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मार्क्स की “अलगाव” की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

 अलगाव का शाब्दिक अर्थ है "अलग होना”। साहित्य में यह शब्द अक्सर प्रयुक्त हुआ है लेकिन मार्क्स ने इसे समाजशास्त्रीय अर्थ दिया है। मार्क्स का अलगाब की अवधारणा से अभिप्राय ऐसे समाज की संरचना से है जिससे उत्पादन के साधनों से उत्पादक वंचित रहता है तथा जिसमें “निर्जीव श्रम” (पूंजी) का “जीवित श्रम” (श्रमिक) पर प्रभुत्व होता है। आइए हम जूते बनाने के कारखाने के एक मोची का उदाहरण लें। यह मोची जूते तो बनाता है लेकिन उनका अपने लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता। उसकी बनाई हुईं रचना (जूता) एक ऐसी वस्तु बन जाती है जो उससे अलग हो जाती है। यह वस्तु एक ऐसा रूप ले लेती है जो उसके बनाने वाले से पृथक हो जाती है। वह अपनी काम करने तथा सजून करने की अन्तःप्ररेणा को संतुष्ट करने के लिए जूते नहीं बनाता अपितु अपनी जीविका कमाने के लिए ऐसा करता है। कारीगर के लिए वस्तु का पृथक रूप धारण कर लेना और भी गहरा हो जाता है जब कारखाने में उत्पादन प्रक्रिया अलग अलग हिस्सों में बांट दी जाती है तथा कारीगर के हिस्से में एक पूरे काम (जूता बनाना) को छोटा सा हिस्सा ही आता है। इस तरह वह जूता बनाने के किसी एक भाग पर काम करने की गतिविधि (जैसे सिलाई अथवा कटाई आदि) में लगा रहता है। उसका काम मशीन जैसा हो जाता है तथा वह सोच समझ से काम करने की क्षमता को खो देता है।

मार्क्स ने 'फटिशिज़्म ऑफ कमोडिटीज एण्ड मनी शीर्षक के अंतर्गत क्ँपीटल (1861-1679) में इस अवधारणा को विस्तृत एवं व्यवस्थित व्याख्या दी है। परन्तु इस अवधारणा की नीतिशास्त्रीय बुनियाद 1844 में रखी गई इस समय मार्क्स ने “राज्य” एवं “धन” की पूर्ण रूप से आलोचना की, इन्हें अस्वीकृत कर दिया तथा सम्पूर्ण समाज के उद्धार का "ऐतिहासिक मिशन” सर्वहारा वर्ग को सौपा। माक्संवादी अर्थ में अलगाब एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से (अथवा जिस स्थिति में) एक व्यक्ति, एक समूह, एक संस्था, अथवा एक समाज निम्न के प्रति अलगावित हो जाता है (अथवा अलगावित बना रहता है):

अ) अपने कामों के परिणामों अथवा उत्पादों के प्रति (तथा क्रियाओं के प्रति), और / या

ब) उस प्राकृतिक वातावरण के प्रति जिसमें वह रहता है, और,/ या

स) अन्य व्यक्तियों के प्रति, तथा इसके अतिरिक्त (अ) से (स) तक किसी एक अथवा सभी के प्रति

द) स्वंय के प्रति (स्वयं की ऐतिहासिक रूप से सृजित मानवीय संभावनाओं के प्रति)।

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