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प्रथम विश्व युद्ध के कारणों का विश्लेषण करें।

हैप्सवर्ग की गद्दी के संभावित उत्तराधिकारी आर्कड्यूक फ्रांसिस फर्डनिंड था, उनकी उन्नीसवीं सदी की आखिरी चौथाई में हत्या कर दी गई । इस हत्या के विरोध में युद्ध की शुरुआत हुई | 28 जून 1914 को बोस्निया के क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों ने उसकी हत्या कर दी थी। फिर भी हत्या युद्ध का असल कारण नहीं थी। यह तो महज एक बहाना था। युद्ध के असल कारणों का पता उन राजनीतिक आर्थिक विकासों में ढूँढा जा सकता है जो 1870 के फ्रांस जर्मनी युद्ध के ब्राद अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में प्रकट हुए थे । उस युद्ध के फलस्वरूप यूरोप में आर्थिक प्रतियोगिता, उपनिवेशों के लिए विवाद तथा परस्पर विरोधी गठबंधन व्यवस्था का सूत्रपात हुआ गुलाम जनता की बढ़ती राष्ट्रीय आकांक्षाओं ने आग में घी का काम किया |

1)  आर्थिक प्रतिस्पर्दा

19वीं सदी की अंतिम चौथाई तथा बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में अधिकांश यूरोपीय देशों के बीच टैरिफ युद्ध चल रहा था। तथा समुद्र पार के बाज़ार को लेकर उनमें गंभीर प्रतियोगिता चल रही थी। टैरिफ युद्ध इटली और फ्रांस, रूस और जर्मनी तथा आस्ट्रिया एवं सर्बिया आदि के बीच चल रहा था| समुद्रपार के बाज़ार को लेकर आमतौर पर सभी यूरोपीय ताकतों, खासकर इग्लैंड और जर्मनी के बीच गहर प्रतिस्पर्धा चल रही थी। पूरी 19वीं सदी के दौरान ग्रेट ब्रिटेन सर्वोच्च आर्थिक ताकत बना रहा था। उसकी इस हैसियत में नौसेना तथा थलसेना का भी विशेष योगदान था। अचानक यूरोप में जर्मनी महान आर्थिक शक्ति के रूप में प्रकट हुआ क्योंकि उसके छोटे-छोटे सामंती जागीर एकजुट होकर राष्ट्र राज्य का निर्माण कर चुके थे। जर्मनी का आर्थिक महाशक्ति के रूप में उदय ने समुद्रपार के बाज़ार में भी उसे कड़ा प्रतियोगी बना डाला। कहना न होगा कि इस बाज़ार में सभी यूरोपीय ताकतों जिनमें प्रेट ब्रिटेन भी शामिल था, का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ था। इस प्रतियोगिता के दूरगामी राजनीतिक नतीजे निकले । इससे उन राज्यों के संबंधों के बीच अंतहीन तनाव का सिलसिला चल पड़ा। इन संबंधों में कटुता तब ओर भी बढ़ गयी जब प्रतियोगी देश व्यापार मार्गों तथा व्यापारिक जहाजों की सुरक्षा के लिए अपनी अपनी नौसेनाओं को मजबूत करने लगे। जर्मनी, जिसके पास पहले से हो एक बड़ी सेना थी, ने अपनी पूरी ताकत नौसेना को मजबूत करने में झोंक दी और जल्दी ही वह अपने मकसद में कामयाब भी हो गया। जर्मनी की बढ़ती आर्थिक शक्ति तथा मजबूत नौसेना और अतिविशाल आर्मी को प्रेट ब्रिटेन एवं जर्मनी के अन्य विरोधी सहन न कर सके | नतीजतन प्रतिस्पर्दधा बढ़ी तथा जोर आजमाईश अनिवार्यहो गया।

