वास्तव में हरिवंशराय
बच्चन की आत्माकथा का यह पहला भाग उनकी पहली पली ष्टयामा की मृत्यु तक की जिंदगी
को संपूर्णता में उपस्थित करता है चाहे वह परिवार हो या युगीन परिवेश, परंपरा हो अथवा समाज! क्या बाबा, क्या राधा बुआ,
क्या कर्कल, कया चंपा और क्या श्रीकृष्ण
सूरी-श्यामा के साथ ही उसकी जिंदगी में आए ये सारे लोग लोक के जीवन और उसकी सोच को
विस्तार देते हैं और समय तथा समाज के साथ जोड़ते हुए फ्रांसीसी लेखक मानतेन के
शब्दों में उसकी जिनकी निजी जिंदगी की विशिष्टता को हमारे सामने संपूर्णता में
उपस्थित कर देते हैं। आत्मकथाकार न तो अपने जीवन के दोषों को छुपाता है और न ही
गुणों कों। अपने सरल, सहज और साधारण जीवन स्वरूप को बह
अत्यंत स्वाभ्विक शैली में प्रस्तुत करता है। शायद यही कारण है कि साहित्य की अन्य
विधाओं की तरह इस कृति में कहीं भी उस तरह के उतार-चढ़ाव अथवा क्लाइमैक्स के दर्शन
नहीं होते हैं जेसा कि अन्यत्र होता है। बस है तो सिर्फ लेखक का सच्चा और
संवेदनशील जीवन, जिसमें कुछ सुख है तो बहुत सारे दुःख भी। वह
न तो किसी को त्यागता है और न ही किसी के प्रति अतिशय आग्रह दिखाता है। सब कुछ
समान रूप और आत्मकथा में दर्ज हुआ है। भाषा में वर्णनात्मकता और पात्र तथा परिवेश
के अनुकूल शब्दों का चयन एवं प्रयोग इस कृति को महत्वपूर्ण बनाते हैं।
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