रीतिबद्ध कवि
हिंदी साहित्य में रीति निरूपण का प्रथम प्रयास भक्तिकाल के दौर
में ही प्रारंभ हो गया था। विशेष रूप से रीति निरूपण की प्रवृत्ति सबसे पहले
केशवदास में दिखायी देती है। इनका समय सन् 1555 ई. से सन् 1617 ई. के बीच था।
वैसे रीतिकाव्य की अविच्छिन्न परंपरा चिंतामणि त्रिपाठी से शुरू हुई जिनका समय
केशवदास के 50 वर्ष बाद आता है| संभवतः केशवदास और चिंतामणि के
बीच के समय में रीतिकाव्य की अनुपस्थिति के कारण ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने
इतिहास में रीतिग्रंथकार कवियों की शुरुआत चिंतामणि से किया है और कंशवदास को
भक्तिकाल के फुटकल कवियों में रखा है। हालांकि इसे दोहराए जाने का अब कोई औचित्य
नहीं है क्योंकि उनका (आचार्य केशवदास) मुख्य रुझान 'रीति'
ही है। उनके प्रसिद्ध ग्रंथ 'रामचंद्रिका'
में अलंकार बहुलता और चमत्कारप्रियता उनके रीतिगत रुझान को ही
दर्शाता है। अतः यहाँ रीतिबद्ध कवियों के बारे में जानकारी केशवदास से शुरू की जा रही
है।
रीतिसिद्ध कवि
रीतिसिद्ध कवियों ने काव्यांग निरूपक ग्रंथ तो नहीं लिखे लेकिन
कविता मेँ रीति निरूपक आचार्यों के मानदंडों का पालन किया। रीतिसिद्ध कवियों की
कविताओं में वे सभी वस्तुगत प्रवृत्तियाँ मिलती हैं जो रीतिबद्ध कवियों में मौजूद
थीं। रीतिसिद्ध कवियों का उद्देश्य काव्यशास्त्र की शिक्षा देना नहीं था। इनकी
रुचि तद्युगीन दरबारी भावबोध के अनुरूप सरस काव्य की रचना करने में थी। बिहारी, सेनापति, बेनी, कृष्ण कवि आदि
इसी कोटि के प्रमुख कवि हैं।
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