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द्विवेदी युगीन हिंदी आलोचना पर निबंध लिखिए।

हिंदी भाषा और साहित्य के विकास एवं परिष्कार के लिए आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जो कार्य किया, वह हिंदी साहित्य में अद्वितीय है । उनके युग में हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि तो हुई ही, साहित्यालोचना के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य हुआ। इस युग में यद्यपि हिंदी आलोचना का गंभीर एवं तात्विक रूप तो नहीं निखरा किंतु अनेक महत्वपूर्ण आलोचना-पद्धतियाँ अवश्य विकसित हुईं, जैसे - शास्त्रीय आलोचना, तुलानात्मक मूल्यांकन एवं निर्णय, परिघयात्मक तथा व्याख्यात्मक आलोचना, अन्वेषण तथा अनुसंधानपरक समीक्षा आदि।

रीतिकालीन लक्षण-ग्रंथों की परम्परा का पालन करते हुए अनेकों विद्वानों ने इस युग में काव्यशास्त्रीय ग्रंथों की रचना करके शास्त्रीय एवं सैद्धांतिक समीक्षा को परिपुष्ट किया। राजा मुरारीदान कृत “जसवन्त भूषण'', महाराजा प्रतापनारायण सिंह कृत “रसकुसुमाकर'', जगन्नाथ भानु कृत “काव्यप्रभाकर'', लाला भागवानदीन कृत “अलंकारमंजूषा' ', सीताराम शास्त्री कृत “साहित्य सिद्धांत'' आयोध्या लिंह उपाध्याय कृत रसकलश'”” आदि इस युग के वे सैद्धांतिक ग्रंथ हैं जिनसे हिंदी की शास्त्रीय आलोचना का विकास हुआ है। इन ग्रंथों में रीतिकालीन लक्षण-प्रंथों की परम्परा का तो निर्वाह हुआ ही है, अंग्रेजी, फारसी, उर्दू आदि भाषा-साहित्यों के संपर्क और युगीन प्रभावों के फलस्वरूप कतिपय नई बातों का भी समावेश हुआ है।

प्राचीन सिद्धांतों के परिषोषण और विवेचन के साथ ही इस युग के नवीन सिद्धांतों के प्रतिषादन का भी कार्य हुआ है। इस दृष्टि से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, पुन्नालाल बख्शी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बाबू ज्यामसुन्दर दास और गुलाब राय के नाम उल्लेखनीय हैं। द्विवेदी जी ने “रसारंजन'' में विषय के अनुकूल छंदयोजना, सरल भाषा के प्रयोग, अर्थ-सौरस्य, मनोरंजन के स्थान पर युगबोध, नैतिकता, मर्यादा, देश-प्रेस आदि से संबंधित उच्च भावों की अभिव्यक्ति पर विशेष बल दिया और रीतिकालीन कविता की अतिशृंगारिकता तथा विलासिता की प्रवृत्ति की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि इससे त तो देश और समाज का कल्याण हो सकता है, न उसके सर्जक का ही। उन्होंने अपने “कवि कर्त्तव्य'” नामक निबंध में विस्तार के साथ कवि के नए कर्त्तव्यों का बोध कराते हुए काव्य-विषय, काव्य-भाषा, शैली, उद्देश्य आदि का जो विवेचन किया है, उससे पत्रा चलता है कि द्विवेदी जी नवीनता के पोषक थे और नयी परिस्थितियों में साहित्य. साधना को नए दायित्वों से जोड़ना चाहते थे। उन्होंने “सरस्वती”' पत्रिका के माध्यम से इस कार्य को सम्पन्न किया और हिंदी भाषा, साहित्य और आलोचना को नयी दिज्ञा प्रदात की ।

