धेर नगरी भारतेंदु का नाटक है। इस नाटक में व्यक्त सामाजिक यथार्थ का संबंध स्वयं भारतेंदु से है। इस नाटक का अर्थ न तो एक देश और न एक काल तक सीमित है। इस नाटक में निहित राजनीतिक व्यंग्य जितना अंग्रेजों के शासनाधीन भारत के लिए सच था, उतना ही आज के स्वतंत्र भारत के लिए। भारतेंदु ने एक ऐसे राजा की कहानी कही है, जिसके राज्य में प्रत्येक वस्तु का मूल्य सामान था। जहाँ सोना और मिट्टी की कीमत एक थी। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि जहाँ सोना मिट्टी के भाव बिकता हो, वहाँ के लोगों को दरिद्रता और भुखमरी का सामना नहीं करना पड़ता होगा। लेकिन 'टके सेर भाजी टके सेर खाजा' जनता के हित का सूचक नहीं था, बल्कि राज्य कौ अविवेकपूर्ण कुव्यवस्था का सूचक था। अंधेर नगरी का चौपट राजा अविवेकपूर्ण राजासत्ता का प्रतीक है जिसे नौकरशाही मनमाने ढंग से चालती है। भीतर स्वाहा बाहर सादे राज करहिं अमले अरू प्यादे
अंधेर नगरी की राजसत्ता क्या
काल्पनिक है या भारतेंदु के समय के भारत का यथार्थ है? अंधेर
नगरी की कथा सामंतशाही राज्य व्यवस्था के साथ संबद्ध है। लेकिन नाटक की प्रस्तुति
लोकनाट्य शैली में है। अंग्रेजों का राज सामंतशाही राज्य व्यवस्था से कुछ हद तक
भिन्न था। यद्यपि अब भी जनता अधिकार विहीन थी, लेकिन राज्य
व्यवस्था का संचालन करने वाली व्यापक नौकरशाही एक नयी बात थी। इसके उत्पीड़न की
कहीं सुनवाई नहीं थी। वे क्षेत्र जो सीधे अंग्रेजी शासन के अधीन नहीं थे, उन पर शासन करने वालेदेशी शासक भी वैसी ही उत्पीड़क और अन्यायकारी थे।
भारतेंदु ने अंधेर नगरी में अपने दौर के इस यथार्थ को ही प्रतीकात्मक रूप में
प्रस्तुत किया है। भारतेंदु के लिए यह आसान नहीं था कि वे अंग्रेजी राज्य व्यवस्था
की खुलकर आलोचना करते हैं। लेकिन अंधेर नगरी में उन्होंने विभिन्न अवसरों पर कभी
स्पष्ट रूप से और कभी सांकेतिक रूप में अपनी बात कही है। नाटक के दूसरे दृश्य जहाँ
बाजार का दृश्य प्रस्तुत किया गया है, वहाँ विभिन्न सामग्री
बेचने वाले ग्राहकों को आकृष्ट करने के लिए जो बात कहते हैं। उनमें उन्होंने अपने
समय का खाका भी प्रस्तुत किया है और उसकी आलोचना भो। इस आलोचना की दो विशेषताएँ है-एक
तो, तत्कलीन नौकरशाही की तीखी आलोचना और दूसरी, भारतवासियों को अपनी कमजोरियों के प्रति आगाह करना |
नौकरशाही की तीखी आलोचना-नौकरशाही
की आलोचना करते हुए भारतेंदु ने उनकी रिश्वतखोरी, जनता के
प्रति विद्वेष और उत्पीड़न की नीति, टैक्स लगाकर उनके जीवन
को मुश्किल बनाना आदि को खासतौर पर रेखांकित किया है। 'चना
जोर गरम' बेचने वाला “घासी राम” कहता है-
चना हाकिम सब जो खाते
सब पर दूना टिकस लगाते
चूरन बेचने वाला 'पाचक वाला' कहता है-
चूरन साहब लोग जो खाता
सारा हिंद हजम कर जाते
चूरन पुलिस वाले खाते
सारा कानून हजम कर जाते
अंग्रेजों का राज्य
1857 के ब्रिटेन की महारानी चिक्टोरिया के हाथ में आ गया था। लेकिन विक्टोरिया के नाम
पर राज्यसत्ता पर वास्तविक अधिकार अंग्रेज नौकरशाही के पास था। विक्टोरिया तो लंदन
में ही वास करती थी। भारतेंदु युग के दौर में भारतीय मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का
