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मुगल-मराठा संबंधों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।

मुगल-मराठा संबंधों को चार चरणों में विभक्‍त किया जा सकता है :

  • i)      1615-1664 ई.,...
  • ii)     1664-1667 ई.,..
  • iii)   1667-1680 ई., और
  • iv)   1680-1707 ई. |

प्रथम चरण : 1615-1664 ई.

जहांगीर के समय से ही मुगलों ने दक्खन की राजनीति में मराठा सरदारों के महत्व को समझ लिया था। 1615 ई. में जहांगीर कुछ मग़ठा सरदारों को अपनी ओर मिलाने में सफल रहा था । इसके परिणामस्वरूप मुगल संयुक्त दक्खनी सेना को हरा सके (1616 ई.) | शाहजहा ने भी 1629 ६. में ही मराठा सरदारों को अपनी ओर पिलाने को कोशिश कौ थी। शिवाजी के पिता श्परहओ इस समय घुगरों से मिल गये परेतु काद में उससे अलग हो गये। उन्होंने मुरारी पंडित और बीजापुर दरबार के मुगल-विरोधी पक्ष के साथ मिलकर मुगरों के खिलाफ बह॒वंत्र रचा । मखठों की ओर से आने काली गंभीर चुनौती को देखते हुए शाहजहां ने मराों के खिलाफ मुगल-बीआपुर संचि का विकल्प चुना | उसने वीआपुर के शासक को शाहओ की सेवा लेने से मना कहीं किया, परतु उसे कर्मरक में मुगल क्षेत्र से टूर रखने क्ये मांग को (1636 ई. की संधि) । यहां तक कि औरंगजेब ने थी यही नीति अन्पनाई । उत्ततचिकार के बुद्ध के सपथ उत्तर की ओर कूच करने से पहले उसने अपने निशहन में आदिल शाह को ऐसा हो करने की सलाह दी । लेकिन शिवाजी के खिल्कफ जीजापुर-मुगल संधि औरंगजेब के लिए एक दुखद स्क्‍प्न साकित हुआ | जब 1636 ई. में शाहअहां ने ऐसी संचि की थी तो उसके पास बदले में उसे देने के लिए दो-तिहाई हिस्सा निडम शाही क्षेत्र क, परंतु औरंगमेज के फारा देने के लिए कुछ भी नहीं था। सतीश क्र के अनुसार 1667 ई. में ऑरंगजेथ द्वारा बीजापुर हारिस्तत करने के पूर्व तक असतर्थिरोध की यही स्थिति बनी रही।

1657 ई. में औरंगजेब ने शिकाजे के साथ संधि करने की कोशिश; की, परंतु उसे सकता फहीं मिलो क्योकि बटले में शिवाजी दाभघोल और आदिल श्तहीं कॉंकन चाहता था, जो एक उपयाऊ और समर क्र होने के साथ-साथ विदेशी व्यापार की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था। जल्द ही शिकजओ बीजापुर के पक्ष में चले गये और मुगज दवखन ( अहमदकार और जुन्तार सब डिवीजन) पर भाया कोल टिया । उत्तराधिकर के युद्ध और औरंगजेब के टक्खन से खले जाने के कहरण शिवाजी को रोकने काला कोई नहों था। जल्द हो उसने कल्याण और भियण्डो (अबतूथर 1657 ६.) और माहूली (जनवरी 1658 ई.) पर कब्जा जमा लिया। इस भरकर शिवाजं ने करेल्कना जिले के समस्त पूर्थों भाग पर आधिपत्य स्थापित कर लिया जो जंजोरा के हण्लियों (सिद्टियों) के अधीन था।

औरंगजेब के उत्तर भारत की तरफ कृथ कर जाने के बाद बीआपुर ने मराठों की ओर प्यान दिया। आआदिल शाही शासक ने अब्दुल्ला भटारी अफजल खां को इसका भार सोंड परंतु शिवाजी के सामने अफयल खां को सेन टिक न सकी। इस स्थिति में कूटजीति और समझ-बूझ का हो सहारा लिया जा सकख था। समझोरे के लिए टोने के बीच मेल-पिलाप का आयोजन किया गय परंतु शिवाजी ने उसकी हत्या कर टी (10 नवंबर, 1659 ६.) । अफब्ल खां की हत्या के बाद मशठों के लिए बीआपुर को सेजा को हराने में जत भी समय नहीं लगा | जल्‍द ही पनाहालला और दक्षिण कोण पर मराठों का आधिप्त्य हो गया। फरेतु मराठा पनहाला पर ज्यादा समय तक आधिफत्य कहीं रख सके और यह पुत्ः बीजापुर के अधिकार में चला गया (2 मार्ज, 1660 ६.) ।