द्विवेदी-युग में तुलनात्मक समीक्षा में विशेष प्रगति हुई! इस युग में साहित्यकारों का संस्कृत के साथ-साथ अंग्रेजी, फारसी, उर्दू आदि भाषाओं के साहित्य से घनिष्ठ परिचय होने के कारण तुलनात्मक एवं निर्णयात्मक समीक्षा की प्रवृत्ति का विकास हुआ। इस क्षेत्र में पद्मसिंह शर्मा, मिश्रबंधु (श्यामबिहारी मिश्र, शुकदेव बिहारी मिश्र, गणेश बिहारी मिश्र), लाला भगवानदीन और कृष्णबिहारी मिश्र ने विशेष कार्य किया। सबसे पहले पद्मसिंह शर्मा ने ' बिहारी' और फारसी के कवि ' सादी' की तुलनात्मक आलोचना की, उसके बाद मिश्रबंधुओं ने “ हिंदी नवरत्न”' नामक ग्रंथ में तुलनात्मक मूल्यांकन के आधार पर हिंदी के नौ कवियों (सूर, तूलसी, देव, बिहारी, केशव, भूषण, सेनापति, घन्द, हरिशचन्द्र) को श्रेणीषद्ध करके उनकी आलोचना प्रकाशित की। बाद में उनके इस श्रेणी-निर्धारण में परिवर्तन भी होता रहा मिश्र बंधुओं ने देव को बिहारी से ऊँचा कवि माता, इसके उत्तर में पद्मसिंह शर्मा ने “ बिहारी” को बड़ा सिद्ध किया। बाद में तुलना के इस अखाड़े में कृष्णबिहारी मिश्र और लाला भगवानदीन भी आ गए। कृष्णबिहारी मिश्र ने “ देव और बिहारी”' पुस्तक लिखकर देव को बड़ा कवि सिद्ध किया, इस पर लाला भगवानदीन ने “ बिहारी और देव”” पुस्तक लिखकर बिहारी को बड़ा सिद्ध करने का प्रयत्न किया। इस तरह तुलनात्मक समीक्षा का एक ऐसा मार्ग निकला जिसमें प्रचीन सिद्धांतों के आलोक में हिंदी कवियों की व्यावहारिक समीक्षा की गई। यह शास्त्रीय आलोचना के भीतर जन्म लेने वाली वह व्यावहारिक समीक्षा थी जिसमें गुण-दोष विवेचन और बड़ा-छोटा सिद्ध करने की प्रवृत्ति अधिक थी। जीवत और समाज के व्यापक संदर्भों में साहित्य को समझने की यदि कोशिश की गई होती तो इस आलोचना में अधिक व्यापकता आ जाती।

आलोचना की नवीन व्यावहारिक पद्धति का प्रयोग भारतेंदु युग की पुस्तक परिचय वाली आलोचना में ही प्रकट होने लगा था। किंतु उसका विकास द्विवेद्वी युग में सरस्वती” ” पत्रिका के माध्यम से हुआ। इस युग में पुस्तक परिचय से पुल्तक-समीक्षा और फिर साहित्यिक समालोचना का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस युग में साहित्यालोचन '” की प्रवृत्तियों और आदर्शों पर अनेक लेख “नागरी प्रचारिणी पत्रिका”, “सरस्वती” ', “समालोचक' ', “इन्द्र'', “माधुरी'', आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। “नागरी प्रघारिणी पत्रिका” में गंगाप्रसाद अग्निहोत्री ने “समालोचना'” नामक लेख प्रकाशित करके समालोचक के गुणों - मूलग्रंध का ज्ञान, सत्य-प्रीति, शांत स्वभाव और सह्दयता - को रेखांकित किया। इसी पत्रिका में जगन्ताथदास “रत्माकर”” ने अंग्रेजी साहित्यकार पोष के “एसे ऑन क्रिटिसिज्म'' का अनुवाद “समालोचनादर्श”” के नाम से प्रकाशित किया । इस तरह साहित्य-समीक्षा के स्वरूप और आदर्श पर विचार-विमर्श शुरू हुआ। महावीरप्रसाद द्विवेदी ने “विक्रमांददेव चरित नैषधचरित चर्चा'” और “कालिदास की निरंकुशता'' जैसे लेखों से व्यावहारिक समीक्षा का मार्ग प्रशस्त किया और संस्कृत, बंगला, अंग्रेजी, मराठी और उर्दू साहित्य में प्राप्त महत्वपूर्ण सामग्री की जानकारी हिंदी पाठकों को दी जिसे आचार्य शुक्ल ने “एक मुहल्ले की बात दूसरे मुहल्ले तक पहुँचाने ”' का कार्य कहा, किंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि यह हिंदी पाठकों, सर्जकों और समीक्षकों को ज्ञान से, समृद्ध करने वाला एक महत्वपूर्ण कार्य था। द्विवेदी जी ने समालोचक का कर्त्तव्य निर्धारित करते हुए लिखा है - “किसी पुस्तक या प्रबंध में क्या लिखा गया है, किस ढंग से लिखा गया है, यह विषय उपयोगी है या तहीं, उससे किसी का मनोरंजन हो सकता है या नहीं, उससे किसी को लाभ पहुँच सकता है या नहीं, लेखक ने कोई नई बात लिखी है या नहीं, यही विचारणीय विषय है। समालोचक को प्रधानत: इन्हीं बातों पर विचार करना चाहिए |”