यह विश्वास था कि महारानी विक्टोरिया का भारत की शासक होना ईश्वरीय वरदान है, लेकिन भारतवासियों पर जो भी उत्पीड़न और अत्याचार हो रहा है, उसके लिए नौकरशाही ही जिम्मेदारी हैं। यही कारण है कि भारतेंदु महारानी या
उनके शाही परिवार की प्रशंसा का कोई भी अवसर नहीं चूकते। लेकिन साथ ही बे अंग्रेज
राज की नौकरशाही की आलोचना भी करते हैं। यह अंतह्ठंद्र अकेले भारतेंदु में ही नहीं
था बल्कि उस दौर के प्राय: सभी देशभक्त बुद्धिजीवियों और लेखकों में विद्यमान था।
अंधेर नगरी में भारतेंदु ने इसी नौकरशाही की व्यवस्था का चित्र प्रस्तुत किया है। कुछ तो सीधे-सीधे संवादों के माध्यम से और कुछ कथा की अंतर्वस्तु में सांकेतिक अभिव्यक्ति के माध्यम से। अंधेर नगरी में राज्यव्यवस्था के चित्रण में एक तरह की व्यंग्यात्मकता निहित है। गोवर्धनदास को पहली नजर में राज्य अत्यंत सुखकर लगता है क्योंकि वहां हर चीज एक ही दाम पर बिकती है। लेकिन जब वह निरफप्राध पकड़ा जाता है और फांसी का हुक्म हो जाता है, तो राज्यसत्ता का वास्तविक चरित्र उसके सामने आता है। राज्यसत्ता का बाहरी चरित्र कुछ और है तथा आंतरिक चरित्र कुछ और। यह ह्ैैत ही अंधेर नगरी को भारतेंदु युग के राजनीतिक यथार्थ से जोड़ता है।
नौकरशाही के चरित्र को
भारतेंदु ने मुकदमे वाले प्रसंग द्वारा भी व्यक्त किया है। वस्तुतः न्याय की
प्रक्रिया का यह चित्र अयथार्थ प्रतीत होता हुआ भी अपने अर्थ में यथार्थ में निहित
विडंबना को प्रभावशाली रूप में व्यक्त करता है। नाटक के चौथे दृश्य का आरम्भ
राज्यसभा से होता है। सेवक राजा से चिलाकर कहता है कि “पान खाइए, महाराज” तो राजा उसके चिल्लाने से डर जाता है और मंत्री को आदेश देता है
कि वह सेवक को सौ कोड़े लगाए। इस पर मंत्री सेवक का बचाव करते हुए दोष तमोली पर
थोपता है-'न तमोली पान लगाकर देता, न
यह पुकारता।' इस पर राजा तमोली को दो सौ कोड़े लगाने का आदेश
देता है। मंत्री फिर बात बदलता है और राजा की सुपनखा को सजा देने का परामर्श देता
है। राजा और मंत्री के बीच की यह बातचीत राजा की मूखता और मंत्री की चतुराई का
उदाहरण है। राजा के पास शक्ति है, लेकिन बुद्धि और विवेक का
अभाव है। निर्णय लेने और आदेश देने का अधिकार उसी क्के पास होना चाहिए, पर ऐसा नही है। निर्णय लेने और आदेश देने का अधिकार मंत्री को है क्योंकि
राजा उसी के अनुसार ही निर्णय लेता है। इस प्रकार मंत्री राजा से अधिक ताकतवर
दिखाई देता है। वास्तविक सत्ता उसी के हाथ में है। बकरी के मरने का मुकदमा इसी
सच्चाई को व्यंग्यात्मक रूप में प्रकट करता है। यहाँ मंत्री तब तक राजा की
मूर्खताओं को ढील देता रहता है, जब तक कि मामला उसके हाथ से
नहीं निकलता। जब राजा कोतवाल से जवाबतलब करता है और मंत्री को यह आशंका होती है कि
ऐसा न हो कि बेवकूफ इस बात पर सारे नगर को फूंक दे या फिर फौसी दे तो वह अपने
हस्तक्षेप द्वार मामले को कोतवाल की सजा पर ही खत्म करवा देता है। इस प्रकार राजा
का कथित न्याय नौकरशाही के हथकंडों से तय होता है। राजा के इस फैसले के क्रियान्वयन
का भार भी नौकरशाहीं पर है। कोतवाल को फाँसी देने का काम नौकरशाही को करना है।
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