कथानक रुढ़ियों लोक-साहित्य के अध्ययन के आवश्यक उपादान हैं। कथानक रूढ़ियों में जीवन और समाज का संश्लिष्ट अर्थ स्तर छिपा होता है, जिसे अनदेखा करके आदिकाल के काव्य के मर्म तक नहीं पहुँचा जा सकता। ये कथानक रुढ़ियाँ विविध प्रकार की हैं। पशु-पक्षी, देव-दानव, सरीसृप, वृक्ष, शाप, वरदान, स्वप्न संकेत, अभिज्ञान, प्राण प्रक्षेपण, अप्सराओं का साक्षात्कार, यक्ष-गंधर्व से मिलन आदि विविध प्रकार की कथानक रूढ़ियों के सांकेतिक अर्थ और उनके प्रचलन की परंपरा है। कथानक रूढ़ियों का विकास प्रबंध काव्य के संदर्भ में ही हुआ है। वस्तुतः प्रबंध काव्य में कथानक रूढ़ियों द्वारा दो प्रकार का कार्य सम्पन्न हुआ है। कथानक रूढ़ियों से कथा-क्रम को गति दी गई है तथा प्रबंध काव्य की संभावना को अधिक विस्तृत करने के कार्य का निष्पादन हुआ है | काव्य में संभावना पक्ष पर अधिक बल देने के कारण कथानक रुढ़ियाँ चल पड़ीं। पृथ्वीराज रासो' में शुक-शुकी का प्रसंग आता है जो कथा कहने वाले वक्ता भी हैं और श्रोता भी। कथानक की गति में जहॉ-जहाँ अवरोध पैदा होता है शुक-शुकी के संवाद में नए प्रसंग की उद्भावना की जाती है। कुछ कथानक रूढ़ियों का निर्वाह मध्य काल के प्रबंध काव्यों में सामान्य रूप से मिलता है। तुलसीदास के रामचरितमानस और जायसी के पद्मावत दोनों कृतियों में विवाह से पहले नायिका का शिव-पूजन के लिए जाना और उसी क्रम में नायक से भेंट, सामान्य रूप से मिलते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि कथानक रूढ़ियों का संबंध किसी रचना से नहीं होकर संस्कृति के एक विशिष्ट दृष्टिकोण से होता है। कथानक रूढ़ियों में प्रतीकों, लोक-विश्वासों, मिथकों और लोकगाथाओं का मिला-जुला रूप प्रकट होता है। उनके अध्ययन से हमें संस्कृति के जीवन-दर्शन के अंतःसंबंध की रूपरेखा प्राप्त होती है। मानव तथा प्रकृति के आंतरिक रिश्तों का अंतःसूत्र मिलता है।
काव्य में प्रेम संबंधी कथानक रूढ़ियों का प्रयोग कई
रासो ग्रंथों में मिलता है। 'पृथ्वीराज रासो में
ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं, जिसमें नायक तथा नायिका किसी दूसरे
के मुख से गुणगान को सुनकर परस्पर आकर्षित होते हैं| पृथ्वीराज
नट से शशिव्रता के रूप की प्रशंसा को सुनकर तथा शशिव्रता गाना सिखाने वाली
शिक्षिका से पृथ्वीराज की प्रशंसा को सुनकर एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट होते हैं इस
प्रकार की कथानक रूढ़ियों का प्रयोग प्रेम-काव्यों में बहुत अधिक मिलता है। इसी
प्रकार, कन््या-हरण का प्रसंग भी बहुत सामान्य-सी कथानक
रूढ़ि है। पृथ्वीराज रासो' में कन्या-हरण के कई प्रसंग मिलते
हैं। प्रेम संबंधी कथानक रूढ़ियों के अध्ययन से यह पता चलता है कि इस प्रकार के
प्रेम में स्वाभाविक अनुभूति और मार्मिकता नहीं है। यह प्रेम रूप-वर्णन और वयःसंधि
प्रकरण तक सीमित है। इंछिनी के सौंदर्य वर्णन में रासोकार लिखते हैं-
नयन
सुकज्जल रेष तथ्षि निष्छल छवि कारिय।
श्रवनन
सहज कटाछ चित कर्षन नर नारिय।
भुज
मृनाल कर कमल उरज अबुज कल्लिय फल।
जंघ रंभ कटि सिंहगमन दुति
हंस करी छल।
ऋतु-वर्णन भी प्रेम-संबंधी कथानक रूढ़ियों का एक
हिस्सा है। पृथ्वीराज रासो' में संयोगकालीन
उद्दीपक ऋतु वर्णन की पुरानी प्रथा को अपनाया गया है | पृथ्वीराज
युद्ध से पहले हर रानी से विदा लेने जाते हैं और वे उस ऋतु में ऋतु का मनोरम वर्णन
