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पुरंददास और कनकदास के युग की पृष्ठममि पर प्रकाश डालिए।

 पुरंददास और कनकदास के युग की पृष्ठममि:

जिस यग में पुरंदरदास और कनकदास का आविर्भाव हुआ, उस यूग की पृष्ठभूमि के संबंध में पहले जानना चाहिए। इसलिए हम उस युग की सामान्य विशेषताओं के ब्वारे में जानेंगे।

1. सामान्य विशेषताएं

यह कहा जा सकता है कि ईई. पंद्रहवीं शताब्दी से उन्‍नीसवीं शताब्दी तक का काल कन्‍नड़ साहित्य में विष्णु-भक्ति-प्रा घान्य काल अथवा वैष्णव भक्तिधारा का काल है। इस काल में राजनैतिक तथा सामाजिक दोनों डृष्टियों से कर्नाटक बहुत प्रगतिशील ह॒ुआ। परंतु उसकी जितनी उनन्‍नति हुई, उतनी ही उसकी अवनति भी हुई। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 14वीं शताब्दी (ई.) में हुई थी। सोलहवीं शताब्दी तक वहाँ संगम, साद॒व, तुदंज और आरजचवीड राजवंश के राजाओं ने आशधिपत्य किया। दश्लिण भारत का यह नवोदित और प्रसिद्ध साम्राज्य साहस और वीरता का केंद्र था। च्ु॒क्‍्कराय, प्रौढदेवराय, श्रीकृष्ण देवराय, रासराय आदि सम्राटों ने विजयनगर साम्राज्य क्य विस्तार किया। श्रीकृष्णदेवराय पराक्रमशाली यौद्धा ही नहीं, साहित्यकार और साहित्य के पोषक भी थे। देशा-विदेश के राजा मसहाराजाओं, यात्रियों और व्यापारियों को विजयनगर साम्राज्य ने बरबस आकर्षित किया था। उसकी श्रीसंपदा से अन्य राजा-महाराजा ईर्ष्या करते थे। अंत:ःकलह और मुसलमानों के आक्रमण के कारण विजयनगर साम्राज्य क्षणिक स्वप्न की भाँति अदृश्य हो गया। विजयनगर काल की राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों का वर्णन विदेशी यात्रियों और लेखकों ने किया है। उसे देखने से अनुमान कर सकते हैं कि विजयनगर विजयनगर के राजाओं ने समाज में एकता और शांति स्थापित करने का प्रयत्न किया। घार्मिक सतभेद दूर करने का प्रयास किया। इसलिए उस समय धार्मिक एकता -थी। कन्‍नड़ संस्कृति का विकास हुआ। उस समय के सामाजिक जीवन के चित्र तत्कालीन साहित्य में मिलते हैं।

विजयनगर के पतन के बाद कन्‍नड़ स्कति औः ले और साहित्य के विकास में बाधा उत्पन्न हई। जब तक मैसूर और केषदि के राज्यों में नहीं आयी तब तक यह रुकावट बनी रही।

2. साहित्यिक विशेषताएँ

कन्‍नड़ शौली के निशा 'देसि-काव्य' का यह युग है। इसके पहले तत्सम शब्दों की शृंखला से कन्‍नड़ -कामिनी को सुक्‍त करने का सफल प्रयास हुआ था। यह प्रवृत्ति इस काल में भी दिखाई पड़ी। साहित्य निर्माण की दृष्टि से यह काल संपन्‍न काल कहा जा सकता है। श्रेष्ठ कवियों का आविर्भाव हुआ। श्रेष्ठ प्रबंध काव्य, मुक्तक काव्य आदि की रचना हुई। साहित्य को विजयनगर के राजाओं का आश्वय प्राप्त छहुआ। विजयनगयणर साम्राज्य के पतन के बाद मैसूर तथा अन्य राजाओं का आश्रय कवियों को प्राप्त हुआ। यह ध्यान देने की जात है कि राजाश्रय में साहित्य की समृद्धि होने पर भी वह जनता से दूर नहीं रहा।

वैष्णव साहित्य के आश्चर्यजनक विकास का यह काल विष्णु भक्ति प्राधान्य काल नाम से विख्यात है। इस काल के प्रथम महाकवि कुमार व्यास कप्यटक भारत कथामजरि अथवा कन्‍नड़--महाभारत के प्रष्णेता हैं। उनसे प्रेरणा ग्रहण कर या उनके महाभारत की रचना से प्रोत्साहित होकर कई कवियों ने सुंदर काव्यों की रचना की। रामायण, महाभारत, भागवत आदि काव्य ग्रंथ रचे गये। इसलिए कुमार व्यास को इस काल के प्रतिनिधि कवि कह सकते हैं।

