उत्तर - श्रृंगार रस का स्थायी भाव 'रति' है। संयोग और वियोग श्रृंगार इसके दो भेद हैं। बिहारी का श्रृंगार वर्णन रीतिकाल में विरल है। संयोग श्रृंगार में बिहारी ने श्रृंगार की शास्त्रीय अभिव्यक्ति के साथ उससे अलग श्रृंगार की मौलिक छवियों का चित्रण भी किया है। नायक-नायिका के प्रेम प्रसंग, उनके हाव-भाव, मान-मनुहार और विविध आंगिक चेष्टाओं और मनोवृत्ति का सुंदर चित्रण बिहारी के दोहों में है। नायिका द्वारा नायक से संवाद और प्रेम-भाव का यह श्रृंगारिक चित्रण इस संयोग श्रृंगार के दोहे में देखा जा सकता है :
बतरस-लालच
लाल की,
मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करें, भौंहनु हँसे, दैन कहैँ, नटि
जाइ।।
नायक से बात करने की लालसा से मुरली को नायिका द्वारा छिपाया जाना, नायक द्वारा माँगने पर भौंहों में हँसना, हास-परिहास,
सौगंध खाना और फिर मुरली देने से इंकार करना; नायक-नायिका
की आँगिक-चेष्टाओं और श्रृंगार के संयोग पक्ष का सुंदर चित्रण है। संयोग चित्रण
में बिहारी ने बाहरी व्यापार चमत्कारिक वर्णन के साथ आंतरिक हाव-भाव का भी सुंदर वर्णन
किया है। नायक-नायिका द्वारा भरे भवन में नैनो के द्वारा आपसी संवाद का यह संयोग चित्रण
विरल है :
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन
मैं करत हैं, नैननु हीं सब बात ||
संयोग श्रृंगार में बिहारी ने बाहरी हाव-भाव और व्यापार के साथ नायक-नायिका के अंतर्मन में होने वाली आसक्ति और संवेदना का सुंदर चित्रण किया है।
विरह चित्रण श्रृंगार काव्य की कसौटी है। रीतिसिद्ध कवि होने से
बिहारी की कविता में विरह की दशा का शास्त्रीय चित्रण भी है और विरह की स्वाभाविक
और सहज अनुमूतियाँ भी। हालाँकि विरह का स्वच्छंद भाव कमतर है।
बिहारी के काव्य में शास्त्रीय दृष्टि से किया गया विरह चित्रण
कृत्रिम और चमत्कारिक लगता है। स्वाभाविक विरह का वर्णन करते समय उनकी कविता में
गहन भाव संवेदना होती है। विरह में अतिशयोक्ति और चमत्कारिक चित्रण का कुछ उदाहरण
निम्नलिखित है :
इत आवति
चलि,
जाति उत चली, छसातक हाथ।
चढ़ी
हिंडोरैें सौं रहे, लगी उसासनु साथ ।।
अर्थात विरह में नायिका इतनी कृशकाय हो गई है कि वह कदम कहीं और
रखती है और पड़ते कहीं और हैं। साँस लेने और छोड़ने के क्रम में अपनी जगह से सात
हाथ पीछे और आगे चली जाती है। एक अन्य कविता में विरह-ताप के संदर्भ में वे लिखते
हैं कि विरह में नायिका का शरीर इतना दग्ध है कि उसे शीतल करने के लिए गुलाब जल की
शीशी जो उसके ऊपर डाली जाती है वह बीच में ही सूख जाती है; शरीर पर उसकी एक बूँद भी नहीं पड़ती:
ऑऔंधाई
सीसी,
सु लखि बिरह-बरनि बिललात।
बिच हीं
सूखि गुलाबु गौ, छीटौ छुई न गात।।
प्रिय के विदेश चले जाने पर उसके प्रवास के दौरान ऊपजे विरह के
चित्रण की बिहारी सतसई में अधिकता है। प्रवास संबंधी विरह वर्णन में स्वाभाविकता
और मार्मिकता भी अधिक है। प्रिय के परदेश जाने की सूचना पाकर प्रिया की बेचैनी बढ़
गई है,
उसका गला रूँध गया है, नैनो मे विरह के आँसू
भर आए हैं। स्थिति ऐसी हो गई है कि वह जाते हुए नायक से कुछ बोल भी नहीं पा रही है
:
ललन-चलन
सुनि चुपु रही, बोली आपु न ईठि।
राख्यौ गहि
गाढ़ें गरैं मन्ौं गलगली डीठि।।
विरह की संवेदना का एक रंग तो यह है जिसमें नायिका प्रिय के बिछोह
में शांत है तो दूसरी ओर यह नायिका अपने प्रिय से यह शिकायत करती है कि आपने अपना
मन तो मुझे दे दिया, वह मेरा हो गया है, अब कहीं और जाने को तैयार नहीं हैं; लेकिन आप हैं कि
उसे सौतिन के हाथ देना चाहते हैं, ऐसा जुल्म तो न कीजिए :
मोंहि दयौ, मेरौ भयौ, रहतु जु मिलि जिय साथ।
सो मनु
बाँघि न सौं पियै, पिय, सौतिनि कै
हाथ |।
विरह में नायिका ने नायक के 'अरगजे' (सुगंधित द्रव्य) को 'अबीर' बना
के लगा लिया; विरह संताप की यह उदात्तता बिहारी को रीतिकालीन
कवियों में विरह के श्रेष्ठ कवि का दर्जा प्रदान करती है :
मैं लै दयौ, लयौ सु कर छुबत छिनकि गौ नीरू।
लाल, तिहारौ अरगजा उर हवै लग्यौ अबीरू।।
बिहारी ने श्रृंगार चित्रण मे विशेष कर विरह चित्रण में कुछ ऐसी
मौलिक उद्भावनाएँ की हैं जो उनकी कविता को उत्कृष्ट बनाती हैं। विरहणी की दशा को
देखने के लिए बिहारी का यह आग्रह तो खूब है जिसमें वह विरहणी के तन की दारूण दशा
दिखाना चाहते हैं। विरह का यह विरल उदाहरण है :
जौ वाके तन
की दसा देख्यौ चाहत आपु।
तौ बलि, नैंक बिलोकियै चलि अचकाँ, चुपचापु।।
Subcribe on Youtube - IGNOU SERVICE
For PDF copy of Solved Assignment
WhatsApp Us - 9113311883(Paid)
0 Comments
Please do not enter any Spam link in the comment box