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शुक्ल युग के प्रमुख निबंधकार

 शुक्ल युग के निबंधकारों में रामचंद्र शुक्ल, गुलाब राय, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, निराला, महादेवी वर्मा, नंददुलारे वाजपेयी, शांतिप्रिय द्विवेदी, प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन, रामनाथ सुमन, माखनलाल चतुर्वेदी आदि प्रमुख हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल (1884 ई- - 1941 ई-) इस युग के प्रतिनिधि निबंधकार हैं। शुक्ल जी ने विभिन्‍न विषयों पर निबंध लिखे जो 'चिंतामणि' के तीन भागों में संकलित हैं। उनकी प्रवृत्ति गंभीर विवेचन और तीखे व्यंग्य की रही है। यही कारण है कि निब॑धों में उनका चिंतक और मानवतावादी रूप उभरा है। उन्होंने 'मय', 'क्रोध, 'श्रद्धा और भक्ति', 'घृणा', 'करुणा', 'लज्जा', 'ग्लानि' 'लोभ और प्रीति', ईर्ष्या', 'उत्साह' आदि विभिन्‍न मनोभावों पर दस निबंध लिखे जिनमें इन मनोभावों के सामाजिक पक्ष का विश्लेषण किया गया है| शुक्ल जी ने साहित्य के गंभीर पक्षों पर भी लिखा। ऐसे निबंधों में गंभीर चिंतन, सैद्धांतिक विवेचना और तर्कपूर्ण व्याख्या तो मिलती ही है, भावुक हृदय के दर्शन भी होते हैं जैसे- "कविता क्‍या है', “साधारणीकरण' और व्यक्ति-वैचित्रयवाद', ' रसात्मक बोध के विविध रूप', 'काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था' आदि।

बाबू गुलाबराय (1888 ई--1963 ई-) का निबंध साहित्य इस युग में इसलिए उल्लेखनीय है कि वह मुख्यतः आत्मपरक और व्यंग्यमूलक होने के साथ-साथ लेखक के पांडित्य और जीवन दर्शन की छवि भी प्रस्तुत करता है। उनके निबंधों में गंभीर चिंतन तो मिलता ही है, आत्मीयतापूर्ण व्यंग्य-विनोद भी उनमें देखा जा सकता है। इसके प्रमाणस्वरूप उनके दो निबंध संग्रह सामने रखे जा सकते हैं - 'फिर निराशा क्‍यों' और 'मेरी असफलताएँ'। पहले संग्रह में विचार और तत्व चिंतन की प्रधानता है, सामाजिक दायित्व और राष्ट्रीय और वैयक्तिक आचारमूलक प्रश्न उठाए गए हैं, अंतर्वृत्तियों की मनोवैज्ञानिक छानबीन है। उधर दूसरे संग्रह में हास्य, रससिक्त आत्माभिव्यंजन और व्यंग्य-विनोद से निबंधों को लालित्यपूर्ण बनाया गया है।

माखनलाल चतुर्वेदी तन, मन और प्राण से पूर्णतः राष्ट्रीय थे। उनकी रचनाओं में अनुभूति-प्रवणता अवश्य है, किंतु विषय के वस्तुगत विवेचन की उपेक्षा नहीं हुई है। वे तथ्यों,घटनाओं और वस्तु रूपों के प्रति पाठकों में रागात्मक चेतना जगाकर उन्हें कर्म की ओर अग्रसर करना चाहते थे। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने भाव का आश्रय लिया और ज्ञान को उसकी छाया में विकसित किया। रागतत्व की प्रधानता के कारण उनका गद्य लयात्मक, लालित्यपूर्ण और प्रवाहयुक्त बन गया है। 'साहित्यदेवता' संग्रह में रसपूर्ण आत्मभिव्यंजक निबंध हैं। चतुर्वेदी जी ने अप्रस्तुत योजना (प्रतीकात्मक अर्थ) का आश्रय लेकर भाषा को बिंब-विधायिका बना दिया है। उनकी गद्य शैली भावावेग से विचारों को प्रस्तुत करती है। अत्तः वाक्य-विन्यास भी कहीं बहुत लंबा, कहीं मध्यम आकार का तथा कहीं अत्यंत छोटा हो जाता है। उनकी भाषा में तत्सम और तद्भव शब्दों के अतिरिक्त फारसी, उर्दू और अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी किया गया है।

राहुल सांकृत्यायन बहुभाषाविद्‌, पर्यटक, साहित्यकार, अन्वेषक और पुरातत्ववेत्ता थे। उनके पुरातत्व विषयक निबंध पुरातत्व निबंधावली' में प्रकाशित हैं। 'साहित्य निबंधावली' में भाषा और साहित्य विषयक निबंध संकलित हैं। उनके यात्रा विवरणों को उत्कृष्ट निबंधों की कोटि में रखा जा सकता है।

   राहुल जी विषयों के जानकार और ज्ञानी थे। इस कारण वे अपने निबंधों में विभिन्‍न नए तथ्यों का समावेश करते थे। राहुल जी ने अपने निबंधों में तत्कालीन विषयों को ग्रहण किया। 'मातृभाषाओं का प्रश्न', प्रगतिशील लेखक', हमारा साहित्य', 'भोजपुरी' आदि निबंध बहुचर्चित समस्याओं को संबोधित करते हैं | उनमें निबंधकार की अपनी तकं-पद्धति और चिंतन-प्रक्रिया दिखाई देती है। निबंधों में सहज-स्वाभाविक प्रवाह निखर कर सामने आ गया है। उन्होंने अपनी समृद्ध भाषा में मानव जीवन और प्रकृति के अनेक पदार्थों- गली, चौराहा, सड़क, भीड़, शोरगुल, वीरान, लता, कुंज, उद्यान, सागर, सरिता, पर्वत, मरुभूमि, घाटी, टोकरी आदि का रससिक्‍त चित्रण किया है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला महाकवि के रूप में तो विख्यात हैं ही, गद्य के क्षेत्र में भी उनका योगदान कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने अनेक प्रभावशाली निबंध लिखे जो 'प्रबंध पद्म', 'प्रबंध-प्रतिमा', 'चयन', 'चाबुक' आदि निबंध संग्रहों में संकलित हैं। ये निबंध मुख्यतः काव्य, साहित्य और हिंदी भाषा की अपनी समस्याओं से सम्बद्ध हैं।

   निराला जी के निबंधों में ध्यान आकर्षित करने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात है उनका अक्खड़ व्यक्तित्व जो किसी परिस्थिति में समझौते के लिए लाचार नहीं होता। उनके निबंधों में आत्माभिव्यक्ति के दर्शन होते हैं। एक विलक्षण बात यह है कि उनके निबंध भावुकता और कल्पना से दूर हैं। उनकी गद्य शैली यथार्थवादी है। वे अपने अनुभवों को सामान्य किंतु चुस्त भाषा में बिना किसी लाग-लपेट के कह देते हैं। पद्य की तरह गद्य में भी वे विवरण, तथ्य कथन या अर्थ निरूपण से संतुष्ट नहीं होते वरन्‌ अप्रस्तुत विधान के आश्रय से उसे चित्रित कर देते हैं।

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