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पता नही प्रभु है या नही किंतु उस दिन यह सिद्ध हुआ जब कोई भी मनुष्य अनाशकतहोकर चुनौती देता है इतिहास को उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदत्र जाती है।

प्रस्तुत पद ' धर्मवीर भारती' के नाटक ' अंधा-युग' से लिया गया है। इस नाटक में लेखक ने महाभारत के प्रचीन अख्यान को आधार बनाकर वर्तमान युग की राजनीतिक स्थिति में विभिन्‍न समस्याओं को प्रतिबिम्बित किया है।

   इस नाटक में जीवन के कठोरता तथा आत्मत्याग पर बात की गई है। जब जीवन में निर्णय लेने का समय आता है तो मर्यादा, धर्म, नीति सब व्यर्थ सिद्ध होते हैं।

व्याख्या- मनुष्य अपने जीवन के प्रवृत्ति में इतना खो जाता है कि उसे क्‍या सही क्या गलत का ज्ञान नहीं होता है। मनुष्य के मन में एक अंधकार छाया रहता है, वह जैसे अपने भीतर. कोई बर्बर पशु या अंधे पशु का वास हो। वह जब भी कोई निर्णय लेता है। वहाँ पर सभी विवेक और मर्यादा व्यर्थ सिद्ध होते हैं। सबका कोई मोल नहीं रहता है। जीवन में जब कठोर सभ्य आता है, वह सही निर्णय नहीं ले पाता है। सारे आदर्श खोखले रह जाते हैं।

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