लैवी स्ट्रॉस के अनुसार संस्कृति सम्पर्क का माध्यम है, उस उद्देश्य को अभिव्यक्ति है जो आदान-प्रदान के जरिए पूरे समाज को बांध कर रखती हैं। सभी मिथक, लोक-कथाएँ, लोक गीत, लथा रीति-रिवाज व मान्यताएँ जो मिलकर संस्कृति का निर्माण करते हैं, वे इसी उद्देश्य की अभिव्यक्ति के वाहक होते हैं।
अपने संरचनावाद में लैवी स्ट्रॉस ने सम्बंधों को संरचना तथा मनोविज्ञान, मानव मस्तिष्क की संरचना का सटीक प्रत्युत्तर दिया है। उसके अनुसार मानव मस्तिष्क संस्कृति के उन तत्वों में प्रतिबिम्बित तथा प्रयुक्त होता है जो आदान-प्रदान के माध्यम से समाज को थामे रहते हैं। 1963 के आस-पास लैवी स्ट्रॉस ने संस्कृति के मूल बिन्दु की, विशेषरूप से प्रकृति दवारा संस्कृति तक पहुँचाये जाने वाले आशय की तलाश की और पाया था कि मानव समाज में विवाह करने की सांस्कृतिक प्रवृति के पीछे स्त्री और पुरुष का शारीरिक मिलन होता है जिसमें प्रकृति का अपनी नस्ल को आगे बढ़ाने का उद्देश्य छिपा होता हैं|
लैवी स्ट्रॉस के अनुसार विवाह मनुष्यों के बीच आदान-प्रदान की आधारभूत परम्परा विवाह है। विवाह के उद्देश्य से समाज में स्त्रियों के आदान-प्रदान अथवा अदला-बदली की प्रथा समाज के विभिन्न समूहों के बीच सम्बंधों की मजबूती को बनाये रखती है। परन्तु ये विभिन्न मानव समूह आखिर कैसे निर्मित होते है? सरलतम समाजों में मनुष्यों की अपने घर की बेटियों के लिए दूसरे लोगों के बीच दूल्हा तलाश करने की प्रवृति काम करती है। इस प्रकार सभा बेटियाँ देने वाले और बेटियाँ स्वीकार करने वाले विविध सामाजिक समूह आकार ग्रहण कर लेते हैं और उनके बीच सम्बंध प्रगाढ़ होते चले जाते हैं। समान गोत्र में विवाह करने से बचने के पीछे जो मनोवैज्ञानिक व प्राकृतिक तर्क दिये जाते हैं, लैवी स्ट्रॉस का मानना है कि ऐसी मान्यताओं के पीछे एक ऐसी सांस्कृतिक रणनीति न्याय करती है जो समाज को बनाये रखने के लिए जरूरत है। सांस्कृतिक घटक भी सामाजिक संरचना का निर्माण करने तथा उसे बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
लैवी स्ट्रॉस का कहना है कि सबसे ज्यादा अलग-थलग पड़ी संस्कृति के विचार तथा मान्यताओं की द्विधारी पद्धति के विपरीतता के सिद्धांत के आधार पर व्याख्या की जा सकती है। अपने सुप्रसिद्ध निबंध, 'द बीयर एण्ड द बारबर (1936) में लैवी स्ट्रॉस ने यह स्पष्ट करने की कोशिश की है कि ऑस्ट्रेलिया की जनजाति अबोर्गिन्स' के लोग सीध सादे एक से स्वभाव वाले जो अब भी शिकार करने और पेट भरने के लिए भोजन सामग्री एकत्रित करने में विश्वास रखते हैं उन्हें टोटमवाद तोले वाद कैसे समझाया जा सकता है? एक संयुक्त समाज में मौजूद जातिप्रथा खेले की विविध बिधियां तथा भारत के नगरों में रहने वाले की नागरिकों की अर्थव्यवस्थता के बारे में कैसे समझाया जा सकता है। लेकिन यदि द्विधारी पद्धति की दोहरी प्रणालियों में से किसी एक के बारे में बताया जाये तो वह उन्हें अपनी अपनी भौतिक संरचना से भिन्न नहीं लगेंगे।
दोनों ही मामलों में, किसी समाज की आधारभूत आवश्यकताएं मनुष्यों के समूहों का निर्माण कर देती हैं जो आपस में अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए आदान-प्रदान करता, एक दूसरे का सहयोग करना आरम्भ कर देते है। मनुष्यों को तब तक आदान-प्रदान की जरूरत नहीं पड़ती जब तक कि वे किसी संस्कृति विशेष के प्रभाव में आ जाने से अपनी अलग पहचान नहीं बना लेते। टोटेमवाद एक विश्वास है जो मानव समूहों को प्राकृतिक गुणा प्रदान करता है जिसके कारण वे आपस में मिलकर रहते हैं। इसी तरह की प्रवृति पक्षियों, जानवरों, जल, वायु तथा बादलों की गर्जन में पाई जाती है।
यद्यपि दुर्खीड़म तथा ए आर रैडक्ल्फि ब्राऊन ने टोटेमवाद की क्रियात्मक रूप में व्याख्या की है। इन विद्वानों ने इसे सामूहिक चेतना का नाम दिया है। लैवी स्ट्रॉस की व्याख्या इससे बिल्कुल अलग है। लैवी स्ट्रॉस के आधारभूत सिद्धांत के अनुसार संस्कृति संपर्क का तरीका है। अपनी मूलभूत सैद्धान्तिक दायरे में लैवी स्ट्रॉस ने टोटेमवाद के बारे में कहा है कि “टोटेम एक सुन्दर सोच है।' जबकि इससे बिल्कुल अलग तरह की व्याख्या करते हुये रैडक्ल्फि ब्राऊन ने कहा है - “टोटेम को आत्मसात करना अच्छा है" | रैडक्लिफ के अनुसार टोटेम उन प्राकृतिक तत्वों के प्रतीक है जिनके सामाजिक मूल्य होते हैं। परन्तु लैवी स्ट्रॉस के अनुसार टोटेम ऐसे वर्ग आघारित लक्षण है जिनके आधार पर विभिन्न सामाजिक समूहों को अलग-अलग पहचाना जा सकता है।
