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राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों तथा मूल अधिकारों की तुलना कीजिए।

दोनों के बीच समानता एवं असमानताऐं है। इन दोनों का समान लक्ष्य है, अधिकारों की रक्षा करना, जन कल्याण या सामाजिक क्रांति। ग्रेनविल ऑस्टिन ने इन दोनों को “संविधान की अंतर्रात्मा” कहा था। ये दोनों समान परिस्थितियों में उभर कर समाने आये थे। दोनों की जड़ स्वतंत्रता संघर्ष में समाहित है। दोनों की उत्पत्ति का समय एवं परिस्थितियां भी एक सी ही है। 1920 से समाजवाद के विचार काफी लोकप्रिय हुए थे और काँग्रेस ने भी भारतीयों को अधिकार देने की माँग को जोर-शोर से उठाया। इसके बाद संविधान सभा में अधिकारों की उप-समिति का गठन किया गया। जैसा कि आप पढ़ चुके हैं इस उप-समिति ने ही इन दोनों को संविधान में शामिल करने का सुझाव दिया था। वास्तव में संविधान सभा में मूल अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धांतों के ऊपर बहुत कम असहमति थी। मतभेद केवल तकनीकी तौर पर था। फिर भी, दोनों के बीच समान के साथ-साथ असमानताऐं भी मौजूद है। मूल अधिकार नकारात्मक है जबकि निर्देशक सिद्धांत सकारात्मक है। अर्थात मूल अधिकार राज्य को अपने अधीन इन अधिकारों पर अतिक्रमण करने से मना करता है। इसका यह भी अर्थ है कि निर्देशक सिद्धांत राज्य से लोगों के लिए कुछ लाभ लेने या प्रदान करने की बात करता है। मूल अधिकार न्यायसंगत है जबकि निर्देशक सिद्धांत गैर न्‍यायसंगत है। लेकिन ऑस्टिन यह तर्क देते है कि चाहे निर्देशक सिद्धांत गैर न्यायसंगत हो फिर भी देश की शासन व्यवस्था का मूल तत्व है। मूल अधिकार व्यक्तियों के कल्याण एवं उनके व्यक्तिगत एवं राजनीतिक अधिकार प्रदान करते हैं जबकि निर्देशक सिद्धांतों का संबंध संपूर्ण समुदाय के कल्याण के बारे में है। मूल अधिकारों को किसी भी कानून की जरूरत नहीं है उनके लागू होने के लिये लेकिन निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने के लिए कानून बनाने की जरूरत है।

   मूल अधिकारों की न्यायोचितता एवं उनका लागू किया जाना उनको प्राथमिकता देता है और मूल अधिकार एवं नीति निर्देशक सिद्धांतों के बीच विवाद में मूल अधिकारों का पलड़ा भारी होता है। फिर भी नीति निर्देशक सिद्धांत को लागू करना भी राज्य की नैतिक जिम्मेदारी मानी जाती है। इसमें इनके लिए कानूनी एवं राजनीतिक, दोनों असमंजय की स्थिति पैदा कर दी हैं। मूल अधिकार नीति निर्देशक सिद्धांतों से सर्वोच्च है ऐसे विवाद का 1951 में चम्पकम दोराईराजन के केस में देखने को मिला। इस केस में सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि यदि इन दोनों के बीच विवाद हो तो मूल अधिकारों को तरजीह दी जायेगी। बाद में 19867 के गोलकनाथ केस एवं 1973 के केशवानंद भारती केस ने भी इनकी स्थिति को और मजबूत बना दिया। नीति निर्देशक सिद्धांतों की तुलना में केशवानंद भारती केस में मूल अधिकारों को संशोधित भी नहीं किया जा सकता । मूल अधिकार निर्देशक सिद्धांतों से सर्वोच्च है इसका समाधान 1980 में मिनरवा मिल केस में हो गया था। इस केस में सर्वोच्च न्यायालय का एक महत्वपूर्ण नजरिया सामने आया खासकर इन दोनों के बीच संबंधों का। कोर्ट ने यह माना कि भारतीय संविधान का मूल आधार इनके बीच संतुलन बैठाना है। इन दोनों की प्रतिकध्यता सामाजिक क्रांति की तरफ है। ये दोनों एक रथ के दो पहियों की तरह है जो कि एक के बिना दूसरा अधूरा है। यदि इनमें से किसी एक को ज्यादा प्राथमिकता दी तो इससे संविधान की सदभावना को ठेस पहुँचेगी। सद्भावना एवं संतुलन दोनों संविधान की प्रमुख विशेषताएं एवं प्रमुख आधार भी है। नीति निर्देशक सिद्धांतों के लक्ष्य को बिना मूल अधिकारों के साथ छेड़छाड़ करके भी प्राप्त किया जाना चाहिए।

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