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तुर्क मंगोल राजत्व सिद्धान्त की चर्चा कीजिए|

हालांकि यह कहा जाता है कि चंगेज ने अपनी संप्रभुता का दैवीय सिद्धांत उद्घलूरों से प्राप्त किया था, मंगोल स्वयं खान की असीम सत्ता में विश्वास रखते थे। एक मंगोल खान के कथन से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है। वह कहता है: "आकाश में केवल एक सर्य या एक चांद रह सकते हैं, फिर पृथ्वी पर दो स्वामी कैसे हो सकते हैं।'” फिर भी संप्रभुता संबंधी मंगोल अवधारणा के प्रधान सिद्धांत के अनुसार साम्राज्य का विभाजन राजा के लड़कों के बीच होता था। प्रशासन को प्री कडाई से चलाने और राजकमारों की शासन चलाने की इच्छा को संतृष्ट करने के लिए ऐश किया जाता था। परस्तु तैम्र ने असीम संप्रभता की अवधारणा का अनुसरण किया। उसके अनुसार 'विश्व के इन विस्तृत भभागों पर दो राजाओं के लिए जगह नहीं हैं, ईश्वर एक है, अतः पृथ्वी पर ईश्वर का उपशासक भी एक ही होना चाहिए '। बाबर भी इसकी पृष्टि करता है: ''शासन में साझेदारी जैसी बात कभी सनी नहीं गयी ।

इन दावों के बावजूद तैम्र के असीम राजतंत्र की परंपरा को लेकर इतिहासकारों के बीच एक विवाद पैदा हो गया। तैम्र ने चंगेज खां के एक पूर्वज की नाममात्र की सत्ता स्वीकार कर रखी था। तैमूर ने अपने लिए कभी भी अमीर से बड़ी पदवी का उपयोग नहीं किया।

हालांकि तैमूर के उत्तराधिकारी शाहरूख ने पादशाह और सुल्तान-उल आजम की पदवी ग्रहण की परन्त्‌ खान की नाममात्र की प्रभुसत्ता अबु सईद मिर्जा के काल तक स्वीकार की जाती रही। वस्तुत: कठपुतली या नाममात्र के खानों के अस्तित्व का बने रहना तैमूर की राजनैतिक आवश्यकता थी। तैमूर चंगेज खां के राजकीय परिवार से संबद्ध नहीं था और ऐसी स्थिति में चंगेज के कबीले का ही कोई व्यक्ति खान की पदवी प्राप्त कर सकता था। अगर तैमूर ऐसा करता तो उसे मंगोलों की चुनौती का सामना करना पड़ता।

इन खानों को किसी एक खास जगह तक-सीमित रखा जाता था और उन्हें केवल मंशूर (आदेश) जारी करने का एकमात्र राजकीय विशेषाधिकार प्राप्त था। तैमूर के कछ सिक्कों पर भी इन ''बंदियों' का नाम अंकित है। इसके बावजूद तैमूर ने खान पर अपनी सर्वोच्चता बनाये रखी। आवश्यक शक्ति और चंगताई सरदारों का सहयोग प्राप्त होते ही उसने 1370 ई. में साहिब-ए किरान (ऐसा शासक जिसने 40 साल तक राज्य किया हो) की पदवी ग्रहण कर ली। राज्यारोहण समारोह शाही शान-शौकत के साथ केवल तैमूर के लिए किया जाता था। औपचारिक सभाओं और सेना की उपस्थिति में तैम्र कभी भी खान को सम्मान नहीं दिया करता था। राजा को दिया जाने वाला सम्मान तैमूर हमेशा स्वयं ग्रहण करता था। वह असीम सत्ता में दृढ़ता से विश्वास रखता था, अतः उसने कभी भी सलाहकार परिषद्‌ (करूलताई) को हद से ज्यादा महत्व नहीं दिया। इसके अलावा वह अपने को सांसारिक के साथ-साथ आध्यात्मिक प्रमुख मानता था। , उसने संप्रभुता के सिद्धांत को एक तार्किक परिणति प्रदान की। उसने घोषणा की कि “ उसे सर्वशक्तिमान ईश्वर से सीधा संदेश प्राप्त हुआ है” अतः उसके कार्यों को दैवीय अनुमति प्राप्त है। अतः: खान को कठपुतली शासक के रूप में गददी पर बैठना तैम्र और उसके उत्तराधिकारियों द्वारा खेला गया राजनैतिक खेल था। इसके द्वारा उन्होंने मंगोल सेनाओं का समर्थन पाप्त क्रिया। साथ ही मंगोलों से छीने गए क्षेत्र और उनकी राज-शक्ति पर अपनी सत्ता की वैधता स्थापित करने के लिए भी इस नीति का उपयोग किया गया। 1402 ई. में महमूद की मृत्यु के बाद तैमूर ने किसी अन्य खान को नियुक्त नहीं किया।

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