मूल अधिकारों की न्यायोचितता
एवं उनका लागू किया जाना उनको प्राथमिकता देता है और मूल अधिकार एवं नीति निर्देशक
सिद्धांतों के बीच विवाद में मूल अधिकारों का पलड़ा भारी होता है। फिर भी नीति
निर्देशक सिद्धांत को लागू करना भी राज्य की नैतिक जिम्मेदारी मानी जाती है। इसमें
इनके लिए कानूनी एवं राजनीतिक, दोनों असमंजय की स्थिति पैदा
कर दी हैं। मूल अधिकार नीति निर्देशक सिद्धांतों से सर्वोच्च है ऐसे विवाद का 1951 में चम्पकम दोराईराजन के केस में देखने को मिला। इस केस में सर्वोच्च
न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि यदि इन दोनों के बीच विवाद हो तो मूल अधिकारों को
तरजीह दी जायेगी। बाद में 19867 के गोलकनाथ केस एवं 1973 के केशवानंद भारती केस ने भी इनकी स्थिति को और मजबूत बना दिया। नीति
निर्देशक सिद्धांतों की तुलना में केशवानंद भारती केस में मूल अधिकारों को संशोधित
भी नहीं किया जा सकता । मूल अधिकार निर्देशक सिद्धांतों से सर्वोच्च है इसका
समाधान 1980 में मिनरवा मिल केस में हो गया था। इस केस में सर्वोच्च
न्यायालय का एक महत्वपूर्ण नजरिया सामने आया खासकर इन दोनों के बीच संबंधों का।
कोर्ट ने यह माना कि भारतीय संविधान का मूल आधार इनके बीच संतुलन बैठाना है। इन
दोनों की प्रतिकध्यता सामाजिक क्रांति की तरफ है। ये दोनों एक रथ के दो पहियों की
तरह है जो कि एक के बिना दूसरा अधूरा है। यदि इनमें से किसी एक को ज्यादा
प्राथमिकता दी तो इससे संविधान की सदभावना को ठेस पहुँचेगी। सद्भावना एवं संतुलन
दोनों संविधान की प्रमुख विशेषताएं एवं प्रमुख आधार भी है। नीति निर्देशक
सिद्धांतों के लक्ष्य को बिना मूल अधिकारों के साथ छेड़छाड़ करके भी प्राप्त किया जाना
चाहिए।
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