ताँबे के कीडे एक असंगत नाटक है। असंगत नाटक की अवधारण पश्चिम से आई है और इसका संबंध दूसरे विश्व युद्ध की स्थितियों से है। इस एकांकी की कथावस्तु बहुत सीधी नहीं है। उसमें घटित होने वाली घटनाओं में असंगति नजर आती है।
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कथावस्तु का विवेचन-'ताँबे के कौड़े'
एंकाकी में क्रमबद्ध या ठोस कथा-वस्तु नही है। चरित्र भी विकस्रित
या समग्रता लिए हुए नहीं है। स्थिति और विचारों को स्क्रीन के पीछे से, विभिन्न पात्रों के माध्यम से मंच पर प्रतिध्वनित किया गया है। मंच पर
केवल महिला अनाउंसर ही रहती है। नाटक, पार्श्व-नाटक की शैली
में लिखा गया है। यानी नाटक का मुख्य क्रिया व्यापार जितना मंच पर घटित होता है।
ताँबे के कोड़े में
द्वितीय विश्वयुद्ध से उत्पन्न संत्रास और भय को चित्रित किया गया है। विज्ञान के निर्माण
और विनाशक अविष्कारों के सामने हम बोने हो गये हैं। हमारे अस्तित्व का संकट उभर कर
सामने आ जाता है। भौतिक लिप्सा ने हमको अत्यधिक स्वार्थी और अजनबी बना दिया है। हम
अकेले,
लक्ष्यहीन अपने अस्तित्व की खोज में लगे है। स्क्रीन कै पीछे से
उठती आवाजें कहती है-'किसने अपने पड़ोसी का चेहरा पहचाना?
किसने अपनी आत्मा में जीवन के आदि मुहूर्त को सिसकते-सुबकते नहीं
सुना? अकेले और बेसरोसम्मान हम भूले हुए रास्ते खोजती है।'
अनाउंसर कहती है कि 'हम खुद नियम और मनुष्य को कायल कर देती है और हमारे अंतर के अंधकार से
शक्ति फूट पड़ती है। हम अपनी आत्मा से रचते हे और शरीर से नाश कर देते है कि हम
फिर अपने सत्य से उसे सजाएँ।
प्रतीक योजना-प्रतीकों
के प्रयोग से कथ्य बहुआयामी बनता है। उसमें व्यापकता आती है और प्रभाव भी बढ़ता
है। लेकिन जटिल प्रतीक कथ्य को दुरूह बना देते हैं। ताँबे के कौड़े में कहीं-कहों
प्रतीक जतिल है और उनके अर्थ भी कई हो सकते है। भुवनेश्वर स्वयं भी इस तथ्य से
अवगत रहे हैं क्योंकि वे नाटक के अंत में अनाउंसर से कहलाते है-'मेरी समझ में इस नाटक का लेखक न्यूरोटिक है। हमें जो रुचता नहीं है,
जो हमारे विचारों के सँँचे में अटता नहीं, उसे
हम न्यूग्रेसिस न कहें तो क्या कहें। इस नाटक में कोई मतलब नहीं है, वह हमें खामख्वाह भरम में डाल रही है। यद्यपि यह कथन बुद्धिजीवियों पर एक
आक्षेप सा है, क्योंकि भुवनेश्वर के जीवनकाल में समीक्षक
उनके नाटकों का सही मूल्यांकन नहीं कर सकते थे। भाषा-इस नाटक में बुद्धिजीवी वर्ग
में बोली जाने वाली भाषा का प्रयोग किया गया है इसमें हिन्दी शब्दों के बीच
अंग्रेजी और उर्दू शब्दों का भी समावेश है। भाषा में स्वाभाविक गति है, रवानगी है और सफाई है। एक उदाहरण-'रिक्शे वाले ने
कितना अच्छा नाश किया। मेरी ख्वाहिश है कि हम उसके स्टेचू बनाएँ। उसके जाली
ऑटोग्राफ बेचने के लिए कंपनियों खड़ी करें।' भाषा में
मुहावरे भी बिना प्रयल के स्वाभाविक रूप में आ गये है। आँखें तरेरना' और “खोपड़ी चटकाना' के प्रयोग देखिए-मृत्यु और नाश
की इस निर्दय केमिस्ट्री का क्षणभर के लिए खत्म कर दें, हम
इन आँखें तरेरते सवालों से बच सकें “जवानी में मैंने हजारों खोपड़े चटकायें है,
अब सिर्फ उँगलियाँ चटकाता हूँ।” भाषा में प्रतीकों का प्रयोग
बहुतायत से किया गया है। कहीं-कहीं अलंकारिता का भी प्रयोग है।
भाषा प्रारंभ से लेकर
अंत तक एक स्तर की है। चाहे बह रिक्शेवाले की भाषा हो, चाहे अफसर की। भाषामें सहज गतिशीलता है और कहीं-कहीं ओज भी है, जैसे-'मैं इसके खिलाफ लडूंगा। मैं आंदोलन करूँगा और
उन्हें तोडूगा।' भाषा पूरी तरह हरकत की है।
संवाद छोटे
और बहुआयामी है। संवादो की रचना में नाटकौयता विद्यमान है, जैसे-
थका अफसर :
मैं स्लीटी बजाऊँगा। मैं अपनी ताकत सोटी बजाने में खत्म कर दूँगा।
परेशान
रमणी : नहीं रुको सीटी मत बजाओ। हमारी तरफ देखो। मैं कभी कुछ पैदा नहीं करती।
मसरुफ पति
: मैं हर वक्त सोते -जागते देखता हूँ और रचता हूँ, और कायम
करता हूँ।
नाटक की
भाषा और संवादों का बहुत स्टीक प्रयोग, इस नाटक में किया
गया है।
प्रयोगशीलता और अभिनेयता-ताँबें के
कीड़े पूरी तरह प्रयोगधर्मी नाटक है। यह हर स्तर पर नाटक की पारंपरिक रुढ़ियों को
तोड़ता है। कथानक, भाषा, मंच,
प्रस्तुति सभी स्तरों पर यह नाटक की शुरूआत करता है। कथानक न होते
हुए भी यह बहुत कुछ कह जाता है। चरित्र विकसित न होते हुए भी उन्होंने अपनी घुटन
और संत्रास को युगीन संदर्भ से जोड़ा है।
संवेदना के स्तर पर सब
एक तरह जी रहे है। मंच बिल्कुल साधारण और सादा है। मंच पर दीवार से जरा हटाकर, काला स्क्रीन खड़ा किया गया है। मंच का बहुत कुछ आकर्षण महिला अनाउंसर है।
नाटक के बीच बीच में कभी झुनझुना बजाती है, कभी घंटा। नाटकीयता
के साथ मंच पर स्थापित होते और भाषा एवं संवाद की क्षमता प्रमाणित होती। पता नहीं नाटककार
ने इस कथ्य के लिए पार्श्व-नाटक की संयोजना क्यों की? क्या
केवल प्रयोगधामिता के लिए? कुछ भी हो, नाटक
अपनी संरचना में अद्वितीय है।
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