इस स्थिति में औरंगजेब ने युवराज मुअज्थम के स्थान पर शाइसता कह को दकखन का दायसराय नियुक्त किया ( जुलाई, 1659 ई.) । शाइस्ता ख॑ ने चाकन (15 अगस्त, 1660 ई.) और उत्तरी कॉकण (1661 ई.) पर अधिकार कर लिया । 1662-63 ई. तक उसने मराठों पर काफी दबाव डाला परंतु उससे टक्षिण कॉकण ( रत्पणिरि) झसिल करने में असकल रहा। 5 अपैल, 1663 ई. को पूछ में आधी रात को मुगल खेमे पर शिवाजी ने अचानक हमला कोल दिया और मुनल वायसएथ को बुरी तरह घावल कर दिया । इससे मुगल प्रतिष्ठा को महरा आयात पहुंचा । इसके बाद मरां ने सूरत पर आक्रमण किया और उसे खूब लूटा (सूरत की प्रथम लूट 6-10 जनवरी, 1664 ई.) ।

द्वितीय चरण : 1664-1667 ई.

शिवाजी की बढ़ती शवित, अफजल खां की हत्या, पनहाला और कोंकण पर शिवाजी का कब्जा, शिवाजी को संभालने में बीजापुर की सेना की असमर्थता और अंततः शाइस्ता खां की असफलता (1600-1664 ई.) ने मुगलों को स्थिति पर पुनः विचार करने के लिए मजबूर किया | इसके बाद औरंगजेब ने मिर्जा राजा जय सिंह को दक्खन का नया वायसराय नियुक्त किया | सावधानी से आगे बढ़ने की मुगल नीति से अलग हटकर जय सिंह ने दवखन पर पूरा नियंत्रण स्थापित करने की बृहद्‌ योजना बनाई । इस बृहद्‌ योजना के तहत सबसे पहले शिवाजी को कुछ रियायतें देकर ओर उसके साथ संधि करके बीजापुर को धमकाया जाना था और शिवाजी को जागीर को मुंगल दक्खन से दूर अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण इलाके में स्थानांतरित करना था। जय सिंह का विचार था कि एक बार बीजापुर के पतन के बाद शिवाजी को दबाना बहुत मुश्किल कार्य नहीं होगा।

दकक्‍खन में मुगल वायसराय का पदभार संभालने के साथ हो उसने शिवाजी पर लगातार दबाव डालना शुरू किया । उसने पुरनदर (1665 ई.) में शिवाजी को पराजित कर दिया। इसके बाद जय सिंह ने मुगल-मराठा संधि की बात चलाई। पुर्दर की संधि (1665 ई.) के तहत शिवाजी ने 35 में से 23 किले समर्पित कर दिए । ये किले निजाम शाही राज्य्षेत्र में पड़ते थे और इनकी वार्षिक आमदनी 4 लाख हून थी। इसके अतिरिक्त उसे 1 लाख हु प्रति वर्ष आमदनी वाले रायगढ़ सहित 12 अन्य किले भी समर्पित करने पड़े । इस घाटे की भरपाई बीजापुरी तालकोंकण और बालाघाट से की जानी थी । इसके अतिरिक्त शिवाजी के पुत्र को मुगल सेना में 5000 ज़ात का ओहदा प्रदान किया गया | यह जय सिंह की योजना के बिल्कुल अनुकूल था क्योंकि वह शिवाजी को मुगल सीमा से सटे महत्वपूर्ण इलाकों से हटाना चाहता था। इसी के साथ-साथ इससे शिवाजी और बीजापुर के शासकों के बीच संघर्ष के बीज भी बो गये क्योंकि शिवाजी को तालकोंकण और बालघाट के लिए बीजापुर से सीधे भिड़ना पड़ता.।

