प्रस्तुत गद्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध 'लोभ और प्रीति' से लिया गया है। इसमें शुक्ल ने लोभ और प्रीति के द्वारा माया का जिक्र किया है। धन के प्रति लोभ के कुप्रभावों की बात करते हैं।
व्याख्या-शुक्ल जी ने इस निबंध में लोभ के
प्रभाव का काफी गहन रूप में वर्णन किया है कि कैसे मनुष्य लोभ में फँसता जा रहा
है। धन का लोभी हमेशा अपनी सम्पत्ति बढ़ाने में लगा रहता है। लोगों के अंदर संतोष
नहीं रहता है, बस अपने घर में सब होना चाहिए। लोभ के कारण ही
उसको कोमल भावना होन होने लगती है, वह बुरी संगत में फैंस
जाता है और अनाभ्यास के भाव को भूल जाता है। लोभ के कारण दया के भाव को, न्याय-अन्याय के भाव को, यहाँ तक कि उसका
कष्ट-निवारण और सुखभोग की इच्छा दया, करुणा और सहानुभूति
प्रेम भी इससे बच नहीं पाता है। बह मनुष्य को कठोर बना देता हे।
लोभ का प्रथम संवेदनात्मक अवयव
है किसी वस्तु का बहुत अच्छा लगना, उससे बहुत सुख या आनंद का
अनुभव होना। अत: वह आनंदस्वरुप है। इसी से किसी अच्छी वस्तु को देखकर लुभा जाना
कहा जाता है। पर केवल इस अवस्था में लोभ की पूरी अभिव्यक्ति नहीं होती। कोई वस्तु
हमें बहुत अच्छी लगी, किसी वस्तु से हमें बहुत सुख या आनंद
मित्रा, इतने ही पर दुनिया में यह नहीं कहा जाता कि हमने लोभ
किया। जब संवेदनात्मक अवयव के साथ इच्छात्मक अवयव का संयोग होगा अर्थात् जब उस
वस्तु को प्राप्त करने की, दूर न करने की, नष्ट न होने देने की इच्छा प्रकट होगी तभी हमारा लोभ त्रोगों पर खुलेगा।
इच्छा ल्लोभ या प्रीति का ऐसा आवश्यक अंग है कि यदि किसी को कोई बहुत अच्छा और
प्रिय त्रगता है तो लोग कहते हैं कि 'वह उसे चाहता है'।
भूखे रहने पर सबको पेड़ा अच्छा
त्रगता है पर चौबेजी पेट भर भोजन के ऊपर भी पेड़े पर हाथ फेरते हैं। अत: हम कह
सकते हैं कि चौबेजी को मिष्ठान से अधिक रुचि है। यह अभिरुचि भी लोभ की चेष्टाएँ
उत्पन्न करती हैं। हंद्रियों के विषय भेद से अभिरुचि के विषय भी भिन्न भिन्न हो
सकते हैं। कमत्र का फूल और रमणी का सुंदर मुख अच्छा त्रगता है। वीणा की तान और
अपनी तारीफ अच्छी ल्रगती है, जूही और केसर की गंध अच्छी
त्रगती है, रबड़ी और मालपुआ अच्छा लगता है, मुलायम गद्य अच्छा लगता है। ये सब वस्तुएँ तो आपको आनंद देती हैं, इससे इनकी प्राप्ति की इच्छा बहुत सीधीसादी और स्वाभाविक कही जा सकती है। पर
जिससे इन सब वस्तुओं की प्राप्ति सुलभ होती है उसमें चाहे आनंद देनेवाली स्वत: कोई
बात न हो पर उसकी प्राप्ति की इच्छा होती है, उसका त्रोभ होता
है। रुपये के रुप, रस, गंधआदि में कोई
आकर्षण नहीं होता, पर जिस वेग से मनुष्य उस पर टूटते हैं उस
वेग से भरे कमल पर और कौए मांस पर भी न टूटते होंगे। यहाँ तक कि 'ह्योभी' शब्द से साधारणत: रुपये पैसे का लोओ,
धन का लोभी समझा जाता है। एक धातुखंड के गर्भ में कितने प्रकार के
सुख और आनंद मनुष्य समझता है। पर यह समझ इतनी पुरानी पड़ गई है कि इसकी ओर हमारा ध्यान
अब प्राय: नहीं रहता। धन संचय करने में बहुतों का लक्ष्य धन ही रहता है, उससे प्राप्य सुख नहीं। वे बड़े से बड़े सुख के बदले में या कठिन से कठिन
कष्ट निवारण के लिए थोश सा धन अलग करना नहीं चाहते। उनके लिए साधन ही साध्यह् हो
जाता है।
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