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रामनरेश त्रिपाठी की राष्ट्रीय चेतना पर प्रकाश डालिए।

हिन्दी कविता की राष्ट्रीय परम्परा में रामनरेश त्रिपाठी का अपना वैशिष्ट्य है। ये द्विवेदी और छायावाद युग के प्रतिष्ठित कवि थे। इनकी प्रमुख रचनाओं का स्वर उदात्त देश-प्रेम और बलिदान की भावना रहा है। समकालीन परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण कर उदात्त राष्ट्र-प्रेम और आदर्श जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा ही इनके साहित्यिक जीवन की घुरी था। उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रीय आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया, वे कई बार जेल भी गये। देश के प्रति अगाघ प्रेम ही 'पथिक' काव्य में मुखरित हुआ है। पथिक काव्य में राष्ट्रीय चेतना के प्रसार को मुख्य उद्देश्य मानने के साथ-साथ अनेक अन्य ऐसे भी पक्ष हैं जिन्हे हम मूल राष्ट्रीय चेतना का पथिक कह सकते हैं। उदात्त मानव प्रेम, आदर्श यथार्थ का समन्वय, अहिंसा, सर्वात्मवाद, कर्मयोग की प्रेरणा की अभिव्यक्ति इनके काव्य की मुख्य विशेषता रहीं है।

 

'पथिक' की मूल चेतना में 'कर्म' प्रधान है। देश की दुर्दशा से व्यथित होकर उस पर आंसू बहाने से राष्ट्र की उन्नति नहीं हो सकती बल्कि उसके लिए पुरूषार्थ और बलिदान की आवश्यकता है। 'पथिक' में यह भाव ही मुख्य रूप से दिखाई देता है। देश में व्याप्त अन्याय और अनीति को समाप्त कर सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए जनता का उसके अधिकारों को प्रति सचेत किया है।

एक व्यक्ति 'निर्दयी' निरंकुश बन बैठा अधिकारी।

शासन है कर रहा तुम्ही पर लेकर शक्ति तुम्हारी।।

पराघीन रह कर अपना सुख शोक न कह सकता है।

यह अपमान जगत में केवल पशु ही सह सकता है।।

अपना शासन आप करो तुम, यह शांति है सुख है।

पराघीन से बढ़ जग में नहीं दूसरा दुख है।।

स्वाघीनता की यह चेतना ही सौन्द्रय का प्रारम्म है। देश के प्रति पूर्ण समर्पण ही स्वतन्त्रता की पहली सीढ़ी है। पथिक की प्रेरणा रूपी वाणी से प्रभावित हो सभी राज कर्मचारी, सैनिक, निरंकुश शासक के विरूद्ध हो जाते हैं और उसे देश से निकालने में समर्थ होते हैं-

अकस्मात हो उठी प्रेरणा, अदभुत सभी के मन में।

तजा उन्होंने एक साथ, दासत्व सर्वसम्मति से।।

दिया निकाल देश सीमा से बाहर बड़े जतन से।

उस बबूल तरू को उखाड़ कर फेंका ननन्‍्दन वन से।।

भारतीय संस्कृति सर्देव वैराग्य की अपेक्षा कर्मे को महत्व देती रही है। आधुनिक युग में भी स्वामी विवेकानन्द, सुमाष, गांधी जैसे महान पुरूषों ने कर्म योग का मन्त्र दिया और उसे अपने जीवन में ढालने का प्रयास किया है।

'पथिक' काव्य में कर्म योग की यह प्रेरणा दिखाई देती है। जीवन के कर्तव्य मार्ग को छोड़कर कल्पना के संसार में विचरण करना वास्तव में पलायन है। अपने दायित्व बोघ को पूरा करने के लिए कर्म के प्रति पूर्ण समर्पण क भाव ही मनुष्य का धर्म है। इसी तथ्य को त्रिपाठी जी ने अपने काव्य के माध्यम से प्रकट किया है। विश्व के सभी चर-अचर अपने अपने कर्म में लगे हैं तब मनुष्य क्‍यों कर्म से मुँह मोड़ कर भागे ? पलायनवादी प्रवृति मनुष्य को कायर बनाती है। ईश्वर ने इस संसार की रचना कर्मक्षेत्र के रूप में की है। इस संसार रूपी क्‌रूक्षेत्र अर्थात कर्मक्षेत्र में कर्तव्य का पालन करते रहना ही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म और वीरता है। मृत्यु तक कर्म करते रहना ही मनुष्य जीवन की अभिलाषा होनी चाहिए-

कर्म तुम्हारा घर्म अटल हो, कर्म तुम्हारी माषा।

हो सकर्म मृत्यु ही तुम्हारे जीवन की अमिलाषा |

पथिक काव्य राजतन्त्र पर प्रजातन्त्र की विजय का काव्य है। इसकी कथा एक ऐसे लोकनायक का चरित्र प्रस्तुत करती है जो राजतन्त्र के षडयन्त्रों से देश को मुक्ति दिलाने के लिए अनवरत संघर्ष करता है। इसलिए पथिक का रचनाकाल भारत मेंअंग्रेजी शासन के विरूद्ध संघर्ष का समय था। वड्ट प्रजा को सचेत करता है कि उसी (प्रजा) की शक्ति ही राजा की शक्ति है। उसी के बल पर राजा शासन करता है। यदि इस शक्ति को उपयोग में लाने का अधिकार प्रजा को मिल जाये तो उसकी काया पलट सकती है। यही प्रजा का मूल सिद्धान्त है। 'पथिक' में यहीं सन्देश कवि ने दिया है-

