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समष्टि मे ही व्यष्टि रहती है।व्यक्तियों से ही जाति बनती है।

प्रस्तुत अंश 'जयशंकर प्रसाद' के ऐत्तिहासिक नाटक '“स्कंदगुप्त' से लिया गया है। इस अंश में बंधुवर्मा मालब का राज्य स्कंदगुप्त को सौपना चाहता है, ताकि उसकी शक्ति बढ़े और विदेशी आक्रमणों सेसुरक्षित रखा जा सके।

व्याख्या- जयमाला वंधुवर्मा के इस प्रस्ताव का घोर विरोध करती है। उसे चिंता होती है कि ऐसा करने से वे स्वतंत्रहीन हो जाएगा। साथ ही उन्हें दूसरे पर आश्रित रहना पड़ेगा। जयमाला देवसेना को अपना तर्क देती है कि समष्टि से ही व्यष्टि का विकास होता है। अर्थात समाज का निर्माण व्यक्ति से होता है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना महत्व और अस्तित्व है। व्यक्ति का विश्व प्रेम, समाज प्रेम और जाति प्रेम व्यक्ति का परम धर्म  हैं सागर के निर्माण में एक-एक बुँद का महत्व देता है, उसी प्रकार समाज के निर्माण में व्यक्ति का अपना महत्व है। अगर अन्याय होता है तो मिश्चित तौर पर इसका बहिष्कार होना चाहिए।

विशेष- (|) सारगर्मित सूक्ति का प्रयोग।

      (2) भाषा में एक विरोधाभास।

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