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यशपाल की कहानियों में मध्यवर्गीय संदर्भ

यशपाल मूलतः मध्य वर्ग के लेखक हैं। अपनी कहानियों में वे उस प्रगतिशील परिवर्तन कामी मध्यवर्ग की भूमिका को विशेष रूप से रेखांकित करते हैं जो सामाजिक- राजनीतिक क्रांति का समर्थक और वाहक है। सामाजिक विसंगतियों के उद्घाटन के लिए यशपाल ने व्यंग्य का उपयोग बड़ी खूबी के साथ किया है। उनकी आरंभिक कहानियों में यह देखा जा सकता है। इसी दौर में लिखित अज्ञेय की भावुक और गद्य ग़ीतनुमा कहानियों से “पिंजरे'"की उड़ान' की कहानियों की तुलना करके इस अंतर को भली-भांति समझा जा सकता है। प्रेमचंद की कहानियों की अपेक्षा यशपाल की ये आरंभिक कहानियाँ निजी जीवन-प्रसंगों के रचनात्मक उपयोग से अधिक समृद्ध हैं। लेकिन अपनी इन कहानियों में भी, एक लेखक की हैसियत से यशपाल कहानी और जीवन के पारस्परिक संबंधों को लेकर कहीं भी अस्पष्ट नहीं हैं। वे लिखते हैं, “हमारी कल्पना का आधार जीवन की ठोस वास्तविकताएँ ही होती हैं......” यशपाल की कल्पना अतीत सुख-दुख को अनुभूति के चित्र बनाकर उससे ही संतोष करने को तैयार नहीं है। अपनी कल्पना की प्रकृति की ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं,“(वह) आदर्श की ओर संकेत कर समाज के लिए नया नक्शा तैयार करने का यत्न अपनी कहानियों द्वारा यशपाल एक ओर यदि मध्यवर्ग की रूढ़ियों और परंपरागत संस्कारों पर चोट करते हैं, वहीं वे अवैज्ञानिक निषेधों और वर्जनाओं की भर्त्सना करके स्वस्थ, वैज्ञानिक और सकारात्मक दृष्टिकोण के निर्माण पर बल देते हैं। अकारण भावुकता से बचते हुए, तर्क-सम्मत और यथार्थ दृष्टि अपनाकर ही जीवन सार्थक ढंग से जिया जा सकता है। इसी आधार पर यशपाल कला की शुद्धता के सिद्धांत की तीखी आलोचना करते हुए उसे जीवन के संदर्भ में ही प्रयोजनीय और सार्थक मानते हैं। यशपाल की कहानियाँ बदलते सामाजिक संदर्भों में बदली हुई नैतिकता की हिमायत करती हैं इसीलिए जब-तब वे अनेक प्रकार के विवादों का केंद्र भी रही हैं। वे इस बात पर जोर देते हैं कि अपने विकास के क्रम में समाज ने अपने को तेजी से बदला है। इसीलिए प्राचीन और परंपरागत मान्यताओं एवं धारणाओं पर गहराई से पुनर्विचार की आवश्यकता है। इसी स्थिति पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं, “अनेक पुरानी मान्यताएँ और परंपराएँ आज की परिस्थितियों में बहुत उखड़ी-उखड़ी लगती हैं। इनसे समाज में अव्यवस्था ही उत्पन्न होती दिखाई देती है। समाज का अंग होने के. नाते इन अव्यक्त कारणों को सुलझा सकने में बल्कि ज्यादा संतोष अनुभव होता है। इसी ओर मेरी अधिक प्रवृत्ति होती है, यानी असुंदर को प्रकट कर देने की ओर; अपने समाज को अंधविश्वास के धोखे से बचाने की ओर.......!"

