समाजशास्त्र और अन्य अनुशासन
व्यावहारिकता और नौकरशाही लोकाचार के प्रकार (मिल्स)
सामाजिक विज्ञान में मुख्य समस्या में एक वस्तुनिष्ठता और
परिप्रेक्ष्य है। अध्ययन के लिए एक सामाजिक समस्या का चयन वह है जिसमें चुनाव
स्वयं एक पक्षपात के अधीन हो सकता है। एक व्यक्ति को जो महत्वपूर्ण लगता है, हो सकता है वह दूसरे व्यक्ति के लिए उतना महत्व नहीं रखता हो। यही करण था
कि उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धांत लिंग पक्षपात और पक्षपात के अन्य प्रकारों के विषय
में बात करना प्रारम्भ करता है। इसके अलावा यह भी महत्वपूर्ण है कि विश्लेषक के
आंतरिक मूल्यों के आधार पर किसी समस्या से संपर्क करने का तरीका भी भिन्न हो सकता
है और जैसा कि अक्सर प्रदर्शित किया जाता रहा है, विश्लेषण
स्वयं पूरी तरह से निश्पक्ष नहीं होता है। ।
अध्ययन किए जाने के लिए सामाजिक
मुद्दे वास्तव में केवल तब ही उचित होंगे जब उनका अध्ययन बिना किसी "मूल्यों
के टकराव” के किया जाए, एक ऐसी स्थिति जिसे हासिल करना लगभग
असंभव है क्योंकि अधिकांश लोग अनजाने में ही पक्षपात को ढोते हैं, जिनके बारे में वे स्वयं भी नहीं जानते होंगे। समस्याओं के समाधान के बजाय
किसी व्यक्ति को बौद्धिक शक्ति के क्षेत्र में धकेला जा सकता है।
जैसा कि हयूम ने प्रसिद्ध
टिप्पणी दी है कि “हम इस बात का निर्णय नहीं ले सकते की हम जिस पर विश्वास करते है
उस से कैसा व्यवहार करें” और ना ही “हम इस बात का निर्णय ले सकते है कि अन्य लोगों
को किस तरह व्यवहार करना चाहिए जैसा की हम व्यवहार करते है।" विचारों की
बहुलता को स्वीकार करने के खुलेपन को समाजशास्त्रीय सोच के एक पहलू के रूप में भी
देखा जा सकता है।
सामाजिक वैज्ञानिक उनके संदर्भ
में दिए गए ढांचे के भीतर काम करता है, समाज को उसी रूप में
स्वीकार करते हुए जैसा वो है। सामाजिक वैज्ञानिक भी समाज का एक सदस्य होता है और
ऐसे मानदंडों और मूल्यों के समुच्चय के रूप में समाजीकृत किया जाता है जिससेउपर
उठाना मुश्किल हो सकता है परन्तु उसे पहचानना संभव हो सकता है। यह केवल इन निहित
मूल्यों को पहचानने से है कि कोई उनसे पार पाने की उम्मीद कर सकता है, लिंग पक्षपात एक स्पष्ट उदाहरण है।
इन दिनों अध्ययन ज्यादातर सत्ता
धारकों और उन लोगों को खुश करने के लिए किया जाता है जो अनुसंधान को चलाने के लिए
संसाधनों का नियंत्रण रखते है- जैसे सैन्य, सामाजिक
कार्यकर्ताओं, बड़े निगमों और जेल के संचालन के लिए, और इस तरह के अनुसंधान के लिए बाजार भी बढ़ रहा है। वैचारिक कारणों से भी
शोध किया जाता है, जैसे कि किसी विशेष राजनीतिक दृष्टिकोण को
साबित करना या उसे अस्वीकार करना, उदाहरण के लिए नारीवाद या
पर्यावरणवाद को भी लिया जा सकता है ।
इस प्रकार, सामाजिक वैज्ञानिक को कार्य के राजनीतिक अर्थों के बारे में पता होना आवश्यक
है। यहाँ वैचारिक तर्कसंगतता के लिए एक स्पष्ट मांग है क्योंकि नए संस्थान आते जा
रहे हैं और पुराने संस्थानों ने अपनी व्यापारिक शक्ति खो दी है। सामाजिक वैज्ञानिक,
यदि अनजाने में, नौकरशाही व्यवस्था के लिए काम
कर रहा है ताकि वैचारिक तर्कसंगतता को कायम रखा जा सके। दोनों प्रकार अंततः
संस्थानों को पूरी तरह वैध बनाने के लिए ही बनाये गए हैं।
सामाजिक विज्ञानों के राजनीतिक अर्थों और प्रशासनिक उपयोगों ने एक बदलाव देखा है और जोड़-तोड़ की नई पद्धतियों द्वारा इसे सुरक्षा प्रदान की जा रही है जिसे नौकरशाही सामाजिक विज्ञान की संज्ञा दी जा सकती है। इस तरह के शोघ कार्य में धन प्रदान करना शामिल हो सकता है और सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सकती हैं केवल उस चीज को साबित करने के लिए जो वित्त पोषण संस्था या एजेंसी को विशेषाधिकार प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए, बांध बनाने पर एक राज्य निर्णय लेता है वह इस पर यह साबित करने के लिए अनुसंधान प्रायोजित कर सकता है कि बांघ का पर्यावरण पर बहुत कम नकारात्मक प्रभाव पडेगा है। इस प्रकार सामाजिक अनुसंधान का उपयोग एक विशेष लाभदायक उद्यम को वैध बनाने के लिए एक राजनीतिक और आर्थिक उपकरण के रूप में किया जा सकता है।
