केवल विधान के लागू किये जाने से ही राज्यों में पंचायती, राज संस्थाएँ प्रभावशील और योग्य नहीं हो जाती हैं| उनका संचालन महत्वपूर्ण हैं। 73वें संशोधन के पारित होने के दो दशक बाद भी यह पाया गया है कि प्रत्येक राज्य में इसका संचालन पृथक ढंग से किया जा रहा है।
पंचायती राज्य व्यवस्था में
अनुसूचित जाति (एस सी), अनुसूचित जनजाति (एस टी) और एक तिहाई
आरक्षण महिलाओं (जिसमे एससी, एसटी की महिलाये शामिल हैं) को
दिया गया है, परन्तु इनके हालात में सुधार नहीं लाया गया है।
अधिकांश राज्यों में लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण के विकास की प्रक्रिया को
अनुसूचित जाति, जनजाति और महिलाओं के लिये समायेशी तो बनाया
है परन्तु उन्हें सशक्त नहीं किया गया|
प्रारंग्म में आरक्षित निर्वाचन
क्षेत्र से उन्ही व्यक्तियों को चुना जाता था जिनके पास समाज के प्रमुख वर्ग का
संरक्षण प्राप्त था तथा जो पंचायतों के औपचारिक सभाओं में इस यर्ग के प्रवक्ता के
रूप में कार्य करते थे। महिला सदस्य अपने परिवार के पुरूषों की ओर से कार्य करती
थीं परन्तु धीरे-धीरे इस परिदृश्य में परिवर्तन आने लगा है और आज स्थिति में सुधार
आया है। महिलाओं के लोकतान्त्रिक आधार में वृद्धि हुई है और 80 प्रतिशत चुनी गयी महिलायें आरक्षित वर्ग से हैं। इसका परिणाम यह है कि आज
कई महिलाएं राजनीति का
हिस्सा बनना चाहती हैं और चुनाव लड़ना चाहती हैं । महिला सदस्यों
ने केरल,
पंबंगाल, कर्नाटका और मध्य प्रदेश में अच्छा
प्रदशन किया है। अपने क्षेत्र के विकास संबंधी कई गंभीर मुद्दे उठाये हैं| कई विपक्ष और विषम परिस्थितियों का सामना करते हुये उन्होनें बच्चो की
शिक्षा, स्वच्छ जल, प्राथमिक स्वास्थ्य
सुविधाएं, महिलाओं का पोषण जैसे मुद्दो को उठाया है|
उदाहरण के लिये हरियाणा के करनाल जिले के चंदसमन्द ग्राम पंचायत की महिला सरपंच ने मनरेगा के अर्न्तगत तीन तालाब प्रणाली विकसित की हैं जिससे अस्वच्छ जल को साफ कर उसे बागवानी, रसोई के लिये बागयानी और सिंचाई के लिये उपयोग में लाया जाता है। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल के नामरवाना ग्राम पंचायत की महिला ग्राम प्रधान ने बच्चों और महिलाओं के लिये कार्यात्मक स्थाई समिति को सुनिश्चित किया है। उन्होने स्व-सहायता समूह, बच्चों के पोषक आहार और आनन्दपूर्ण शिक्षा पर भी जोर दिया है।
पटनायक के अनुसार " भारत में महिलाओं का नेतृत्व पंचायतों को बदल रहा है। यह चुनी हुई महिलायें अपने समुदाय की अन्य महिलाओं के लिये आदर्श बन गयी हैं-विकास के एजेन्डा में ग्रामीण जीवन से जुड़ी अहम बातों को सामने लाई हैं| सेकड़ों कहानियाँ हैं इनके सफलता की | भारत के विभिन्न भागों से-ओड़िसा से असम तक, उत्तर प्रदेश से बिहार तक महिलायें यह सुनिश्चित कर रही है कि सड़कों की मरम्मत हो, बिजली गांव तक पहुँचे, स्कूल बने, स्वास्थ्य सेकार्ये पहुँचे, स्वच्छ जल मिल सके, क्षेत्रीय बचत समूह बने आदि।”
पंचायतों के कार्य करने में
वित्त भी अति महत्वपूर्ण हैं। अधिनियम में पंचायतों के वित्त की स्थिति को सुधारने