द्विवेदी युग में ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की व्यावहारिक समीक्षा की व्याख्यात्मक पद्धति विकसित हुई। चूँकि शुक्ल जी की आलोचना कई तरह से हिंदी आलोचना में एक मानक की तरह है और द्विवेदी युग की आलोचना से काफी आगे की है, इसलिए इसकी विशेष चर्चा शुक्ल गुगीत हिंदी आलोचना के अंतर्गत की जाएगी।

द्विवेदी युग में ही अनुलंधानपरक समीक्षा का विकास हुआ। वैसे तो “नागरी प्रचारिणी पत्रिका'' में प्रकाशित लेखों से ही इस पद्धति के दर्शन होने लगे थे, किंतु उसका सम्यक्‌ विकास द्विवेदी-युग में 1921 ई. में बाबू श्याम सुंदर दास के काशी हिंदू विश्वच्चिलय में हिंदी विभाग में नियुक्त होने के बाद ही हुआ। शोध या अनुसंधानपरक आलोचना में अनुपलब्ध या अज्ञात तथ्यों का अन्वेषण तथा उपलब्ध तथ्यों का नवीन आख्यान आवश्यक होता है। बाबू श्यामसुंदर दास, राधाकृष्ण दास, जगन्नाथ दास र॒त्नाकर और सुधाकर द्विवेदी ने द्विवेदी युगीन अनुसंघानपरक आलोचना का स्वरूप विकसित करने में योग दिया है।

हिंदी में जिस आलोचना का सूत्रपात भारतेंदु युग में हुआ, द्विवेदी युग मे उसका विकास हुआ। आलोचना के क्षेत्र में महावी रप्रसाद द्विवेदी ने एक ओर जहाँ विक्रमांक-चरित्‌ चर्चा', 'नैषधचरित्‌ वर्चा', 'मेघदूत* में संस्कृत कवियों का परिचय देकर तो दूसरी ओर 'कालिदास की निरंकुशता', हिंदी कालिदास की आलोचना” आदि में भाषागत दोषों को रेखांकित करके अपना योगदान दिया। उनके इन आलोचनात्मक प्रयासों में मौलिकता का अभाव था। इसीलिए द्विवेदी जी के इन आलोचना-प्रणासों पर टिप्पणी करते हुए शुक्ल जी ने लिखा है - “इन पुस्तकों को एक मुहल्ले में फैली बातों से दूसरे मुहल्ले वालों को परिचित कराने के प्रयत्न के रूप में समझना चाहिए, स्वतंत्र समालोचना के रूप में नहीं।  दरअसल द्विवेदी जी सरस्वती” के सम्पादन और भाषा के सुधार-परिष्कार में इतने व्यस्त थे कि वे अन्य क्षेत्रों में बहुत मौलिक एवं महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सके। उन्होंने विभिन्‍न विधाओं की जो रचनाएँ की हैं वे अन्य लेखकों को प्रेरित करने के लिए नमूसे के तौर पर की हैं। 'कवि-कर्त्तव्य', 'कवि बनने के लिए सापेक्ष साधन”, कवि और कविता', कविता” जैसे सैद्धांतिक लेख भी कवियों को प्रेरित करने के लिए ही लिखे धे। इसलिए आलोचक के रूप में द्विवेदी जी का महत्त्व पथ-प्रदर्शक की दृष्टि से है, गंभीर विवेचन-विश्लेषण करके मूल्यांकन करने वाले आलोचक की दृष्टि से नहीं।

