हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध कुटज एक ललित निंबध है। यह शिवालिक पर्वत श्रंखला पर मिलने वाला अल्प परिचित पौधा है। लेकिन कुटज मात्र बहाना है, वे तो मनुष्य के बारे में, उसके जीवन, उसके संघर्ष और उसके भविष्य के बारे में बात कर रहे है। बातचीत करने की यह छलौली इतनी आत्मीय और हृदयस्पर्शी है कि चाहते हुए भी उसके प्रभाव से अछुते नहीं रह पाते।
द्विवेदी जी उस स्थल
विशेष को प्रस्तुत करते हैं जहाँ कुटज उगता है, पनपता है और
पुष्पित पल्लवित होता है। यह स्थान है शिवालिक-श्रंखला और हिमालय की निचली
पहाडियाँ। वे शिवालिक का अर्थ बताते हुए लिखते हैं-'शिवालिक'
या शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा। शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है। यह पर्वत श्रंखला शिव के जयजूट के निचले हिस्से
का प्रतिनिधित्व करती है। आगे 'हिमालय' ओर “पर्वत” के वैशिष्ट्य को प्रस्तुत करते हुए बे कालिदास का स्मरण करते
है: यथा-'पूर्व और अपर समुद्र -महोदधि और आकार - दोनों को
भुजाओं से थाहता हुआ हिमालय “पृथ्वी का मानदंड' कहा जाए तो
गलत क्या है। हिमालय श्रंखला की भूमि का स्वरूप वर्णन करते हुए वे विषय की पृष्ठभूमि
बताते हैं। जहाँ कुटन उगता है उस भूमि पर हरियाली नहीं है, दूब
तक सूख गई है, काली-काली चट्टानों के बीच थोड्डी-थोड़ी रेती
है। यही कुटज उगता है। द्विवेदी जी प्रश्न करते हे-'रस कहाँ
है? अब कुटज पेड़ का वर्णन देखिए-ये जो ठिगने से लेकिन
शानदार दरख्त गर्मी की भंयकर मार खा खा कर भूख-प्यास की निरंतर चोट सहकर भी जी रहे
हैं--'बेहया हैं क्या? या मस्तमौला?'
प्रश्न का उत्तर पाठकों पर छोड़कर द्विवेदीजी व्यंग भी करते हैं और
वस्तु का वैशिष्ट्य भी स्पष्ट करते है। यथा-कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं,
उनकी जड़ें काफी गहरी पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न
जाने किस अतर गह्वर भोग्य खोंच लाते हैं! अर्थात् कुटन ऊपर से ही बेहया प्रतीत
होता हैं पर उसकी जड़ें गहरी है और इस प्रश्न का कि रस कहाँ है? उत्तर है-'पाषाण की छाती के बहुत नीचे। इस रस को ये
वृक्ष जानेकहाँ से खींच लाते हैं, यही इनका भोग है। कुटज का
स्वरूप अद्भुत है। ये वृक्ष इतनी कठिनाई के बीच भी मुस्कराते व्यंजना होता है।
यदि एक प्रकार से देखा
जाए तो कुटज का उत्पत्ति-स्थल, रेतीले पहाड़ों के कठिनतम
पर्यावरण के मध्य उसका जन्म लेना और उसी परिवेश में पुष्पित पल्लवित होना सब कुछ
एक कहानी जैसे लगता है। एक ऐसी कथा जिसका नायक असीम जीवन शक्ति से जीवंत भी है।
इसका नायकत्व जीवन की कला भी जानता है। उसमें रस भी है और आदर्श भी। हजारी प्रसाद
द्विवेदी आत्मीय एवं घनिष्ठ भाव से कुटज से जुड़े जाते हैं। इस निबंध से गुजरते
हुए ऐसे लगता है जैसे द्विवेदी जी उसकी काया में प्रवेश कर लिया है। इसकों ही “परकाय
प्रवेश” कहते हैं। यदि ऐसा न होता तो निबंध बाह्य विवरण देकर समाप्त हो जाता। ललित
निबंध का वैशिष्ट्य अंतरंग होने में है। कुटन के साथ अंगरंगता कुटज निबंध का प्राण
है। वह सखा है, मनस्वी मित्र है, गाढ़े
का साथी है। हजारी प्रसाद द्विवेदी कुटज के साथ एकात्म हों जाते है। विवरण तो कोई
भी सामान्य लेखक दे सकता है, पर विषय-वस्तु के साथ एकात्म
स्थापित करना महान् लेखक के द्वारा ही हो सकता है। इस एकात्म भाव के कारण कभी-कभी
ऐसे भी प्रतीत होता है। कि कुटज के भीतर से हजारी प्रसाद द्विवेदी कौ वाणी का झरना
प्रवाहित हो रहा है। विषय से अभिन्नता ललित निबंध के लिए आवश्यक है। यह एकत्व और
आत्मीयता होने पर वस्तु की अंतरंगद्वा स्पष्ट होती है। हृदय का हृदय से बिनियोग
होता है। यह विनियोग चिंतन के प्रवाह को प्रस्तुत करता है, भाषा
को गतिमान बनाता है, आत्मीयता से भर देता है, शिल्प को वैभव प्रदान करता है और भाषा को सरस और सारगर्भित बनाता है।
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