आज के संदर्भ में कृषि आधारित उद्योगों का इस्तेमाल कुछ विशिष्ट प्रकार के उद्योगों के लिए होता है। यहां हम इसका प्रयोग उन उद्योगों के लिए कर रहे हैं जिनमें कच्चा माल कृषि उत्पादों से आता था।
- 1) वस्त्र उच्चोग
बस्त्र
उद्योग के अन्तर्गत हम मुख्य रूप से सृती, रेशमी
और ऊनी बस्त्रों के उत्पादन का अध्ययन करेंगे।
सूती
कपड़ा -
उप
हिमालय क्षेत्र को छोड़कर लगभग पूरे भारत में सूती कपड़ा बनाया जाता था क्योंकि कपास
की पैदावार लगभग हर जगह होती थी। अबल फजल ने सूती कपड़े के उत्पादन के विभिन्न
केन्द्रों का नामोल्लेख किया है।
गुजरात
वस्त्र उत्पादन के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक था। यहां अहमदाबाद,
भड़ौंच, बड़ौदा, कैम्बे,
सूरत आदि जैसे प्रमुख उत्पादन केन्द्र थे। राजस्थान में अजमेर,
सिरोंज और कई छोटे शहरों में कपड़ा बताया जाता था। उत्तरप्रदेश में
लखनऊ और इसके आसपास के कई शहरों जैसे बनारस, आगरा, इलाहाबाद आदि में कपड़े का उत्पादन होता था। उत्तर में दिल्ली, सिरहिंद, समाना, लाहौर,
सिआलकोट, मुलतान और थट्टा जैसे क्षेत्रों में
उत्तम कोटी का कपड़े बनाया जाता था। बंगाल, बिहार और उड़ीसा
में सोनारगांव, ढाका, राजमहल, कासिम बाजार, बालासोर, पटना और
कई छोटे-छोटे शहरों में कपड़ा बनाया जाता था।
रेशम
(सिल्क)
रेशम से भी कपड़ा बनाया जाता था। अबुल फजल
बताता है कि कश्मीर में बड़ी मात्रा में रेशम के कपड़े बनाए जाते थे। पटना और
अहमदाबाद भी रेशम वस्त्र के लिए जाने जाते थे। बनारस का भी इस क्षेत्र में नाम था।
सत्रहवीं शताब्दी में बंगाल में रेशम का सबसे
ज्यादा उत्पादन हुआ जिसे विदेश और भारत के अन्य हिस्सों में निर्यातित किया गया बंगाल में कासिम बाजार और मुर्शिदाबाद में रेशम के वस्त्र बनाए जाते थे। 17वीं शताब्दी के मध्य के आसपास 25 लाख पाउंड के करीब प्रति वर्ष उत्पादन होने का अनुमान लगाया गया था। लगभग साढ़े सात लाख पाउंड केवल डच व्यापारी ही अपरिष्कृत रूप में ले जाते थे। 168। ई. में लंदन के रेशम बुनकरों ने इंग्लिश ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा इसके आयात पर प्रतिबंध लगाने के लिये ब्रिटिश संसद को एक प्रतिवेदन दिया। 1701 ई. में बंगाल के रेशम बस्त्रों का आयात रोक दिया गया। इसके बावजूद बंगाल रेशम और रेशम बस्त्र उत्पादन का महत्वपूर्ण केन्द्र बना रहा।
ऊन
कपड़ा
बनाने के लिए ऊन का भी उपयोग किया जाता था। इसमें कश्मीर की शॉल सबसे प्रसिद्ध थी
जिसे पूरी दुनियां में नियातित किया जाता था। इन शॉलों में उपयोग में लाया जाने
वाला उत्कृष्ट ऊन तिब्बंत से आयातित किया जाता था उत्कृष्ट कोटि के ऊनी ब्तत्रों का
आयात यूरोपीय व्यापारी आमतौर पर उच्च वर्ग के लिए किया करते थे। लगभग पूरे उत्तर
भारत में ऊन से कम्बल बनाए जाते थे।
- 2) नील
पूरे
देश में और विदेश में भी इसकी मांग काफी अधिक थी। जैसा कि हमने पढ़ा है कि नील की
खेती बड़े पैमाने पर की जाती थी।
केवल
पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर पूरे देश में नील की लेती की जाती थी इसकी उत्कृष्ट कोटि
आगरा के निकट बयाना में पाई जाती थी। इसके बाद अहमदाबाद के निकट सरखेज का स्थान
आता है यह नीले रंग का होता था और रंगाई के काम आता था,
इसलिए पूरे देश में और विदेश में भी इसकी मांग थी।
गुजरात
में जम्बुसार, भड़ौच, बड़ौदा आदि में भी नील से रंगाई होती थी। उत्तर भारत में आगरा और लाहौर
में बड़ी मात्रा में नील की खरीद बिक्री होती थी। कोरोमंडल तट पर मसूलीपट्टम भी
नील का प्रमुख बाजार था।
इसमें
से रंग निकालना काफी आसान था। पौधों को पानी में रख दिया जाता था। जब नील पानी में
घुल जाता था तोउसे दूसरे हौज में डाल दिया जाता था। जहां नील तल में बैठ जाता था।
इसे छान कर ठिक््की के रूप में सुखा लिया जाता था। अधिकांशत: किसान ही नील
निकालने का काम किया करते थे।
- 3) चीनी,
तेल आदि
पूरे देश में गन्ना उपजाया जाता था और बड़े
पैमाने पर इससे चीनी निकाली जाती थी। आमतौर पर गन्ने से तीन प्रकार के उत्पाद
निकाले जाते थे: गुड़, चीनी और मिसरी। सभी गन्ना
उत्पादक क्षेत्रों में गुड़ बनाया जाता था और स्थानीय तौर पर इसका उपभोग किया
जाता था। अन्य दो प्रकार मुख्य रूप से बंगाल, उड़ीसा, अहमदाबाद, लाहौर, मुत्तान और उत्तरी भारत के हिस्सों में बनाए जाते थे।. 17वीं शताब्दी के दक््खन के बारे में लिखते हुए थिविनो बताता है कि गन्ना उपजाने वाले सभी किसानों के पास अपनी भट्टी होती थी। अबुल फ़जल के अनुसार एक मन चीनी का मूल्य लगभग 128 छाम था जबकि मिसरी का मुल्य प्रति मन 220 सम था।
गन्ने को कोल्हू में दबाकर उससे रस निकाला जाता था, यह कोल्हू या तो हाथों से चलाया जाता था या फिर पशुओं की सहायता ली जाती थी। गुड़ या चीनी बनाने के लिए गन्ने के रस को चौड़े बर्तनों में भट्टी पर चढ़ा दिया जाता था। रस को उबालने के दौरान ही विभिन्न प्रकार के गुड़ या चीनी बनाई जाती थी। बंगाल की चीनी उत्तम कोटि की मानी जाती थी और यूरोप तथा ईरान मे इसकी व्यापक मांग थी।
तेल भी अधिकांशत: ग्रामीण आधारित उद्योग में
ही आता था। तेल के बीज को कोल्हू में डाल दिया जाता था और बीज से तेल निकल आता था।
कोल्हू हाथों से भी चलाया जाता था और इसे चलाने में पशुओं की भी सहायता ली जाती
थी। तेल निकालने वाली जाति को तेली कहते थे। बचा हुआ उत्पाद (ख़ल्ली) जानवरों को
खिलाया जाता था।
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