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भाषा शैली की दृष्टि से धोखा का सोदाहरण विवेचन कीजिए।

प्रतापनारायण मिश्र ने 'धोखा' निबंध में भाषा का काफी अच्छा प्रयोग किया है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता है, उसकी जीवंतता। अपनी बात कहने के लिए उनको कभी शब्दों का अभाव नहीं खटकता। बात के अनुसार उनके वाक्य निर्मित होते जाते है। मसलन गूढ़ दार्शनिक वाक्य देखिए। “जिनके विषय में कोई निश्चयपूर्वक 'इृदमित्थ' कही नहीं सकता, जिसका सारा भेद सरुपष्ट रूप से कोई जान ही नहीं सकता वह निर्भ्रम या भ्रमरहित क्‍यों कहा जा सकता है। शुद्ध निर्भ्रम वह कहलाता है जिसके विषय में भ्रम का आरोप भी न हो सकें पर उसके अस्तित्व तक में नास्तिकों को संदेह और आस्तिकों को निश्चित ज्ञान का अभास रहता है, फिर वह निर्भ्रम कैसा? लेकिन ऐसी विचार प्रधान बात को वे अनुप्रास ओर रूपकों का प्रयोग करके काव्यमय भी बना देते है।

   मिश्रजी ने अपने निबंध में कहावतों और मुहावारों का भी अत्यंत सुंदर प्रयोग किया है। मसलन इस वाक्य में धोखा से जुड़े मुहावरों का प्रयोग देखा जा सकता है-' क्योंकि ऐसी दशा में यादि वह धोखा खाता नहीं तो धोखे से काम अवश्य लेता है, जिसे दूसरे शब्दों में कह सकते है कि माया का प्रपंच का फंलाता है वा धोखे की टटूटी खड़ा करता है।' मुहावरों के प्रयोग पूरे निबंध में हर कहीं देखे जा सकते हैं। कलई खुलना, प्रपंच रचना, नाक भौंह सिकोडना आदि मुहावरों के प्रयोग से भाषा अत्यंत जीवंत हो गई है। इस प्रकार लोकोक्तियों का प्रयोग भी लेखक ने इतनी कुशलता से किया है कि इसका प्रभाव देखते ही बनता है। मसलन इस लंबे वाक्य में प्रयुक्त कहावतों को देखा जा सकता है-'दो एक बार धोखा खाकर धोखेबाजों की हिकमतें सीख लो, और कुछ अपनी ओर से झनकी फुंदनी जोड़कर 'उसी की जुती उसी के सिर' कर दिखाओं तो बड़े भारी अनुभवशाली बरंच 'गुरु गुड ही रहा चेला शक्कर हो गया” का जीवित उदाहरण है। शब्दों के चयन में भी मिश्रजी की प्रतिभा के दर्शन होते है। तत्सम और तद्भव शब्दों के साथ-साथ उन्होंने बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले आरबी-फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया है। अगर तत्सम शब्दावली के ऐसे वाक्य है “जो सर्वथा निराकार होने पर भी मत्स्य, कच्छपादि रूपों में प्रकट होता है, और शुद्ध निर्विकार कहलाने पर नाना प्रकार को लीला किया करता है वह धोखे का पुतला नही तो क्या है? तो बोलचाल की उर्दू वाले ऐसे वाक्य. भी है-“धोखा खाए बिना अक्किल नहीं आती, और बेईमानी तथा नीतिकुशलता में इतना ही भेद है कि जाहिर हो जाए तो बेईमानी कहलाती है और छिपी रहे तो बुद्धिमानी है।! इसी प्रकार उन्होंने देशज शब्दों का भी प्रयोग किया है। मसलन, पिन्न-पिनन, ढिच्चर-ढिच्चर, फुंदनी शब्दों का प्रयोग किया है। उनकी भाषा भारतेंदु युग की भाषा है। इस निबंध में “तो” के स्थान पर तो, स्वर्ण की जगह ' सुवर्ण', सिर की जगह 'शिर' का प्रयोग तो मिलता है।

  मिश्र के निबंध में वाक्य विन्यास सभी तरह के है-लंबे भी और छोटे भी। आमतौर पर लंबे वाक्य है, लेकिन उन्हें समझने में कठिनाई नहीं होती है।

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