नृप में बुद्धि नहीं, बस बल है, सो भी सकल तुम्हारा।

तुम हो अपने दुख दुर्गति का अपने आप सहारा|

दुखदायी शासन से अपनी सारी शक्ति हटा लो।

निज सुख दुख का अपने ऊपर सारा भार सम्भालो।।

पथिक गांधीवादी दर्शन का आख्यान है। इसमें नायक के व्यक्तित्व तथा क्रियाकलापों में गांधी के सिद्धान्तों को देखा जा सकता है। वैक्तिक प्रेम और प्रकृति प्रेम को देश-प्रेम में ढाल देने का संकल्प लेकर पथिक जब स्वदेश लौटता है तो निश्चय करता है कि पूरे देश में घूम कर जन सामान्य की परिस्थिति से परिचित हुआ जाए। पथिक काव्य का नायक भी गांघी जी की तरह कोट पतलून त्याग कर सात्विक जीवन व्यतीत करता है। गांघी के अ््िंसक का गहरा प्रभाव काव्य में दिखाई देता है-

रक्‍तपात करना पशुता है, कायरता है मन की।

अरि को वश करना चरित्र से शोभा है सज्जन की।।

गांधी जी जातिगत भेदभाव और छुआछूत के विरोधी थे। वे दीन हीन लोगो को गले लगाना परम घ॒र्म मानते थे। 'पथिक' काव्य का पथिक भी इसी को अपने जीवन का घ्येय मानता है-

घृणित अछूत, अकिंचन जग में जो जन है जितना ही।

तुमसे है प्रेम प्राप्ति का पात्र अधिक उतना ही।।

विकास की सुविधायें, उन्‍नति के समान अवसर सबको मिलने चाहियें। चाडे वे किसी जाति, वर्ग, लिंग अथवा प्रदेश का हो। सर्वोदय भावना की परिकल्पना का साकार रूप पथिक में दृष्टिगत होता है।

ज्धक काव्य का आरम्भ आदर्शेनय कल्पना लोक से होता है जो बाद में यथार्थ की ओर प्रवृत्त होता है। जीवन में कोरे आदर्श का कोई महत्व नहीं जब तक वह यथार्थ रूप में क्रियान्चित न हो-

यदि तुम अपनी अमित शक्ति को समझ काम में लाते।

अनुपम चमत्कार अपना तुम, देख परम सुख पाते।

यदि उद्दीप्त हृदय में सच्चे सुख की हो अभिलाषा।

वन में नहीं जगत में जाकर करो प्राप्ति की आशा।।

19वीं शताब्दी के आरम्म में अनेक समाज सुधार और देशोत्यान के आन्दोलन चले। बहुत कम य्यक्ति निस्‍्वार्थ भाव से सच्ची देश सेवा में प्रवृत्त होते थे। अधिकतर लोग अपने स्वार्थ और झूठी वाह् वाही लेने के लिए ही राजनीति के क्षेत्र में आते थे। पण्डित रामनरेश त्रिपाठी स्वयं सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रिय थे इसलिए उन्होंने ऐसे नेताओं को बहुत करीब से देखा और परखा था। उनके काव्य में ऐसे लोगों की वास्तविकता सामने आयी है-

त्रस्त भूप से, मान दान पाने की अभिलाषा से।

कई प्रजा के हैं हितेच्छू, निज उन्नत्ति की आशा से।।

स्वतन्त्रता आन्दोलन की पृष्ठभूमिके रूप में लिखे गये इस काव्य में समकालीन परिस्थितियों का स्वाभाविक चित्रण हुआ है। साम्राज्ययादी शासन से दुखी जनता गरीबी और भूखमरी का सामना कर रही थी, शिक्षा का उद्देश्य केवल सरकारी तनन्‍त्र को मजबूत बनाना और लाम देना था। किसान अपनी उपज का लाभ नहीं उठा पाते थे। मजदूर वर्ग को पसीना बहा बहा कर भी पेट भर भोजन नहीं मिलता था। युवा वर्ग जीवन से निराश हो पलायनवादी बन रहा था। पराघीन जनता विदेशी साम्राज्य की क्रूरता का शिकार हो रही थी ऐसे समय में गांधीवादी विचारों से युक्त इस काव्य ने समाज को दिशा दी। अतः राष्ट्र चेतना एवं क्रान्ति के संवाहक के रूप में पथिक काव्य का अपना विशेष महत्व है। यह क्रान्ति एक वैचारिक क्रान्ति है जो कर्मयोग अपना कर सर्वहित कारक विचारों को गृहण करने की पक्षपाती है।

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