सुनकर वहीं रुक जाते हैं। वसंत ऋतु में इंछिनी के पास जाते हैं पर उन्हें नायिका
से बाहर निकलने की
अनुमति
नहीं मिलती है। वसंत के बाह्य वातावरण का चित्र उपस्थित करती हुई रानी पृथ्वीराज
से कहती है जब आम बौरा गए हों, कदम्ब फूल चुके हो,
रात की दीर्घता में कोई कमी न आई हो, भँवरे
भावमत्त होकर झूम रहे हों, मकरंद की झड़ी लगी हुई हो,
मंद मंद पवन विरहाग्नि को सुलगाने में लगी हो, और कोकिल कूक रही हो - ऐसे में कोई अपने प्रिय को बाहर जाने की अनुमति
कैसे दे सकती है-
मवरी
अंब फुल्लिंग कदंब रयनी दिघ दीस॑।
भैंदर
भाव भल्लै श्रमंत भ्रमंत मकरंद बरीसं।|
बहत
वात उज्जलित भौर अति विरह अगिनि किय।
कुहकुहंत कलकंठ पत्रराषस अति
अग्ग्यि1।
काव्य
में वातावरण के चित्र के द्वारा संयोग की अनुभूति की व्यंजना की गई है परंतु जितने
भी उपमानों का प्रयोग किया गया है वे बड़े ही रूढ़ हैं। कवि उसमें किसी भी तरह की
मौलिकता का परिचय नहीं देता। वसंत ऋतु के बाद ग्रीष्म का वर्णन मिलता है। ग्रीष्म
ऋतु में पृथ्वीराज पुण्डीरनी के यहाँ ठहर गए। पुण्डीरनी ने भी ग्रीष्म का उसी
प्रकार का चित्र उपस्थित किया। वह पति से अनुरोध करती है कि जब राह चलना कठिन हो
रहा हो, दिन-रात गर्मी की ज्वाला से काया
क्लेशपत्र हो उठी हो - इस प्रकार के समय में प्रिय को कभी बाहर नहीं जाना चाहिए -
त्रिय
लहै तत्त अष्यर कहै गुनियन ग्रब्ब न मंडियै।
सुनि कंत सुमति संपति,
विपति ग्रीषम ग्रेह न छंडियै ।॥
पृथ्वीराज
वर्षाकाल में इंद्राववी से विदा लेने गए। उसने भी वर्षा ऋतु की पृष्ठभूमि में
प्रिय से मिलन की आकांक्षा अभिव्यक्त- की ! वर्षा ऋतु में प्रकृति का चित्र मादक
हो उठता है। ऐसे मद-मरे वातावरण में कोई भी रमणी अपने प्रिय को कैसे विदा कर सकती
है -
घन
गरजै घर हरै पलक निस रैनि निघट्टै।
सजल
सरोवर पिष्वि हियौ ततछन घन फट्टै।
जल
बदल बरषंत पेय पल्ल्हौ निरंतर।
कोकिल सुर उच्चरै अंग पहरंत
पंचसर।
'पृथ्वीराज रासो' तथा अन्य रासो ग्रंथों में ऋतु
वर्णन की रूढ़ि का पालन किया गया है। “संदेश रासक' में कवि
को ऋतु वर्णन का एक सुंदर बहाना मिल गया है। इस काव्य में पथिक को विरहिणी का
संदेशवाहक बनाया गया है। पथिक विरहिणी की दशा देखकर रुक जाता है। अंत में पथिक
विरहिणी से पूछता है कब से तुम्हारा यह हाल है ? उसके बाद एक-एक
करके ऋतु वर्णन चलने लगता है। पृथ्वीराज रासो' और 'संदेश रासक' के ऋतु वर्णन में अंतर है। 'सदेश रासक' में विरहिणी नायिका जन-सामान्य की
भावभूमि पर दिखाई पड़ती है। उसमें राजसी ठाठ नहीं है, उसके
दुख में अनुभूति की सच्चाई है। कवि ने कुछ ताजे बिंबों का प्रयोग कर विरह को तीव्र
बनाने का प्रयास किया है। 'पृथ्वीराज रासो' में ऋतु वर्णन का प्रयोग काव्य में परंपरा-पालन के लिए किया गया है। ऋतु
वर्णन में एक बात स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आती है कि नारी का जीवन पुरुषों पर
आश्रित था और पति के बिना उनका जीवन अस्तित्वहीन मालूम पड़ता है। नारी में एक
प्रकार की असुरक्षा का भाव मिलता है, उसे हमेशा यह डर लगा
रहता है कि पुरुष अपनी स्वेच्छाचारिता के कारण कहीं उसका त्याग न कर दे, इसलिए वे पुरुष को अपने पास से अलग नहीं करना चाहती हैं। नारी कभी ऋतु का
भ्रम उत्पन्न करके और कभी अपने यौवन की उन्मादकता के द्वारा पुरुष को अपने पास
रखने का प्रयत्न करती है।
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