ऑस्ट्रेलिया के अबोरिजिन समाज में सम्बंध गोत्र समाज की ऐसी आधार भूत विशेषताएं हैं जो विभिन्न सामाजिक समूहों को एक दूसरे से पृथक भी करती हैं और गोत्र के बाहर विवाह करने की सांस्कृतिक परम्परा द्वारा विभिन्न सामाजिक समूहों को एक दूसरे से बांधे भी रहती हैं। ऐसा माना जाता है कि एक गोत्र के सभी लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही पूर्वज से जन्में हैं। इसी कारण उनके बीच रक्त सम्बंध है. अतः वे आपस में विवाह नहीं कर सकते। आस्ट्रेलिया के अबोजिन समाज में सब एक जैसे हैं। आयु तथा लिंग के आधार पर उन्हें अलग-अलग करके देखा जा सकता है। इनमें विभिन्न गोत्रों या वंशों के समूह एक साथ रहते हैं। वे सब अपने आपको एक ही पूर्वज की संतान मानते हैं। इसलिए उनके गुण व स्वभाव एक जैसे हैं।
इस प्रकार प्रकृति गत विभिन्नताएं विभिन्न मानव समूहों को अलग-अलग पहचान देती है। मनुष्यों की प्रकृतियों के अन्तर मनुष्यों को खास पहचान प्रदान करते हैं। इनके आधार पर उन्हें अलग-अलग पहचाना जा सकता हैं अलग-अलग प्रकृतियों वाले मानव समूहों को उनके तुलनात्मक विश्लेषण के आधार पर अलग-अलग करके देखा जाता हैं। उड़ने वाले जीवधारी जमीन पर रहने वाले जीवधारियों से अलग होते हैं। मांसाहारी शाकाहारियों से अलग होते हैं। जलीय जीव अग्निजीवों से अलग तरह के होते हैं।
इस प्रकार सांस्कृतिक पृथकता मनुष्यों की प्रकृतिगत विभिन्नताओं से जन्म लेती है। स्त्रियों में कुछ ऐसी विशेषताएं होती हैं जिनके कारण वे पुरुषों से बहुत अलग होती है और अपनी इन्हीं विशेषताओं से वे ऐसी क्षमता प्राप्त करती है कि जहाँ जन्म लेती और पलती बढ़ती है वहां से विवाह के लिए उन्हें अलग हटना पड़ता है और दूसरे गोत्र के समाज में जाना पड़ता है। वे इस प्रकार के दो विभिन्न समाजों या सामाजिक समूहों या समुदायों के बीच सम्बंध सूत्र बन जाती है जो इन्हें सामाजिक बंधन में बांधे रखते हैं।
जिन समाजों में विभिन्न जातियों के लोग एक साथ रहते हैं उनमें मानव-समूहों के बीच सम्बंधों में जटिलताएं आ जाती हैं। ये सांस्कृतिक विभाजन से उजागर होती हैं, जैसे मजदूरी करने वाले लोगों के अलग समूह बन जाते हैं और दूसरी ओर उन लोगों के समूहो बन जाते हैं जो मजदूरी करवाने के लिए इन पर अश्रित हो जाते हैं। स्त्रियों की बीच प्राकृतिक समानता सांस्कृतिक विविधताओं के कारण व्यर्थ हो जाती है। जातीय पहचाने उन्हें भी अपने दायरों में खींच लेते है। इस प्रकार जातीय समूह अपना अलग स्थान बना लेते हैं और ऐसी स्थिति में स्त्रियों की पहचान उनकी प्रकृति से नहीं जा जाती अब वे सांस्कृतिक विविधताओं के आधार पर पहचानी जाती है। हर जाति की संस्कृति अलग- अलग होती है। कार्य के आधार पर बनने वाले मानव समूहों में रहने वाली स्त्रियों की पहचान कामों के आधार पर सुनिश्चित होने लगती है और सामाजिक सम्बंधों को सुदृढ़ बनाने का दायित्व सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों पर आ जाता है।
इस प्रकार लैवी स्ट्रॉस के अनुसार टोटेमवाद तथा जातिवाद दोनों का एक सा उद्देश्य होता है - मानव समूहों के बीच अंतरों व विरोधी को चिन्हित करना। ऐसी स्थिति में स्त्रियों का आदान-प्रदान गोत्रों के आधार पर होता रहता है और सेवाओं का जातीय अथवा कार्य-समूहों के आधार पर दोनों मामलों में सांस्कृतिक पहचाने अंतर पैदा करती हैं और वे अलग-अलग या विरोधी लगने लगते है, जबकि प्राकृतिक रूप से वे एक जैसे ही होते है। अंतः संस्कृति को अलगाव कारी माना जाता है। संस्कृति मस्तिष्क को संदेश भेजते है, जीवन-शैली या व्यवहार पद्धति नहीं। इस प्रकार संस्कृति को इस तरह से समझने का महत्व यह है कि इस तरह से संस्कृति के मिथकीय संदर्भ को एक तरफ हटा देता है और संस्कृति की संरचना पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित कर उसकी व्याख्या करता है और निष्कर्ष यह निकलता है कि सभी संस्कृतियों की संरचना एक जैसी ही है।
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