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कबीर की सामाजिक चेतना पर प्रकाश डालिए|

कबीर सामाजिक धार्मिक दुरावस्था के काल में हुए थे। कबीरकालीन भारतीय समाज कई विरोधी विचार सरणियों, आग्रहों तथा उनके विरूद्ध संघर्षरत कई प्रकार की नई शक्तियों के कारण व्यापक उधल-पुथल का था। सामंतवाद अपने सभी आयामों संग (ब्राहमणवाद्द, वर्णवाद, जातिवाद आदि) मौजूद था. तो इसके विरूद्ध संघर्ष चेतना लेकर चले बौद्ध, जैन, शाक्त, सिद्ध और नाथ आदि भी थे। फिर इन धार्मिक सरणियों का स्खलित और भ्रष्ट रूप भी थां। एक ओर उग्र इस्लाम तो दूसरी ओर सूफी तथा कबीर थे. जो समाज में अनेक स्तरों पर हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रयास कर रहें थे। इनके बीच सामान्य मनुष्य भी थें, जो घर्म के गैर मानवतावादी सरोकारों से भी जुड़े थे। जनता के धार्मिक जीवन में ईश्वर का अनुशग कम था. बाहूयाडइंबर ज्यादा थे। हर मनुष्य का लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति थी। इसीलिए तत्कालीन समाज में सामाजिक सरोकार लुप्त थे।

कबीर मूलतः मकत थे और भक्तिमार्ग यथार्थ रूप में मानवतावादी दृष्टिकोण से ही परिचालित होता है। संस्कृति की धाहे जितनी जटिल व्याख्या की जाए, परंतु परदुखकातरता मनुष्य का प्रधान गुण स्वीकार किया जाता रहा है। कबीर कहते हैं :

कबीरा सोई पीर है जो जाने परपीर।

जो पीर न जानइ, सो काफिर बेपीर।।

इस परदुखकातरता के कारण ही कबीर अपने अनुमूत सत्य को शास्त्र सम्मत सत्यों से अलगाते हैं :

तैरा मेरा मनुवा कैसे एक हीय रें।

मैं कहता हूँ आखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी।।

 

वे यह भी कहते हैं, हम वासी उस ठेस के जहाँ जाति बरन कुल नाहिं।' आलोचनात्मक चेतना और प्रश्नाकुलता कबीर की कविता की दो ऐसी बुनियादी विशेषताएँ हैं, जो सामाजिक्क धार्मिक रूढ़ियों के प्रति और भी बलवती हो उठती हैं। ये विशेषताएँ ही कबीर को आज भी समाज में प्रासंगिक बनाए हुए हैं। इन दोनों विशेषताओं से समृद्ध उनकी दृष्टि समाज की प्रत्येक रूढ़ि, आइडंबर को एक-एक कर तोड़ने की कोशिश करती हैं। वे हिंदुओं और मुसलमानों की तंगदिलसरी पर प्रहार करते हैं। उनके बीच प्रचलित बादयाडंबरें का प्रतिकार करते हैं। नमाज और मूर्ति पूजा का विरोध करते हैँ। समाज में प्रचलित अस्पृश्यता और छुआछूत का विरोध करते हैं :

जो तू बांमन बांभनी जाया, तौ आन बाट ह॒वै क्‍यों नहिं आया।

जो तू तुरक तुरकनी जाया, तौ भीतर खतना क्‍यों न कराया।।

कबीर वक्तव्य नहीं देते और न उपदेशक बनकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। उनके पास तर्क की भाषा है, जिसे वे संवेदना से संयोजित कर काध्यरूप देते हैं। इसी कारण उपर्युक्त कथनों जैसे लमाम कथन अक्खड़ होकर भी भौंडे नहीं हो जाते।

आचार्य रामचंद्र शुक्स ने कबीर के प्रति असहानुमूति प्रकट की है। परंतु इनके महत्व को स्वीकारा भी है, “मनुष्यत्व की सामान्य मावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और भक्ति के ऊँचे-सें-ऊँचे सोपान की ओर बढ़ने के लिए बढ़ावा आत्मगौरव का भाव जगाया और भक्ति के ऊँचे-सें-ऊँचे सोपान की ओर बढ़ने के लिए बढ़ावा दिया।" कबीर का यह कार्य अद्वितीय है। कबीर ने जातिभेद और संप्रदायवाद को जड़ से समाप्त करने के लिए ही एक ईश्वर की अवधारणा पर बल द्विया। परंतु कबीर के समय अनेक संप्रदाय और ईश्वरोपासना विधियाँ प्रचलित थीं। कबीरदास ने वेदपाठ. तीर्थस्थान, छुआछूत, अवतारोपासना आदि तमाम आडंबरों का विशेध किया।

 

समय से विक्षुब्य कोई भी सार्थक कवि केवल खंडनात्मक या निषेधात्मक होकर लंग्रीं यात्रा नहीं कर सकता। कबीर ने समय का इतना लंबा अंतराल तय किया है, क्योंकि इन निषेधों के बावजूद उनके पास एक वैकल्पिक संसार का स्वप्न मौजूद था। कबीर ने माया के माध्यम से सामंती देहवाद, इंट्रियासक्ति, अहंकार आदि का विरोध किया।

कबीर का विद्वोह् मध्ययुगीन समाज के प्रति विक्षोम-आक्रोश की उपज है। परंतु उनका एक अधिक गहरा संसार मी है, जहाँ वे दार्शनिक जैसी बातें करते हैं। कबीरदास का धर्म भक्ति और मार्ग प्रेम था। कबीर का दृढ़ विश्वास था कि मनुष्य को अगर सुख प्राप्त हो सकता हैं तो केवल ईश्वर की भक्ति में और दूसरों के साथ रहकर सुख प्राप्त हो सकता है तो प्रेम के राज्य में। उन्होंने मतवादों, आडंबरों को त्यागकर अपने लिए  यह मार्ग स्वीकार किया है :

निरवैरी निहकामता, साई सेती नेह।

विषिया सूँ च्यारा रहे, संतन का अंग एह।|

कबीएदास ने खंडनात्मक शैली में जो कुछ कह्ठा, उसमें मानवता की पुकार है, किसी धर्म से ट्रेष यथा वैमनस्य नहीं। कुछ आलोचकों ने उनकी प्रखरता को उनका दोष माना है। उन्हें सिर्फ समाज सुधारक बताया है। यह उनकी भावना के साथ पूरी तएह मेल नहीं खाता। कबीर मूलतः भक्त थे। परंतु कबीर तथा अन्य भक्तों की भक्ति पद्धति में एक महत्वपूर्ण अंतर यह था कि अन्य भक्त कवियों ने जहाँ केवल भक्ति मार्ग का वर्णन किया, वहीं कबीरदास नेइसके अतिरिक्त इस मार्ग में आनेवाली कठिनाइयों अर्थात क़्रीतियों, आडंबरों (जिसके कारण भक्त ईश्वर कृपा से वंचित्त रह जाता है) का भी वर्णन किया। यहीं भक्त कबीर मानवतायबादी कबीर बन जाते हैं।

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