2)  औपनिवेशिक विवाद

अपनी अतिरिक्त पूंजी एवं औद्योगिक उत्पाद के लिए सुरक्षित बाज़ार की तलाश में यूरोपीय ताकतें उपनिवेशों पर कब्जा बनाने की गरज से एक दूसरे के साथ उलझ पड़ी । उपनिवेशों की दौड़ में जर्मनी सबसे पीछे था। आर्थिक रूप से महाशक्ति बनते ही जर्मनी विदेशी बाज़ार की माँग आक्रामक ढंग से करने लगा ताकि उसके बढ़ते अर्थतंत्र के लिए बाज़ार मिल सके जर्मनी में यह आम बात बनती जा रही थी कि ठसे भी किसी न किसी उपनिवेश का मालिक होना ही चाहिए। उपनिवेशों की इस लड़ाई में जर्मनी के लिए ग्रेट ब्रिटेन सबसे बड़ा रास्ते का रोड़ा था। मेट ब्रिटेन को जर्मनी दाल भात में मूसलचंद कहकर खिल्ली उड़ाता था। उपनिवेशों के लिए यह लड़ाई केवल जर्मनी एवं इंग्लैंड तक ही सीमित नहीं थी। सच तो यह है कि प्रथम विश्वयुद्ध से पहले सभी बड़ी ताकतें इस छीनाझपटी में शामिल थी। अफ्रीका और एशिया में उपनिवेश में यह अंतर्विरोध और तीव्र हुआ। नतीजतन यूरोपीय देशों के आपसी संबंधों में कटुता आई ।

3)  स्पर्द्धकारी संधि व्यवस्था

दुनिया के विविध भागों में उपनिवेशों पर कब्जा जमाने के सवाल पर परस्पर विरोधी ताकतों के बीच स्पर्द्ध गठबंधन बनने लगे। रास्ता दिखाने का काम जर्मनी ने किया। उसने 1879 में आस्ट्रिया हंगरी के साथ द्वैत संधि की। इस संधि का मकसद जर्मनी को ताकतवर बनाना था ताकि वह संभावित फ्रांसीसी आक्रमण का मुकाबला कर सके । मालूम हो, जर्मनी ने फ्रांस के अल्सेस लोरैन पर कब्जा कर रखा था | संधि का मकसद आस्ट्रिया एवं हंगरी को रूसी आक्रमण से बचाना भी था क्योंकि वाल्कन क्षेत्र में इनके बीच दीर्धकालिक संघर्ष पहले से ही चल रहा था। यह संधि 1882 में त्रिसंधि बन गयी क्योंकि जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी के साथ इटली भी शामिल हो गया। उपनिवेशों की लड़ाई इटली एवं फ्रांस के खिलाफ थी और यह संधि इटली के समर्थन में बनी थी।

   त्रिसंधि में शामिल देशों ने महादेश में यथास्थिति बनाये रखने का प्रयास किया। जबकि दूसरे देशों के लिए उनकी यह चाल यूरोप में आधिपत्य स्थापित करने तथा उन्हें एक दूसरे से अलग-थलग रखने की साजिश थी। इसीलिए उन्होंने प्रतिसंधि बनाने की पहल करने का प्रयास किया। नतीजतन 1893 में फ्रांस और रूस के बीच संधि हुई | यह संधि त्रिसंधि के बढ़ते प्रभाव को रोकने तथा ब्रिटेन को औकात में रखने के लिए की गयी थी। मालूम हो, उपनिवेशों को लेकर फ्रांस और रूस दोनों ही ब्रिटेन के साथ संघर्ष कर रहे थे। हालांकि समय बोतने के साथ-साथ फ्रांस, रूस एवं ब्रिटेन के विवादों का शांतिपूर्ण निपटारा हो गया। बाद में उनके बीच संधि हुई। पहले ब्रिटेन एवं फ्रांस के बीच 1904 में समझौता हुआ। तदन्तर 1917 में ब्रिटेन और रूस के बीच हुआ। ये दोनों संधिया बाद में त्रिसंधि में तबदील हो गयी। इस प्रकार यूरोप दो विरोधी गठबंधनों में विभाजित हो गया। नतीजतन पहले से ही कटु होते जा रहे अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में और भी कड़वाहट आ गयी।