 

यशपाल की इस टिप्पणी के संदर्भ में उनकी कहानियों की भूमिका को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। अपनी पीढ़ी के अनेक किशोरों की तरह उन्होंने भी अपना जीवन आर्यसमाज की छाया में शुरू किया था। तब आर्य समाज की एक क्रांतिकारी भूमिका थी। सरकारी अनुदान और दूसरे प्रलोभनों में फंसकर यशपाल ने गहरी हताशा के साथ उसकी धार को कुंठित होते देखा था। अपनी इस क्रांतिकारी भूमिका को छोड़कर रूढ़, प्रतिक्रियावादी और निषेधपूर्ण धारणाओं से जीवन को नियंत्रित करने की उसकी लालसा को वे सामाजिक विकास की दृष्टि से घातक मानते थे। ब्रह्मचर्य का आदर्श, बदली हुईं स्थितियों में, उन्हें एक बहुत बड़ा ढोंग लगता था। अपनी प्रसिद्ध और विवादास्पद कहानी 'धर्मस्‍्ा' में इसी दृष्टि से वे आर्यसमाज की विचार-दृष्टि पर आक्रमण करते हैं। दूसरे प्रकार के शोषण के समान वे स्त्री के मौन-शोषण के भी प्रबल विरोधी थे। 'तुमने क्यों कहा था। मैं सुंदर हूँ!' में वे स्‍त्री को कुंठित करने वाली स्थितियों का विस्तारपूर्वक अंकन करते हुए उसके प्रकृत कामावेग का अंकन करते हैं। उनकी अनेक कहानियाँ परिवर्तित सामाजिक संदर्भां में सत्री-पुरुष संबंधों की संभावनाओं को तलाशती दिखाई देती हैं।

यशपाल की कहानियों में मध्यवर्ग के विभिन्‍न स्तरों से आए पात्रों की एक भरी पूरी और रंगारंग दुनिया हिलोरे लेती दिखाई देती है। इन कहानियों मे पुलिस के अत्याचारों से त्रस्त और आतंकित लोग हैं। रूढ़ियों और अंधविश्वासों में पले-बढे, शहरी सभ्यता क॑ विलास से काफी कुछ अछूते पहाड़ी गाँवों में बसे लोग हैं जो धर्म, मनौती और देवी-देवताओं के नाम पर आज भी शोषण का शिकार हैं। पहाड़ों पर तफरीह को जाने वाले सुक्धिभोगी लोग हैं जो परीक्षा की तैयारी की आड़ में सड़कों पर सैर करती लड़कियों के भंबर तय करते हैं। पढ़ी-लिखी उपेक्षित महिलाएँ हैं, रूढियों और सामाजिक विसंगतियों की शिकार भी हैं और वैश्याएँ भी। एक ओर अपनी सफेदपोशी और अभिजात दर्प में बंद लोग हैं, जो इंसान का इंसान की तरह जीना पसंद नहीं करते, और दूसरी ओर शोषित, उपेक्षित, दुखी और सताए हुए लोग हैं जो अपने हक की लड़ाई के लिए अपने को मानसिक रूप से तैयार कर रहे हैं। दूसरों की दवा और कैसी भी करुणा के बदले वे आत्मनिर्णय के अपने अधिकार को वरीयता देते दिखाई देते हैं। यशपाल की कहानियों के संदर्भ में यह तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद के बाद कदाचित किसी दूसरे लेखक ने इतनी बड़ी संख्या में न तो अपने आस-पास के विभिन्न वर्गों, श्रेणियों और संस्कारों के पात्रों के एक जीवंत एवं विश्वसनीय संसार की रचना की है और न ही इतने ज्यादा मुस्लिम पात्रों को आधार बनाकर कहामियाँ लिखी हैं जितनी यशपाल ने। आर्य समाज की निषेधारित जीवन-दृष्टि की तरह ही वे 'पाप की कीचड़' में ईसाई समाज की पृष्ठभूमि में भी इस अप्राकृतिक और अवैज्ञानिक सोच की भर्त्सना करते हैं।

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