मनन्नूअंडारी हिन्दी की सुप्रसिद्ध कहानीकार थीं। मध्य प्रदेश में मंदसौर जिले के भानपुरा गाँव में जन्मी मन्नू का बचपन का नाम महेंद्र कुमारी था। लेखन के लिए उन्होंने मन्नू नाम का चुनाव किया। उन्होंने एम ए तक शिक्षा पाई और वर्षों तक दिल्ली-के मिरांडा हाउस में अध्यापिका रहीं।
धर्मयुग में धारावाहिक रूप से प्रकाशित उपन्यास आपका बंटी से लोकप्रियता प्राप्त करने वाली मन्नू भंडारी विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ की अध्यक्षा भी रहीं। लेखन का संस्कार उन्हें विरासत में मिला। उनके पिता सुख सम्पतराय भी जाने माने लेखक थे।
क्षेत्र की दृष्टि से, यह शैली अत्यंत व्यापक प्रतीत होती है। अब्दुल्लहमान मुलतान के थे। इस क्षेत्र की यह प्रचलित भाषा नहीं, अपितु यहाँ की कवि- प्रयुक्त शैली ही अवह थी। संदेशरासक की शैली रुढ़ और कृत्रिम साहित्यिक शैली है। किंतु दोहों की भाषा तो एकदम ही नवीन और लोकभाषा की ओर अतीव उन्मुख दिखाई पड़ती है।
डॉ. हरिवललभ भायाणी ने दोहों की भाषा हेमचंद्र के द्वारा उल्लिखित दोहों के समान या उससे भी अधिक अग्रसरीभूत भाषा- स्थिति से-संबद्ध मानी है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि परिनिष्ठित शैली की संरचना को ग्रहण करके चलना चाहता है। जिसमें संस्कृत और प्राकृत के उपकरण संग्रथित हैं। साथ ही वह बीच- बीच में ऐसे दोहों को अनुस्यूत कर देता है, जो लोकशैली में प्रचलित थे। इन प्रचलित दोहों की शैली का यह वैशिष्ट्य सदैव से प्रकट होता आ रहा था।
कथ्यं की प्रकृति के अनुसार भी दोहों की शैली भिन्न हो सकती है। प्रेम और विरह की कोमल अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए लोकगीतों की शैली का प्रयोग होता रहा है। "संदेशरासक' में भी दोहों का प्रयोग भाव- द्रवित स्थलों पर ही हुआ है। इन दोहों की शैली बहुत कुछ ब्रजभाषा पर आधारित है।
अवह शैली पूर्वी अंचलों में भी त्रोकप्रिय थी। इस शैली में प्राप्त पूर्वी अंचल की कृतियों में विद्यापति की "कीर्तित्नता', स्फुट प्रशस्तियाँ, सिद्धों के गान और दोहे आते हैं। विद्यापति ने तो "अवहड्ड' को स्वीकार ही किया है। इस अवह में कुछ पूर्वी रुपों का समन्वय स्वाभाविक है। किंतु कीर्तिलता की भाषा की प्रकृति और संरचना अवह की ही है।
विद्यापति अवह भाषा शैली का सचेतन प्रयोग राजस्तुति के संदर्भो में करते हैं। यही एक रुढ़ और परिनिष्ठित शैली के प्रभाव- क्षेत्र की विस्तृति का कारण है। प्रेम- प्रसंगों और गीति- विद्या में विद्यापति ल्रोकभाषा (मैथिली) का प्रयोग करता है। भाषा का यह दुहरापन एक सीमा तक अब्दुल रहमान में भी मिलता है।
भाषा का दुहरापन सिद्ध- साहित्य में भी उपलब्ध होता है। सिद्धों दवारा रचित दोहों में पश्चिमी अपभ्रंश का अपेक्षाकृत शुद्ध प्रयोग मित्रता है। गीत- रचना के वैयक्तिक क्षणों में सिद्ध- कवि पूर्वी भाषाओं के स्थानीय रुपों की ओर झुक जाता है, चाहे शैली की मूल्न संरचना परवर्ती अपभ्रंश या अवह की ही हो। ब्रजबुलि का आधार भी अबह ही है।इस प्रकार अवह गुजरात से बंगाल, आसाम, उड़ीसा तक स्थानीय प्रभावों से समन्वित मिलता है।
अवह शैली एक ओर तो विद्यापति की राज्याश्रित, प्रशस्तिमूलक रचनाओं में प्रयुक्त मिलती है, दूसरी ओर सिद्धों के दोहा कोशों में भी अवह की छाया मित्रती है। पीछे वैष्णव आंदोलन के उपस्थित होने पर वही "ब्रजबुल्लि' शैली में संक्रमित हो जाती है। इस संक्रमण की स्थिति में पश्चिमी अपभ्रंश के रूप कम होने लगते हैं और मैथिली और बंगला के स्थानीय रूप अधिक उभरने लगते हैं।
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