथ चित्रों का भी आदान-प्रदान हुआ।
दक्खनी चित्रकला पर बाहरी तत्वों का प्रभाव था परन्तु केवल इसी के आधार पर इनका मूल्यांकन करना संगत नहीं है। दक्खनी चित्रकला के सर्वश्रेष्ठ नमूनों में बाहरी तत्थों के समावेश के फलस्वरूप दर्शन का पुट तथा मौलिकता स्पष्टत: दिखाई देती है। दक्खनी चित्रकला की क॒छ विशेषताएं इस प्रकार हैं :
- ·
क्रमिक संरचना अर्थात
मुख्य आकृति गौण आकृतियों से बड़ी होती थी,
- ·
रंगपट्टिका की सम्पन्नता
जिसमें सफेद और सुनहरे रंगों का उपयोग किया जाता था, ऐसा
उदाहरण अन्य भारतीय लघु चित्रों में नहीं मिलता है,
- ·
खास गहनों,
जैसे हार की पट्टिका का चित्रण, ह
- ·
खासकर नारी चित्रों के
निर्माण में कमरबंद और दृपट्टे में अतिश्योक्तिपूर्ण भंवर,
तथा
- · विभिन्न कोणों का निर्माण इस प्रकार किया जाता था कि मुख्य आकृति के चारों ओर मेहराब बन जाती थी।
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