महावीर प्रताद द्विवेदी ने हिंदी आलोचना को जहाँ तक पहुँचाया, उसे उससे आगे मिश्र बंधुओं ने बढ़ाया। उन्होंने हिंदी नवरत्न' (1910-11) में नौ प्रतिष्ठित कवियों की आलोचना प्रस्तुत की, जिसमें एक ओर इन कवियों के काव्य को रस, ध्वनि, गुण, अलंकार आदि की दृष्टि से देखा गया था तथा दूसरी ओर कवियों की भाव संवेदना, विचारधारा, जीवनदृष्टि आदि पर भी कहीं-कहीं विचार किया गया था। मिश्रबंधु इन दोनों पक्षों को न तो समन्वित कर पाए और न ही गहरे जाकर इनका विश्लेषण कर पाए। उन्होंने कवियों के संबंध में तथ्यात्मक शोध भी की और उनकी परस्पर तुलना करके उन्हें छोटा-बड़ा भी सिद्ध किया। इसी से निर्णयात्मक आलोचना और तुलनात्मक आलोचना का प्रचलन हुआ। मिश्र बंधुओं की आलोचनात्मक उपलब्धि बहुत बड़ी नहीं है, किंतु उनका महत्व इस बात में है कि उन्होंने हिंदी आलोचना

को गुण-दोष-दर्न से आगे बढ़ाकर नगरी दिशा में मोड़ा। उनकी दूसरी पुस्तक 'मिश्रबंधु विनोद' (1914, 34 : कुल चार खण्ड) आलोचना की दृष्टि से कम साहित्येतिहास की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है। इस पुस्तक में उन्होंने हिंदी के नये-पुराने लगभग 5000 कवियों का जीवनवृत्त एवं संक्षिप्त काव्य-परिचय प्रस्तुत किया है। यह हिंदी साहित्य का इतिहास नहीं है, लेकिन इतिहास की आधारभूत सामग्री अवश्य प्रस्तुत करता है। अपने साहित्येतिहास के लेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इससे बहुत सहायता ली थी।

हिंदी नवरत्न' में मिश्रबंधुओं ने देव को सबसे बड़ा कवि सिद्ध किया और यह सिद्ध करने के लिए बिहारी के काव्य में वे दोष भी दिखाये, जो उसमें हैं नहीं। इससे एक विवाद उठ खड़ा हुआ कि देव बड़े हैं अथवा बिहारी। बिहारी के भक्त 'पद्मसिंह शर्मा' इसे सह नहीं पाये और उन्होंने बिहारी को देव से ही नहीं, अन्य कवियों से भी बड़ा सिद्ध करने के लिए मोर्चा खोल दिया। बिहारी की सतसई' में उन्होंने संस्कृत, फारसी, उर्दू, हिंदी आदि के पद्मों के साथ तुलना करके बिहारी को बड़ा कवि सिद्ध किया। उनकी आलोचना का अंदाज महफिल में दाद देने वालों का है, किंतु कविता के अभिव्यंजना पक्ष का सूक्ष्म विवेचन भी उन्होंने किया है। उनके संबंध में नन्‍ददुलारे वाजपेयी का यह कहना ठीक है कि थे अभिव्यंजना चरीक्षा के आचार्य थे। शब्दगत और अर्थगत बारीकियों तक उनका जैसा अबाघ प्रवेश था, हिंदी में किसी दूसरे व्यक्ति का नहीं देखा गया ।'

देव और बिहारी संबंधी इस विवाद में अपनी पुस्तक देव और बिहारी' (1920 ई.) के द्वारा कृष्णबिहारी मिश्र ने देव को बिहारी से बड़ा सिद्ध किया। उनकी आलोचना के औजार परंपरागत ही हैं, यद्यपि इन्होंने विवेचना की दिशा में बढ़ने का प्रयत्न किया है। “यह पुरानी परिपाटी की साहित्य समीक्षा के भीतर अच्छा स्थान पाने के योग्य हैं।'

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