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'रोज' कहानी की स्त्री दृष्टि

कहानी के तीसरे भाग में महेश्वर के डिस्पेन्सरी से घर लौटने के बाद की स्थितियों . का अंकन है। महेश्वर सूचना देता है कि हस्पताल में भी रोज़ एक सा ढर्रा है। हर दूसरे चौथे दिन वहाँ गैंग्रीन का रोगी आ जाता है, जिस की टांग काटने की नौबत भी आ जाती है। मालती पति पर व्यंग्य करती है

“सरकारी हस्पताल है न, क्या परवाह है। मैं तो रोज़ ही ऐसी बाते सुनती हूँ। अब कोई मर मर जाए तो ख्याल ही नहीं होता।

मालती अपने जीवन की नीरसता को प्रायः चुपचाप सहती रहती है और पति से उसकी बातचीत भी कम होती है, पर सरकारी हस्पताल की दुर्दशा और रोगियों के मरने के प्रसंग को लेकर पति पर किए गए उसके व्यंग्य से उसकी संवेदनशीलता एवं जिजीविषा का पता चलता है।

काँटा लगने पर गैंग्रीन होना, और उसके होने पर टाँग का आपरेशन, यहाँ तक कि टाँग का कटना, हस्पताल में रोगियों का मरना सब कुछ नित्य कर्म की तरह चलता रहता है, जिसे झेलना महेश्वर की नियति है। पर इस कहानी में महेश्वर की जड़ता, उबाहट, एकरसता का अंकन गौण रूप में ही है। मुख्य रूप से मालती के नीरस, यांत्रिक जीवन की त्रासदी को ही कहानीकार ने उभारा है।

कहानीकार की दृष्टि का केंद्र मालती और उसके जीवन की जड़ता ही है, यद्यपि महेश्वर के नित्य कर्म और यांत्रिक जीवन की झलक भी इसमें मिल जाती है। महेश्वर और अतिथि बाहर पलंग पर बैठ कर गपशप करते रहे और मालती घर के अंदर बर्तन माँजती रही, क्योंकि नल में पानी आ गया था। उसकी नियति घर के भीतर खटना ही थी, बाहर की खुली हवा का आनन्द लेना नहीं। आगे कहानीकार ने एक बड़े . मामूली पर रोचक प्रसंग की उद्भावना की है। बर्तन धोने के बाद मालती को पति का आदेश मिला “थोड़े से आम लाया हूँ, वे भी धो लेना।” आम अखबार के काराज़ में लिपटे थे। मालती आमों को अलग कर के अखबार के टुकड़े को खड़े-खड़े पढ़ने लगी।

अखबार के टुकड़े को पढ़ने में उसकी तल्लीनता इस तथ्य की सूचक है कि वह बाहर की दुनिया के समाचार जानना चाहती है, पर वह अपनी सीमित दुनिया में बंद है।

उसके जीवन का एक और अभाव उजागर होता है और वह है अखबार का अभाव। अखबार उसे बाहर की दुनिया से जोड़ने का काम कर सकता था, पर वह उससे भी वंचित थी। लेखक याद कर रहा था मालती बचपन में पढ़ने से बहुत कटती. थी। पिता ने उसकी इस आदत को बदलने के लिए एक दिन पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज़ पढ़ा करो, हफ्ते-भर बाद मैं देखू कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूँगा। मालती ने चुपचाप किताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाड़ कर फेंक देती, अपने खेल में किसी भांति फर्क न पड़ने देती।

जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, “किताब समाप्त कर ली?” तो उत्तर दिया, “हाँ, कर ली.” पिता ने कहा, “लाओ मैं प्रश्न पूछंगा,” तो चुप खड़ी रही। पिता ने फिर कहा, “लाओ, मैं प्रश्न पूछंगा,” तो चुप खड़ी रही। पिता ने फिर कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, “किताब मैंने फाड़ कर फेंक दी है, मैं नहीं पढूंगी।” तभी तो लेखक ने यहाँ सार्थक टिप्पणी की है “वही उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गई है, कितनी शांत और एक अखबार के टुकड़े को तरसती है।” तभी तो अखबार का टुकड़ा सामने आने पर वह उसे पढ़ने लगती है। वह उसे पढ़ने का मोह संवरण न कर सकी। यह प्रसंग बड़ा मामूली है, पर बड़ा अर्थगर्भित है।

