अनादिकाल से मानव का पर्यावरण से निकटतम सम्बन्ध रहा है परन्तु मानव ही अब इसके विनाश का कारण बन गया है। यदि हम अपने प्राकृतिक स्रोतों का उपयोग सन्तुलित रूप से करें तो हमारा पर्यावरण निश्चित रूप से सन्तुलित होगा। आज के वैज्ञानिक युग में विकास के साथ ही पर्यावरण प्रदूषण की समस्या खड़ी हो गई है और अब इसने महामारी का रूप धारण कर लिया है। लेखक ने इस स्थिति के कारणों का विश्लेषण करते हुये इसमें सुधार लाने में न्यायपालिका की भूमिका पर प्रकाश डाला है।
संविधान की धारा 21 के तहत जीवन के बचाव और निजी स्वतंत्रता को संरक्षण प्रदान किया गया है। जानवरों की तरह जिन्दा रहने को ‘जीवन’ की व्याख्या के सन्दर्भ में नहीं देखा गया है। सम्मानित जीवन के लिये आवश्यक आधारभूत तत्वों को जोड़कर ‘जीवन’ की संज्ञा दी गयी है। स्वच्छ पर्यावरण को भी सहज वातावरण में रहने की आदत के अधिकार के साथ जोड़ा गया है।
पिछले एक वर्ष में भारतीय न्यायपालिका ने पर्यावरण के मुद्दे को उतना ही महत्व दिया जितना वह मानवाधिकार के उल्लंघन को अब तक देती आई है। वस्तुतः पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से भारत के लिये 1995 तक एक नये दौर का प्रारम्भ हो चुका था और 1996 के आते-आते यह ‘जुडीशियल एक्टिविज्म’ में बदल गया।
पर्यावरण के सन्दर्भ में संविधान की मौलिक व्याख्या को लागू कराने के लिये जिन्दा रहने के अधिकार के साथ स्वच्छ वातावरण को भी जोड़कर चलना होगा। धारा 48ए और 51ए (जी) को भी आम व्यक्ति को जाग्रत करने के लिये शिकायत के तौर पर दर्ज करना होगा। इन दोनों धाराओं में कहा गया है कि पर्यावरण के महत्व और बचाव के प्रति राष्ट्रीय चेतना जगाई जाए। सरकार और नागरिकों की यह जिम्मेदारी है कि वे पर्यावरण का बचाव ही न करें बल्कि उसे सुधारें भी। धारा 48ए और 51ए(जी) नीत-निदेशक तत्वों के साथ-साथ लोगों की मौलिक जिम्मेदारी है हालाँकि वे कानूनी तौर पर बाध्य नहीं है। न्यायालय इसकी बारीकी से व्याख्या करते हुये इसका व्यापक अर्थ समझा सकते हैं तथा इसे धारा 14, 21 और 32 के साथ जोड़कर पर्यावरण सम्बन्धी अपराधों को दण्डनीय अपराध बना सकते हैं।
आज दूषित हवा के कारण छोटे बच्चों में साँस की बीमारियाँ बढ़ रही हैं ओजोन परत में छिद्र के कारण कैंसर रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है। सूक्ष्म विकिरण पृथ्वी पर सीधी पड़ रही हैं जिसे रोकने के लिये ओजोन परत अवरोधक का काम करती थी। नदियों में रेडियो-धर्मिता के तत्व बढ़ रहे हैं जिसके गम्भीर परिणाम कभी भी सामने आ सकते हैं। इसी के फलस्वरूप जीवनोपयोगी स्वच्छ जल की कमी होती जा रही है। इन सबके बगैर हमारा जीवन निरर्थक है और ये उपयोगी तत्व प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है। देर से ही सही न्यायालयों ने इन मुद्दों पर अपनी सक्रियता दिखाई है।
आज बड़े बाँधों, भीमकाय पावर जेनरेटर संयन्त्रों आदि को देश क लिये प्रथम वरीयता बताया जा रहा है जिसके चलते ग्रामीण भारत की सांस्कृतिक और पारम्परिक धरोहरों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। जंगलों और गाँवों का बड़े पैमाने पर दोहन हो रहा है। 0.18 प्रतिशत जंगल हर वर्ष लुप्त हो रहे हैं। 1854 में देश की पहली वन नीति बनी थी। उस समय वन क्षेत्र 40 प्रतिशत था। 1952 में आजादी के बाद की पहली वन नीति के समय यह घटकर 22 प्रतिशत रह गया। आज जब हम उपग्रहों के युग में प्रवेश कर चुके हैं, हमारे पास सिर्फ 13 प्रतिशत वन क्षेत्र बचे हैं।
न्यायमूर्ति चेनप्पा रेड्डी ने 1987 में एक फैसला देते हुये इस बात पर घोर आश्चर्य व्यक्त किया था कि इस आकाश और धरती को हम कैसे बेच सकते हैं। हम हवा की सुगंध और पारदर्शी स्वच्छ जल का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। क्या हम उसे कहीं से खरीद सकते हैं? एक अन्य फैसले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा कि पर्यावरण का बचाव संवैधानिक प्राथमिकता है। इसका उल्लंघन तबाही का कारण हो सकता है। स्वच्छ वातावरण मानवाधिकारों की परिधि में आता है।
1995 में जाने-माने वकील एम.सी. मेहता की अपील पर न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि जूता और ढलाई उद्योग से आगरा का पर्यावरण दूषित हो रहा है। अतः वहाँ पर्यावरण को बहाल करने के लिये इन उद्योगों को स्थानान्तरित किया जाए। उसी वर्ष मद्रास हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि चर्म इकाईयों को पर्यावरण सुधरने तक बंद कर दिया जाए। इसी तरह दिल्ली और उसके चारों तरफ बची-खुची अरावली पर्वतमाला में तुरन्त खनन बन्द कर उसे अवैध कब्जों से मुक्त कराने के आदेश सुप्रीमकोर्ट ने दिये हैं। इसी कड़ी में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी कहा है कि प्रदूषण फैलाने वाले सभी उद्योगों की एक सूची बनायी जाए। गुजरात हाईकोर्ट ने निर्देश दिये हैं कि उन कैमिकल्स इकाईयों को तुरन्त बन्द कर देना चाहिये जो अपना रसायन नदियों में बहा रही हैं और यही रसायन रिसकर जमीन के अंदर पानी में मिलकर पीने के पानी को दूषित कर रहा है।
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