हालांकि औरंगजेब इस प्रकार के प्रस्ताव को स्वीकार करने से थोड़ा हिचक रहा था। उसके लिए बीजापुर और मराठा दो अलग-अलग समस्याएं थीं और वह प्रत्येक के साथ अलग से निपटना चाहता था। औरंगजेब सैद्धांतिक तौर पर बीजापुर पर आक्रमण करने के लिए तो सहमत हो गया परन्तु उसने इसके लिए मुगल फौज को अतिरिक्त सहायता देने से इंकार कर दिया । इसके अलावा उसने शिवाजी को केवल बीजापुरी बालाघाट देने की बात सामने रखी उसकी प्राप्त भी बीजापुर अभियान की सफलता पर निर्भर थी। अतः इस स्थिति में जबकि बीजापुर और गोलकुंडा ने संधि कर ली थी और औरंगजेब किसी भी प्रकार की अतिरिक्त सहायता के लिए तैयार न था तथा दक्खन में मुगल खेमे में दिलेर खां के नेतृत्व में शिवाजी-विरोधी तत्वों को उपस्थिति के कारण जय सिंह के लिए सफलता की उम्मीद करना असंभव था।

तृतीय चरण : 1667-1680 ई.

आगगण से भागने के पश्चात्‌ शिवाजो तुरंत मुगलों से मुठभेड़ करने के पक्ष में नहीं थे । इसके विपरोत वह उससे मैत्रोपूर्ण संबंध (अप्रैल और नवम्बर, 1667 ई.) रखना चाहते थे। युवगज मुअज्जम ने खुशी-खुशी शिवाजी के पुत्र शम्भारी को 5000 ज्ञात का मनसब और बरार में जागीर दे दी (अगस्त, 1668 ई.) । ओरंगजेब शिवाजी के साथ अपने बेटे की दोस्ती से सतर्क हो गया और उसे इसमें विद्रोह की गंध आने लगी | औरंगजेब ने औरंगाबाद स्थित मराठा प्रतिनिधियों प्रताप राव और नीराजी पंत को बंदी बनाने का आदेश दिया। इसो समय मुगलों ने शिवाजी को आगरा यात्रा के लिए दिए गये 2 लाख रुपये बसूलने के लिए बरार स्थित शिवाजी की जागीर पर हमला बोल दिया । इन घटनाओं से शिवाजी सतर्क हो गये और उसने अपने प्रतिनिधियों नीराजी पंत और प्रताप राव को औरंगाबाद छोड़ देने का हुक्म दिया । शिवाजी ने पुर्दर की संधि (1665 ई.) के तहत मुगलों को दिए गये कई किलों पर आक्रमण किया। उसने 1670 ई. में काखना, पुरन्‍्दर, माहुलो और नानदेर पर कब्जा जमा लिया | इसी समय युवराज मुअज्ञम और दिलेर खां के बीच संघर्ष आरंभ हो गया। दिलेर खां ने युवगज पर शिवाजी से मिले होने का आरोप लगाया। आंतरिक कलह से मुगल सेना कमजोर हो गयी। औरंगजेब ने युवराज मुअजम के विश्वस्त आदमी जसवंत सिंह को वापस बुलाकर उसे बुरहानपुर भेज दिया | इस स्थिति का फायदा उठाकर शिवाजी ने दूसरी बार (30 अक्तुबर, 1670 ई.) सूरत को लूटा । इसके बाद मराठों को बरार और बगलाना में सफलता मिली (1670-71 ई.) । बगलाना में अहिवंत, मारकंड, रावल और जावल तथा कार्रिज, औसा, नंदुरबार, सलहिर, मुलहिर, चौरागढ़ और हुलगढ़ के किले मराठों के कब्जे में आ गये।

मराठों की सफलता से मुगल सतर्क हो उठे | महाबत खां को दवखन का सर्वेसर्वा बनाकर भेजा गया (नवंबर, 1670 ई.) । परन्तु उसे भी कोई खास सफलता नहीं मिली, परिणामस्वरूप उसे और युवराज मुअजम को 1672 ई. में वहां से हटा लिया गया। इस बार दक्खन की बागडोर बहादुर खां को सौंपी गयो (1673 ई.) ।