प्रायोगिक समाजशास्त्री केवल इस
बारे में चिंतित हैं कि कौन से विशिष्ट ग्राहक जानना चाहते हैं - यह सार्वजनिक से
विशिष्ट में बदलाव है। इस प्रकार अमूर्त अनुभवजन्य अनुसंधान का उपयोग काम में लाया
जा सकता है यदि यह एक संस्था के अधीन हो और जिसके पास इसे संसाधित करने के लिए धन
है। जैसे ही कार्य आगे बढ़ेगा, श्रम के विभाजन पर 'निगमित नियंत्रण” होगा। लोगों का एक विशाल समूह इसमें शामिल है- बौद्धिक
प्रशासक से लेकर शोध प्रवर्तक, एवम् युवा नये सदस्य तक।
इस प्रकार सत्ता वाले संस्थान समाजशास्त्रियों को बिना किसी दार्शनिक आधार के उपकरणों और तकनीकों के साथ अनुसंधान करने के लिए प्रशिक्षित कर सकें ताकि नीतिपरक और नैतिक मूल्यांकन बनाया जा सके हैं। समाजशास्त्रीय कल्पना से वंचित होने के साथ, यह और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि प्रश्नवाचक नीतियों की आवश्यकता हो। मुद्दा यह है कि सामाजिक विज्ञान एक 'सार्वजनिक रूप से जिम्मेदार उद्यम' होना चाहिए, लम्बे समय से इसकी सारी संभावनाएं प्रतिबंधित थी। यहाँ यह संभावना है कि शोधकर्ताओं ने नौकरशाही व्यवस्था में काम करते समय अपना वैयक्तिकता खो दी हो। अकादमिक गुट की भूमिका कार्यों का परिचय देती है और आलोचकों की अधिकता को भी बनाए रखती है। प्रतिष्ठा उन समूहों की मदद से बनाई जाती है जो सामाजिक दायरे में अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करते हैं। इसलिए, गुट रणनीति निर्धारित करते हैं। नौकरशाही उद्देश्यों की वृद्धि के लिए सामाजिक वैज्ञानिक के उपयोग ने अनुशासन के बौद्धिक और दार्शनिक दायरे को सीमित कर दिया है।
नियंत्रण जो नौकरशाही पद्धति
निश्चित रूप से किसी भी चीज़ पर जो सोची जा सकती है के मूल्यों और विचारों पर रखती
है जो इतिहास के नियंत्रण में योगदान भी देता है। भाषा के उपयोग पर भी अंकुश लगाया
गया है और उसे निर्धारित किया गया है। इस प्रकार समाजशास्त्रीय अनुसंधान पर
नौकरशाही का नियंत्रण बौद्धिक विकास के साथ-साथ सामाजिक न्याय के विरुद्ध भी है।
बॉमनः समाजशास्त्रीय नजरिया
समाजशास्त्रीय नजरिया ब्यूमन द्वारा सुझाया गया प्रस्ताव है जिसमें इन्होंने अधिक आलोचनात्मक और मूल्यांकन के परिप्रेक्ष्य में हमारे आसपास कया हो रहा है इसके विश्लेषण की भावना विकसित करने के बारे में बात की है। एक बार जब हम एक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण विकसित कर लेते हैं तो हम अपने आस-पास होने वाली चीजों के बारे में अधिक तर्कसंगत दृष्टिकोण प्राप्त कर लेते हैं। इसी प्रकार जब दंगे होते हैं, फिर एक समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य हमें अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर मनमाने ढंग से दोष देने के बजाय मूल कारणों तक पहुंचने में सक्षम करेगा; जैसे हम केवल जातीय या नस्लीय चरित्रों के संदर्भ में बात करने के बजाय अर्थव्यवस्था और वर्ग जैसे कारणों की पहचान करने में सक्षम होंगे। इस प्रकार एक समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य हमें सत्य के निकट पहुँचने में सक्षम बनाता है।
यह अनुमान लगाया जा सकता है कि
समाजशास्त्र हमें जीवन जीने की कला सिखाता है। यह हमें कुछ हद तक पूर्वानुमान के
साथ-साथ तर्कसंगत होने में सक्षम बनाता है। समाजशास्त्र का अध्ययन वैज्ञानिक होने
की उम्मीद है क्योंकि गतिविधियां और उत्पाद मूल रूप से सभी के लिए उपयोगी हैं। यह
अध्ययन के तहत वस्तु की पूरी समझ में भी मदद करता है।
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