वैष्णव कवि भगवान के गुणों का गान पदों की रचना के द्वारा करते हैं। ऐसे भक्तों को जो भगवान का कीर्तन करते हैं, कन्‍नड़ में हरिदास कहते हैं। उनके पदों को कीर्तन या देवर नास (भगवान का नाम) कहते हैं। हरिदासों की रचनाओं को समग्र रूप से ''दास साहित्य” कहते हैं। ''हरिदास”” का ही संक्षिप्त रूप 'दास”' है जिसका अर्थ है 'भक्‍त*”। अतएव *दास साहित्य'” का अर्थ है ''भकक्‍तों के द्वारा निर्मित साहित्य। ”” इस काल में 'दास साहित्य,” जो वैष्णव भक्ति साहित्य का एक प्रमुख अंग है, बहुत विकसित हुआ। हरिदासों या भक्‍तों की एक मण्डली भी स्थीपत हुई जिसको ''दासकूट'”” कहते हैं। दासकूट के भक्तों ने कन्‍नड़ भाषा में श्रीमध्वाचार्य के सिद्धांतों का प्रचार करते हुए वैष्णव धर्म के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने सरल और सुबोध भाषा में उपदेश देकर समाज को जागृत किया और सुधार का कार्य भी किया। जन-मन को करने वाली संगीत-सुधा से कर्नाटक संगीत की भी अनुपम सेवा की। जन अविस्मरण तथा सदा प्रशंसनीय है।

वैष्णव धर्म के तत्वों के आधार पर इस काल में रचित साहित्य दो रूपों में दिखाई पड़ता है--(अ) प्रौढ़ (श्रेष्ठ) काव्य और (आ) सर्वजनसुलभ काव्य। वैष्णव भक्ति संबंधी काव्यों के अतिरिक्त शौव कवियों के कतिपय काव्य, शतक, टीका ग्रंथ आदि भी इस काल में लिखे गये। इस काल में षट्पदि और सांमत्य छंदों का विशेष प्रयोग द्रष्टव्य है। इन दोनों छंदों में घट्पदि की इस काव्य में विशेष लोकप्रियता सिद्ध हुई। षटपदि के 55: भेदों में ''भामिनि”” और 'वार्धक' में अधिक काव्य लिखे गये। इन छंदों की लोकप्रियता की दृष्टि से इस काव्य को ''षट्पदि युग”” कहते हैं।

प्रसिद्ध साहित्येतिहासकार स्व. आ. नरसिंहाचार्य ने 5वीं शताब्दी से 9वीं शताब्दी तक के इस काल को ''वैष्णव (ब्राह्मण) युग” कहा है। वर्तमान समय में प्रसिद्ध कन्‍नड साहित्य के इतिहास लेखक डा. रं. श्री. मुगकि ने प्रतिनिधि कवि को दृष्टि में रखकर इस काव्य को "कुमार व्यास युग” कहा है। इस काल में ऐतिहासिक विषयों पर तथा जीवनचरित को लेकर भी काव्य लिखे गये। 19वीं शताब्दी तक आते-आते गद्य की ओर लेखकों का आकर्षण दिखाई पड़ता है। संधिकाल के कवि मुछण (नंदकिके लक्ष्मीनारायण था) के ग्रंथ इसके प्रमाण है। इस काल के वैष्णव कवियों में कुमार व्यास, कुमार वाल्मीकि, व्यासराय पुरंदरदास, कनकदास प्रभूृति, शैव कवियों में चामरस, सर्वज्ञ आदि तथा अन्य कवियों में रत्नाकरवर्णि, चिककदेवराज, तिरूमदार्थ, चिक॒पाध्याय, कवयित्री होन्‍नम्मा आदि के नाम यहाँ उल्लेख्य हैं।

3 पुरंदरदास का आविर्भाव

स्वामी नरहरि तीर्थ से कन्‍नड़-दास-साहित्य का प्रारंभ माना जाता है+-दास-साहित्य को समृद्ध करने में श्रीपादराय, व्यासराय, पुरंदरदास, कनकदास, नादिरा-जतीर्थ, विजयदास और जगनन्‍नाथदास प्रभृति भकक्‍त कवियों का विशेष योगदान है। पुरंदरदास के गुरु व्यासराय (ब्यासतीर्थ), पुरंदरदास और कनकदास तो दास साहित्य के त्रिरत्न्न हैं। उनकी शिष्य परंपरा में अनेक भक्त कवि हुए जिन्होंने पद-रचना के द्वारा वाणी का श्रृंगार किया।

