भारत में निर्गुण काव्य की परंपरा:
1. निर्गुण से अभिश्नाय
निर्गुण का अर्थ है---प्राकृत गुणों से रहित |
इससे भाव यह है कि सतो, रजो तथा तंमो तीनों गुणों से रहित है । स्पष्ट है कि निर्गुण का अर्थ गुण रहित नहीं है गुणातीत है । हिन्दी साहित्य में ““निर्गुण”” शब्द का प्रयोग भक्ति को एकक विशिष्ट काव्ये-ध्वारा के रूप में किया जाता है। इसके लिए “संत” शब्द का पअ्रयोग भी किया गया है। “संत” शब्द व्यापकता का परिचायक है । भारतीय आर्य भाषा में “संत्!” शब्द वैदिक साहित्य में “ब्रह्म” के लिए अयुक्त हुआ है। संत साहित्य की मूल अवृत्ति निर्गुणोंपासना हैं। यही वह केन्द्रीय प्रवृत्ति है जिस पर सेनन््तों की अन्य प्रवृत्तियां भी आधारित है। वेदों तथा उपनिषदों में “बहम'! को निर्मुण स्त्रीकार कर उससे सर्वव्यापी, अत्यन्त सूश्म माना गया है | नाथ पथियों की साधना का मूलाधार ““निरंजन”' है, यह निरंजन सन्त कवियों के निर्गुण से भिन्न नहीं है । इसका आधार श्वेताश्वतरोपनिषद् रहा है। त्रहम को निर्विकार ड्रष्टा .और उदासीन कहा है। श्री मदभगवदगीता मेँ यह ““निर्मुण ब्रहम'” की भावना उपनिषदों से भी अधिंक विकसित रूप में मिलती है । उसमें कृष्ण अपने को अज, अविनाशी, सर्वव्यापी, निर्विक्शार और इन्द्रियातीत कहकर पूर्णतः निर्युण और परम अक्षर कहते हैं। इस प्रकार जिस ““निर्गुण”' ब्हम को भावना का आरम्भ ऋग्वेद से हुआ, वही क्रमशः विकसित होती हुई पन्द्रहलीं शताब्दी के हिन्दी संत साहित्य में अवतीर्ण होती दिखाई देती है। निर्गुणसाहित्य (काव्य) आज एक पारिभाषिक शब्द के समस्त गुण अहण कर चुका है।
2 निर्गुण तथा संत कवि
भारत में निर्गुण काव्य परंम्परा के आदि खोतों के विषय में विद्वान् एक मत नहीं हैं। इस काव्य परम्परा में कबीर की महत्ता सभी ने स्वीकार की है, पर कुछ इतिहासकारों ने नामदेव की चर्चा विशेष रूप से की है। सन्त शब्द के प्रचलन में भी इस प्रकार के अभिमत प्रस्तुत किये जाते हैं। डॉ. विनयमोहन शर्मा का कथन है कि हिन्दी साहित्य के इतिहासकांरों में निर्गुण ब्रहमोपासक को संत और सगुण ब्रहमोपासक को “भक्त” नाम से अभिहित करने की परिपाटी है जो व्यावहारिक मात्र ही कही जा सकती है। “परम सत्य” का साधक चाहे अपने पिंड में उसके दर्शन करे, चाहे पिंड से बाहर सृष्टि के. अणु-अणु में उसका स्पन्दन अनुभव करे, संत ही है। प्रकृत रूप में निर्गुण साधकों को संत नाम दिया जाने लगा। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का इस सम्बन्ध में कथन है “परन्तु पता चलता है कि “संत” शब्द का प्रयोग किसी समय, विशेष रूप से केवल उन भक्तों के लिए होने लगा जो पंढरपुर वाले विट्टी भगवान के उपासक अंथवा वारकरी सम्प्रदाय के प्रमुख प्रचारक थे और जिनकी भक्त में निर्गुणोपासना की प्रधानता थी। इन लोगों में से नामदेव, ज्ञानेश्व, एकनाथ, रामदास तथा तुकाराम आदि के लिए तो यह शब्द रूढि सी हो गया।”
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