हेतु कई प्रावधान किये गये हैं, परन्तु आज भी पंचायतों की
वित्त स्वयत्तता सीमित हैं। केरल ही एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां
पर 40 प्रतिशत वित्त सामान्य क्षेत्र में किसी मद में खुला
हुआ है। गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश
और महाराष्ट्र में जिला परिषद को पर्याप्त राशि दी जाती है परन्तु स्वयत्तता नहीं
दी गयी हैं क्योंकि राशि किसी न किसी कार्यक्रम अथवा योजना से बंधी हुई है|
पंचायती राज संस्थओं को राजस्व
जुटाने हेतु कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है। अधिकांश हस्तांतरित राशि योजना
बद्ध होती है। उन्हें राज्य सरकार से मिलने वाली राशि पर निर्मर रहना होता हैं।
साथ ही अधिकाशं राज्यों में उन मदों में राशि नही होती जिन कार्यो को पंचायतो में
स्थनान्तरित किया गया है। यदि पर्याप्त वित्तीय सहायता और संक्षमता पंचायतों को
नही दी जाती है तो विकेन्द्रीकरण के पथ पर कई रूकावटे हैं। वित्तीय आयोग के गठन से
पंचायत और नगर पालिका के वित्तीय स्वास्थ्य में सुधार आया हैं, परन्तु यह आवश्यक है कि स्त्रोत आन्तरिक हैं पंचायत और जिला परिषद उनका
पूर्ण रूप से सुधार करें। सतथ ही यदि करारोपण के अधिकार प्रदान किये जाये और ग्राम
पंचायत के वित्तीय लाभप्रद संपत्ति तालाब, चरागाह आदि के
नीलामी के अधिकार दिये जायें तो पंचायतों की वित्तीय स्थिति में सुधार आयेगा |
चौदहर्वी वित्तीय आयोग ने ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकाय के लिये अधिक धनराशि उपलब्ध कराने की अनुशंसा की है। यह तेरहवी वित्तीय आयोग के प्रावधान से कई गुना अधिक है| पंचायती राज संस्थानों और नगरीय निकायों को राजस्व आय आर्जित करने के नये रास्ते खोजने के लिये प्रेरित किया जाना चाहिये। उद्योगों से. उद्यमिता गतिविधियों से, उत्पादक कार्यों हेतु ऋण से, कर साझा करने से, अनुकूल अनुदान के प्रोत्साहन देकर, यह संस्थायें अपनी आय में वृद्धि कर सकती हैं | साथ ही पंचायत और नगरी निकाय के स्तर पर कर संग्रह करने हेतु सही उपाय भी होने चाहिये। शहरी निकाय को लोचदार और उत्पादक कर जैसे बिक्री कर का हिस्सा मिलना चाहिये। अपने क्षेत्र के बिक्री कर का पूरा अथवा आंशिक भाग इन्हें दिया जाना चाहिये। पंचायतों के कार्य करते समय एक और बात जो सामने आयी है वह है कि पंचायत के तीनों स्तरों के बीच और नौकरशाही और गैर सरकारी संगठनों के बीच तालमेल की कमी होती है। इस कारण से:
- · ग्यारहवी सूची में पंचायत के तीनों स्तरों के अधिकार और कार्य आवंटन में अस्पष्टता।
- · पंचायती राज संस्थाओं के योजना और उसके क्रियान्वयन की एजेन्सी के रूप में कार्य स्पष्ट नहीं है।
- · पंचायत्त और क्षेत्रीय नौकरशाही के बीच संबंध साफ नही हैं।
- ·
पंचायत और गैर सरकारी संस्थाओं के
बीच प्रतिस्पर्धा खुली नहीं है अतः यह इन दोनो के बीच तालमेल को जटिल कर देते हैं
तथा पंचायतों की उपयोगिता पर सवाल खडे करते हैं |
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