इससे पता चलता है कि जीवन की जड़ता के बीच भी मालती में कुछ जागरूकता, कुछ जिज्ञासा, कुछ जीवनेच्छा बची है। इस मामूली प्रसंग से कहानीकार की उर्वरां कल्पनाशक्ति का भी प्रमाण मिलता है। फिर अखबार के टुकड़े को ललक के साथ पढ़ने से उसकी मनःस्थिति का भी अनुमान किया जा सकता है। मालती के जीवन की जड़ता के बीच चेतना और जीवनेच्छा के लक्षण कहानी के बीच यदाकदा प्रकट होते हैं, जिनसे लगता है कि वह इस घुटन भरी जिंदगी से निकलना चाहती है। पर कहानी का मुख्य स्वर चुनौती के बजाए मालती द्वारा जीवन से किए गए समझौते का है। वह सब कुछ सह लेती है। पति के प्रति कर्तव्यनिष्ठा और बच्चे के प्रति वात्सल्य उसे समझौते के लिए बाध्य करता है। उसके जीवन की गाड़ी रेलगाड़ी की तरह लोहे की पटरियों पर कभी तेज़ और कभी मन्द गति से चलती जाती है।

उक्त प्रसंग से यही लगता है कि “रोज़’ नारी की चुनौती के बजाए उसके समझौते और सहनशीलता की कहानी है। वह सब कुछ सह कर गृहस्थी की गाड़ी धकेलती रहती है।

“जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्तव्य भावना बहुत विस्तीर्ण हो गयी, वह मालती की ओर हाथ बढ़ाकर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठ कर एक हाथ से उसे थपकाने और दूसरे से कई छोटे-छोटे डिब्बे उठा कर अपने सामने रखने लगी. “

महेश्वर और अतिथि द्वारा बाहर पलंग पर बैठे चाँदनी का आनन्द लेना और रसोई के भीतर मालती द्वारा बर्तन मलना, सोते हुए बच्चे का पलंग से नीचे गिर जाना ऐसे प्रसंग हैं, जो नारी के जीवन की विषम स्थिति के सूचक हैं। उसे बर्तन साफ करने के साथ बच्चे को भी संभालना है। बच्चे को सुलाने के बाद वह बर्तन मलने बैठी तो बच्चा पलंग से नीचे गिर पड़ा। इस पर मालती की प्रतिक्रिया है “इस के चोटें लगती ही रहती हैं। रोज़ ही गिर पड़ता है।” मानो पलंग से बच्चे का गिरना कोई खास बात नहीं है, क्योंकि ऐसा रोज़ होता है। उसकी चोटें भी चिन्ता का विषय नहीं है, क्योंकि चोटें रोज़ लगती हैं। उसके मन की चोटें भी उसके लिए चिन्ता का विषय नहीं रहीं, क्योंकि वे भी रोज़ लगती हैं। ‘रोज़’ की ध्वनि लगातार गूंजती रहती है। इसलिए कहानी का शीर्षक ‘रोज़’ बड़ा सार्थक है। इस स्थल पर कहानीकार की टिप्पणी भी प्रासंगिक है “ग्यारह बजने वाले हैं।” धीरे से सिर हिला कर जता रही थी कि मालती का जीवन अपना रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के सौन्दर्य के लिए रुकने को तैयार नहीं था।

मालती के जीवन पर लेखक की यह टिप्पणी बड़ी सार्थक है। यह महेश्वर के जीवन पर भी, उस पहाड़ी गाँव के निवासियों के जीवन पर भी चरितार्थ होती |

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