इस बीच मराठों का सफलता अभियान जारी रहा। उन्होंने कोइल (जून, 1672 ई.) पर अधिकार जमा लिया। परंतु खानदेश ओर बरार (दिसंबर, 1672 ई.) में मुगलों ने उन्हें सफल नहीं होने दिया । 1673 ई. में बहादुर खां ने शिवनेर पर कब्जा जमा लिया। परंतु मुगलों की ये सफलताएं शिवाजी का रास्ता न रोक पायों। आदिल शाह की मृत्यु (24 नवंबर, 1672 ई.) के बाद बीजापुर में फैली अव्यवस्था का उसने पूरा फायदा उठाया। उसका बेटा बहुत छोटा था (चार वर्ष का) और स्थायित्व कायम करना उसके वश की बात नहीं थी। शिवाजी ने बीजापुर से पनहाला (6 मार्च, 1673 ई.०), पारली (1 अप्रैल, 1673 ई.) और सतारा (27 जुलाई, 1673 ई.) के किलों पर अधिकार कर लिया । बीजापुर दरबार में कई गुट थे। बहलोल खां के नेतृत्व वाले गुट ने बीजापुर के पतन की सारी जिम्मेदारी खास खां के गुट पर डाल दी। 1674 ई. में बहलोल खां ने सफलतापूर्वक मराठों को कनारा से पीछे धकेल दिया।

चौथा चरण : 1680-1707 ई.

दक्‍खनी इतिहास को दृष्टि से 1680 ई. का वर्ष बहुत महत्वपूर्ण है। इसी वर्ष शिकाजी की मृत्यु हुई (23 मार्च) और इसी वर्ष औरंगजेब ने खुद दक्खनी मसले को हल करने का निश्चय किया । अब मुगलों ने पूर्ण आधिपत्य की आक्रामक नीति अपनाई |

आगे आने वाला समय मराठों के लिए सुगम नहीं था। शिवाजी के राज्य के बंटवारे को लेकर उसके बेटों में मतभेद पैदा हो गये और परिणामस्वरूप मराठा सरदारों को अपनी शक्ति दिखाने का मौका मिल गया । पश्चिमी प्रांत के सख्चिव और वायसराय अन्‍नाजी दात्तो तथा पेशवा मोरोप॑त के बोच की आपसी ईर्ष्या से स्थिति और भी बिगड़ गयी। मराठा सरदारों ने शम्भाजी के स्थान पर राजाराम को राजा घोषित कर दिया । शम्माजी ने तेजी से साथ कार्यवाई की और राजाराम तथा अन्नाजी दात्तो को कैद कर लिया (जुलाई, 1680 ई.) । अन्नाजी दातो ने विद्रोही मुगल युवराज अकबर की सहायता से एक बार फिर सफलता प्राप्त करने की कोशिश की। जैसे ही शम्माजो को इस तथ्य का पता चला उसने दमनात्मक नीति का सहारा लेना शुरू कर दिया । शिवाजी के शासन के प्रति वफादार व्यक्तियों को इस दमन का सामना करना पड़ा | इस दमन से घबराकर बहुत से शिकें परिवार के सदस्यों ने मुगलों की शरण ली। इससे मराठा राज्य में पूर्ण अव्यवस्था और अराजकता फैल गयी । स्थिति को ठीक करने के बजाय शम्भाजी शराब ओर वैभव की गहरी खाई में गिरता चला गया। जल्द ही शिवाजी की सेना का अनुशासन समाप्त हो गया। पहले सेना के साथ स्त्रियों को ले जाना वर्जित था परंतु अब यह नियम टूट गया । इसका एक निश्चित प्रभाव पड़ा । इसके कारण अभी-अभी जन्मा मराठा राज्य कमजोर हो गया जिसमें शक्तिशाली मुगलों का सामना करने को शक्ति नहीं थी।

संक्षेप में सतीश चंद्र ने सही ही लिखा है कि औरंगजेब की असफलता का मुख्य कारण यह था कि वह मराठा आंदोलन के स्वरूप को ठीक से पहचान न सका । शिवाजी को मात्र एक भूमिया समझना उसकी भूल थी | मराठों के पास एक लोकप्रिय आधार था और उन्हें स्थानीय भूमिपतियों (बतनदारों) का समर्थन प्राप्त था । मुगल प्रशासनिक व्यवस्था लादे जान के उसके प्रयत्न के कारण स्थानीय तत्वों के बीच अव्यवस्था की स्थिति पैदा हो गयो और किसानों का शोषण हुआ | मुगल मनसबदारों के लिए उनके टक्‍्खनी जागीरों से कुछ भी वसूल करना, लगभग असंभव हो गया । शम्भाजी को मृत्यु-दंड दिया जाना एक और भारी भूल थी। औरंगजेब मराठों के बीच आतंक फैलाना चाहता था, परन्तु उसे इसमें सफलता नहीं मिली। वह न तो मराठों को दबा सका न ही शाहू को अपने पास रखकर कोई शर्त मनवा सका।

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