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पुरुष कहता है-" फिर तब हमारी आत्मा और शरीर के मंथन से जो निकलेगा ,वह हमे मार डालैगा।" पुरुष अपने भविष्यसे भयभीत हैं।

प्रस्तुत गद्यांश मोहद सकेश के नाटक 'आधे-अधुरे' में से लिया गया है, इस अंश में स्त्री पुरुष के सम्बन्ध में किस प्रकार विखराव आता है और महेन्द्रनाथ का आधे-अधूरे होना सावित्री के नजर में दर्शाया गया है। साथ ही महेन्द्रगाथ खुद को ही अपनी जिन्दगी बरबाद करने का कारण मानता है जैसे अपनी जिन्दगी खुद ही चौपट कर दी है|

व्याख्या-यह नाटक तनाव, व्यर्थतशा और असंगतपूर्ण स्थितियों की नयी शुरूआत है। सावित्री को नजर में महेन्द्रनाथ कभी भी एक पूरा व्यक्ति नहीं बन पाया। वह एक पजामे की तरह है, जिसको उठा कर इधर से उधर रख दिया जाता है। महेन्द्रनाथ कर्जदार, बेरोजगार और निकम्मा हो गया हैं उसकी प्रेस और फैक्ट्री बंद हो गयी हैं। कह तनाव, घृणा, कुठा और आक्रोश से घिर गया है और तो और सावित्री भी उसे कुछ नहीं समझती है। वह मानती है महेन्द्र अपनी जिन्दगी को बरबाद करने का जिम्मेदार खुद ही है। साथ ही सावित्री के जीवन को भी बरवाद करने का लेकिन फिर भी वह इसी घर में ही रहता है। सावित्री उसे ताने देती है बहुत कुछ उल्टा-सोधा बोलती है। ऐसा लगता है वह घर-घुसरा है अर्थाथ घर में ही घुसा रहता है। उसकी हड्डियों में जैसे जंग लगा हो, महेन्द्रनाथ कोई काम करना नहीं चाहता है। सावित्री का कहना कि महेन्द ने कभी मेरी जरूरत पूरी नहीं की, मेरे दाम्पत्य-जीबन की असफलता का असली रहस्य मुझे पता है। महेन्द्रनाथ निर्शलज्जा, चिपचिपा, अकर्मण्य व्यक्ति है। सावित्री हमेशा अपमान की ज्वाला में जलती रहती है। वह अधूरेपन को कभी भी पूरा नहीं कर पाती है।

विशेष-(1) परिवार में अधुरेपान और महेद्धनाथ के आत्मग्लानि का वर्णन

   (2) निराशा भावा।

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