4)  बढ़ती राष्ट्रीय अपेक्षाएँ

उस समय यूरोप के विभिन्न हिस्सों में गुलाम अल्पसंख्यक समुदाय मौजुद थे। ये अल्पसंख्यक अपने संबद्ध साप्राज्यवादी शासकों के खिलाफ थे। उनकी बढ़ती हुई राष्ट्रीय चेतना ने उन्हें विदेशी शासन के विरोध में ला खड़ा किया। वे स्वशासन की माँग करने लगे। अल्सासे लोरेन की फ्रांसिसी जनता जर्मनी के अतिक्रमण के खिलाफ थी। इसी तरह हैप्सवर्ग साम्राज्य को गुलाम जनता के विरोध का सामना करना पड़ रहा था। इस साप्नाज्य पर, आस्ट्रिया और हंगरी का शासन कायम था। आस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के विरूद्ध इटालियन, रामेनियन तथा सलेविक जनता- भी उठ खड़ी हुई तथा स्वनिर्णय अथवा पड़ोसी राज्यों में रहने वाले अपने भाई बंधुओं के साथ एकाकार होने की माँग करने लगी। फिर भी, शासकों ने राष्ट्रवादी चेतना के उभार को शामिल करने की भरपूर कोशिश की। नतीजतन, राष्ट्रीय आन्दोलन उप्र क्रांतिकारी आंदोलनों में तबदील हो गये। बाल्कन क्षेत्र में कई स्थानों पर गुप्त क्रांतिकारी एवं उम्रवादी संगठन खड़े हो गये। ऐसे ही एक संगठन जिसका नाम ब्लैक हैड था, की स्थापना बोस्नियाई सर्वो ने वेल्मेड में की । 1911 में स्थापित इस संगठन ने आर्कड्यूक फ्रांसीस फ्रेडीवैंड की हत्या करने की साजिश की तथा इस साजिश को अंजाम देने की जिम्मेदारी ने गैवरिलों प्रिसिप तथा उसके साथियों को सौप दी। फ्रेडीवैंड उस समय सराजेनों की राजकीय यात्रा पर था। प्रिसिप में अपनी योजना में सफल रहा।

5)  युद्ध का सूत्रपात

आर्कड्यूक की हत्या के उपरांत आस्ट्रिया ने 23 जुलाई 1914 को सर्बिया को कड़ी धमकी दी। सर्निया को ड्यूक की हत्या की साजिश के बारे में कुछ भी पता नहीं था। फिर भी सर्बिया ने धमकी का विनीत जवाब दिया। वह सभी माँगों/शर्तों के पालन के लिए तैयार हो गया, किन्तु एक माँग उसे स्वीकार नहीं थी। धमकी में अन्य बातों के अलावा माफी माँगने, आस्ट्रिया विरोधी आंदोलनों के दमन तथा हत्या की जवाबदेही तय करने में आस्ट्रियाई अधिकारियों की भागीदारी की माँगे शामिल थी। सर्बिया ने छानबीन में आस्ट्रियाई अधिकारियों की भागीदारी की माँग ठुकरा दी। आस्ट्रिया ने सर्बिया के जवाब को अस्वीकार करते हुए उसके विरूद्ध 28 जुलाई 1914 को युद्ध की घोषणा कर दी। सर्बिया के समर्थन में रूस भी इस युद्ध में 30 जुलाई को कूद पड़ा। रूस की भागीदारी ने जर्मनी को युद्ध में कूदने के लिए बाध्य कर दिया। उसने रूस और फ्रांस के खिलाफ क्रमशः पहली तथा तीसरी अगस्त को युद्ध की घोषणा कर दी। फ्रांस पर आक्रमण करने के लिए जर्मनी ने बेल्जियम को परास्त करने की रणनीति अपनाई। इससे ब्रिटेन खफा हो उठा। 4 अगस्त को उसने युद्ध की घोषणा कर दी। इस तरह दोनों खेमों के बीच युद्ध पूर्णरूपेण शुरू हो गया। एक खेमे में आस्ट्रिया-हंगरी और जर्मनी थे तो दूसरे खेमें में फ्रांस, ब्रिटेन और रूस | पहला केद्धीय शक्ति के रूप में जाना गया तो दूसरा गठबंधन के रूए में मशहूर हुआ।

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