द्वंद्वन्याय दृष्टिकोण का मुख्य केन्द्रबिंदु इन पर रहा -(क) इन घटकों के बीच संबंध; तथा (ख) सामाजिक संबंधों की समग्रता और उन घटकों की इस समग्रता का संबंध। द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण इस बात से भी सरोकार रखता है कि सामाजिक परिघटनाएँ किस प्रकार देश व काल में एक-दूसरे से एक द्वंद्वात्मक संबंध में विद्यमान होती हैं।
मार्क्स ने हीगल के द्वंद्व-न्याय संबंधी विचारों को स्वीकार किया परंतु वे विचारों पर बल दिए जाने से सहमत नहीं थे। विचारों के स्थान पर मार्क्स ने भौतिक बलों की प्रस्तुत कीं और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की अवधारणा को विकसित किया। मार्क्स ने पूँजीवादियों और सर्वहारा वर्ग के बीच द्वंद्वात्मक संबंध पर बहुत सावधानी से विचार किया। साथ ही उन्होंने समाज में परिवर्तनों के द्वंद्वात्मक इतिहास का संबंध आदिम से लेकर सामंती से होते हुए पूँजीवादी समाज से भी जोड़ा। इसके अलावा, द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण यह विचार लेकर चलता है कि समाज के विभिन्न पहलू निरंतर एक-दूसरे से संघर्षरत रहते हैं। इस व्यवस्था का अनुसरण कर, मार्क्स ने पूँजीवादियों और सर्वहारा वर्ग के बीच विरोधाभास देखा। उनका मानना था कि जबकि पूँजीवाद का नितांत आधार कामगार वर्ग का शोषण है, यही शोषण कामगार वर्ग के लिए विद्रोह करने और पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने हेतु परिस्थितियाँ पैदा करेगा।
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