पुरंदरदास का व्यक्तित्व अत्यंत महान था। निश्चय ही वे दासकूट के सर्वश्रेष्ठ भक्त कवि हैं। उनके हे व्यासराय ने स्वयं कहा था-'दासरेंदरे पुरंदरदासरय्या' (सच्चे भक्‍त तो पुरंदरदास ही है)। कहा जाता है कि व्यासराय के शिष्य बनने के पहले वे एक धनी जौहरी . थे और सुखमय जीवन व्यतीत करते थे। उनकी पत्नी पतिब्रता थी। पहले उनका नाम श्रीनिवास नायक था। भगवान की दया दृष्टि उन पर पड़ी। एक दरिद्र ब्राह्मण के रूप में आकर उन्होंने नायक से भिक्षा मांगी। नायक ने कुछ नहीं दिया। ब्राह्मण ने नायक की - पत्नी से याचना की। वह अपने पति से डरती थी। फिर भी उन्होंने भगवान का स्मरण कर : मोतियों का अपना नक-फूल ब्राह्मण को दिया। ब्राह्मण उसे बेचने के लिए नायक की दुकान पर ही गया। नायक को उसे देखकर संदेह हुआ। वे घर आये। क्रद्ध होकर उन्होंने अपनी पत्नी से नक-फूल लाने को कहा। उनकी पत्नी बहुत घबरा गयी। सूझ नहीं रहा था कि क्‍या करना चाहिए। वह घर के भीतर जाकर विषपान करना चाहती थी। तब तक फल आकर हाथ में गिरा। उन्होंने उसे अपने पति के हाथ में दिया। नायक को अत्यंत आश्चर्य हुआ। वह नक-फूल अपनी दुकान में सुरक्षित रूप से रख आये थे। यहाँ यह कैसे आया। वे फिर दुकान पर गये। देखा तो वहाँ नक-फूल नहीं है। इस विचित्र घटना ने उनकी आँखें खोल दीं। उन्होंने अपनी संपत्ति त्याग दी। वे भगवान के भक्‍त हो गये और गुरू व्यासराय के शिष्य बनकर पुरंदरदास कहलाये।

पुरंदरदास संगीत के आचार्य थे। उनको कर्नाटक संगीत के पितामह कहते हैं। कर्नाटक संगीत को उनकी देन अनुपम है। उन्होंने कोर्ड प्रबंघ काव्य नहीं लिखा है। फिर भी उनको हम महाकवि और अग्रगण्य भक्‍त कहते हैं। हिंदी के प्रसिद्ध कवि सूरदास के सदृश्य उन्होंने कृष्ण के बाल रूप और यौवन रूप का वर्णन किया है। उन्हीं के कथनानुसार उनके पदों (कीर्तनों) की संख्या चार लाख और पचहत्तर हजार है।

ऐसा ज्ञात होता है कि जब प्रंदरदास विरक्‍त हुए तब्ब लोगों को उन पर विश्वास नहीं हुआ। उनके साथ कस लोगों ने बुरा व्यवहार भी किया। परंतु वे अपने निर्णय और मार्ग पर अटल रहे। उनका जीवन कुंदन की भांति पवित्र हुआ, धीरे-धीरे लोगों पर उनके व्यक्तित्व का अजच्छ्ठा प्रभाव पड़ा। उनको महान भकक्‍त मानने में किसी को भी संकोच नहीं हुआ। व्यासराय जी के शिष्य जनकर माध्व-सिद्धांत को मानने पर भी वे सम्प्रदाय के ही बड़े व्यक्ति नहीं माने राये, बल्कि कर्नाटक के एक श्रेष्ठ भक्‍त कवि माने राये। कर्नाटक के श्रेष्ठ भक्‍तों में ही नहीं, भारत के श्रेष्ठ भक्‍तों में भी उनका निश्चय ही अन्यतम स्थान है।

पुरंदरदास ने अनेक तीथथों के दर्शान किये थे, अनेक धर्म-सम्प्रदाय के अनुयायियों से वे मिले थे। अतएव उनकी दृष्टि विशाल थी उनको जीवन का मार्मिक अनुभव हुआ था। उनके पदों को देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। उनके पदों में पुरंदर विटठल (विटठल) की इठाप (म॒क॒ट) है। वे पंढरपुर के भगवान पुरंदर विट्ठल (विट्ठल शाब्द विष्णु शाब्द का लतद॒भव है) के परम भक्‍त थे। कहा जाता है कि पुरंदर गढ़ में (जो पहले कर्नाटक में था) वे बारह वर्ष रहे। उनके पदों में ज्ञान, भकति और बैराग्य के अनेक सुन्दर चित्र हैं। उनके पदों की उत्कुष्टता का यह प्रमाण्ण है कि उनके समकालीनों ने उनके पदों की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उदघोष किया कि वे पुरंदरोषनिषत हैं। उपनिषदों के तत्व उनके पदों में सरस सरल और सुबोध शैली में अभिव्यंजित होने के कारण उन पदों को ''पुरंदरोषनिषद!'” कहना सर्वथा संगत ही है।

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