खलजी वास्तुकला के साथ-साथ जैसा कि कुतुब परिसर में अलाई दरवाजा (1305) और निज़ामुद्दीन में जमात खाना मस्जिद (1325) में वास्तुकला शैली में एक विशेष परिवर्तन की झलक दिखाई देती है। हिन्द- इस्लामी वास्तुकला के विकास में इस काल का मुख्य स्थान है क्योंकि इस काल के वास्तुशिल्प पर सेल्जुक वास्तुशिल्प परम्परा का प्रभाव है। (सेल्जुक एक तुर्की जाति है जिसने मध्य एशिया और एशिया माइनर पर 11-13 शताब्दी में शासन किया) साथ ही इसमें संरचना संबंधी कुछ विशेषता भी विकसित हुई जिन्हें बाद में प्रयुक्त शैलियों में ग्रहण किया गया। इस काल की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
ख)
बगली डाट के अंतर्गत आलेदार मेहराबों के साथ वैज्ञानिक तरीके से बनाए गए गुम्बदों
का उदय
ग)
नई भवन निर्माण सामग्री के रूप में लाल पत्थरों और सुसज्जित नक्काशीदार संगमरमर का
प्रयोग
घ)
मेहराब की निचली सतह पर कमल कली की झ्ाालर का प्रयोग--एक सैल्जुक विशेषता |
च)
नए पक्के अग्रभाग का उदय जिसमें संकीर्ण शीर्ष तथा दूसरी ओर विस्तार के लिए बहुत अधिक
जगह थी--पुनः एक सैल्जुक विशेषता। साथ ही सुसज्जा की विशेषता जैसे--सुलेखन कला,
ज्याभिति एवं अरबेस्क आदि का उपयोग अधिक मात्रा में होने लगा।
बुगलक
इस
काल के भवनों में नई वास्तुकला शैली का प्रयोग हुआ। अवशेषों के आधार पर कहा जा
सकता है कि इस वंश के सिर्फ प्रथम तीन शासकों ने ही वास्तुकला में अपनी रुचि
दिखाई। इस काल की वास्तकला को मुख्य दो भागों में बाँट सकते हैं--पहला समूह
गियासुद्दीन और मौहम्मद तुगलक की वास्तुकला से संबंधित है दूसरा फिरोज़ तुगलक से।
वास्तुकला
की तुगलक शैली की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
क)
मुख्य भवन-निर्माण सामग्री खुरदरे पत्थर (कंकड़) थी और अधिकांश दीवारें प्लास्टर
की हुई होती थीं।
ख)
दीवारें एवं बुर्ज अधिकतर अंदर की तरफ झुके हुए होते थे। इसे कोनों पर प्रखर रूप
से देखा जा सकता है |
ग)
चार कोनों वाली नई मेहराब के सीमित और शायद प्रयोगात्मक प्रयोग ने इसके आधार के
लिए धरनी की आवश्यकता को आवश्यक बनाया (देखें चित्र-14) |
इस तरह की मेहराब-धरनी शैली का सम्मिश्रण तुगलक शैली. की मुख्य
विशेषता थी। नुकीली घोड़े की नालनुमा मेहराब की प्रचलित शैली को इसकी संकीर्ण
परिधि तथा अधिक जगह घेरने की अयोग्यता के कारण उपयोग में लाना बंद कर दिया गया।
घ)
प्रचलित दबी हुई गर्दन वाले गुम्बदों की जगढ़ नए स्पष्ट रूप से उभरी हुई गर्दन
वाले नुकीले गुम्बदों का प्रयोग।
च)
भवनों की पट्टिकाओं की सजावट के लिए सफेद टाइल्स का उपयोग।
छ)
इस काल में अष्टभुजीय मकबरों का उदय हुआ जिन्हें सोलह॒वीं तथा सत्रहवीं शताब्दी
में मुगल शासकों ने अपनाया एवं उसे पूर्णता प्रदान की |
इसके साथ ही एक अन्य विशेषता सजावट का कम प्रयोग था। अब यह मेहरावों के नक्काशीदार किनारा और चापस्कंध (1204०) के प्लास्टर अथवा दीवारों पर गोलाकार चित्रों तक सीमित रह गई थी।
फिरोजशाह
तुगलक की मृत्यु (1388) के बाद एक दशक के अंदर ही सल्तनत में राजनीतिक अस्थिरता व्याप्त
हो गई और 1398 में सल्तनत तैमूर द्वारा छिन्न भिन्न कर दी गयी। फिर भी,
सैयूयद एवं लोदी वंशों के समय केन्द्रीय शक्ति के कुछ अवशेष रह गए
थे। यद्यपि उसका आकार काफी सिकुड़ गया था। उन्होंने 1414 और 1526 के बीच, दिल्ली की सल्तनत पर शासन किया। उन्होंने दिल्ली में तथा दिल्ली के आस- पास
इतने मकबरे बनवाए कि दिल्ली कुछ समय के अंदर एक फैले हुए कब्रिस्तान की तरह लगने
लगी। लेकिन वास्तुकला के दृष्टिकोण से इनकी कुछ इमारतें वड़ी ही महत्वपूर्ण हैं और
एक विशेष शैली की शुरुआत मानी जा सकती हैं। इन मकबरों के निर्माण में सवसे अधिक
महत्वपूर्ण बात यह है कि इनके दो अलग रूप हैं। इनकी महत्वपूर्ण विशेषताएं
निम्नलिखित हैं:
क)
मकबरे अष्टभुजीय योजना पर बनाए गए हैं जिसक॑ मुख्य तत्व हैं :
--
मेहराबनुमा बरामदों से घिरा हुआ मुख्य समाधि-कक्ष।
--
एक मंजिला ऊंचाई। '
--
बरामदे के बाहर निकली हुई ओरी (८४४०) जो आल्म्बन के लिए टेक पर टिकी हुई है।
ख)
दूसरे प्रकार की इमारतें वर्गाकार योजना पर आधारित हैं,
इसके मुख्य तत्व हैं:
--
मुख्य समाधि-कक्ष के आसपास बरामदे का न होना।
--
बाहरी भाग कभी-कभी दो या तीन मंजिला ऊंचा।
-- ओरी एवं समर्थन देने वाले टेक का अभाव |
इन
भवनों की सजावट के लिए रंगीन खपौल का मौलिक प्रयोग किया गया। चित्रवल्लरी
(प्ति०र८) पर कहीं-कहीं इनका प्रयोग किया गया है। साथ ही प्लास्टर की सतह पर गहनता
से नकक््काशी की गयी थी।
सन् 1526 में दिल्ली सल्तनत का पतन मुगल
आक्रमणकारी बाबर के हाथों अंतिम लोदी सुल्तान की हार के साथ हुआ। इसके साथ ही
वास्तुकला की सल्तनत शैली का भी अन्न हो गया जो पन्द्रहवीं शताब्दी में ही अपनी
गतिहीनता का संकेत दे चुका था।
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