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सामाजिक शोध में नैतिकता के महत्व पर चर्चा कीजिए।

 सामाजिक विज्ञान का नीति विषयक मुद्दों से पुराना सरोकार रहा है। अधिकांश समाजशास्त्रीय शोध के लिए सूचना के स्रोत स्वरूप जनसामान्य का ही प्रयोग किया जाता है। ये लोग या तो सर्वेक्षण प्रश्नों के उत्तददाता - अवलोकन की विषय-वस्तु - हो सकते हैं या फिर परीक्षणों में सहभागी। भौतिकी या रसायन शास्त्र की विद्याशाखाओं में शोधकर्ताओं से भिन्‍न (जो निर्जीव, निष्क्रिय सामग्री से क्रिया-व्यापार करते हैं), समाजशास्त्रियों का सरोकार मनुष्यों से होता है। यही कारण है कि समाजशास्त्रियों को अपने अध्ययनाधीन लोगों के प्रति संवेदनशील होने की आवश्यकता होती है। तदनुसार, शोध अध्ययन के दायरे में रहकर लोगों को किसी भी दुरुपयोग और क्षति से बचाने के लिए अनन्य संवेदनशीलता और अभिज्ञता की आवश्यकता होती है। समाजशास्त्रियों के नैतिक विचार न सिर्फ उनके द्वारा प्रयुक्त विधियों में और उनके द्वारा स्वीकृत वित्त-पोषण में, बल्कि उस तरीके मे भी निहित होते हैं जिससे वे अपने परिणामों की व्याख्या करते हैं। अतः नैतिकता का समावेश किसी भी शोध के सभी चरणों में किया जाना चाहिए।

समस्त शोध प्रक्रिया - शोध प्रक्रिया का चयन किए जाने से लेकर शोध लक्ष्य हासिल किए जाने और शोध परिणामों की व्याख्या एवं आख्या किए जाने तक - में नैतिकता को समाहित किया जाना यह सुनिश्चित करने के लिए अत्यावश्यक है कि शोध प्रक्रिया सूचित स्वीकृत के परे नैतिक सिद्धांतों से निर्देशित हो।

हमेशा ही शोधकर्ता उन समुदायों एवं समाजों के प्रति अपने दायित्वों के प्रति सचेत रहें जिनमें रहकर वे काम करते हैं, और जनता की सेवा करने का प्रयास करते हैं। शोधकर्ताओं का लक्ष्य शोध के लाभ अधिकतम करना और सहमभागियों एवं शोधकर्ताओं के संभावित जोखिम अथवा नुकसान को न्यूनतम करना होना चाहिए। सभी प्रकार के हानिभय या अहित को सुदृढ़ पूर्वोपाय कर कम किया जाना चाहिए। शोध की स्वतंत्रता कायम रखी जानी चाहिए और शोधकर्ताओं, निधिकरण अथवा अधिकार-प्राप्त निकाय की ओर से किसी भी हित संघर्ष अथवा पक्षपात को किसी भी विशिष्ट शोध परियोजना के आरंभ होने से पूर्व और ,/ अथवा उसके दौरान स्पष्ट किया जाना चाहिए।

नैतिकता का मुद्दा सामाजिक शोध के संदर्भ में महत्वपूर्ण भी है और जटिल भी, जिसके दो कारण हैं - प्रथम, शोध प्रक्रिया में अनेक हितधारक होते हैं और उन सभी के प्रति शोधकर्ता का दायित्व होता है। इस दायित्व में शोध किए जाते समय और आँकड़े प्रस्तुत किए जाते समय नैतिक आचरण बनाए रखा जाना शामिल होता होता है। आइए, इस मुद्दे को निकट से देखें।

प्रारंभ में शोधकर्ता का दायित्व उन लोगों के प्रति होता है जिन्हें वह अध्ययन किए जाने के लिए तय करता है। साथ ही, उसका दायित्व शोध कार्य का वित्तपोषण करने वाले निकाय (यदि कोई हो) तथा अपने उन सहयोगियों एवं अन्य शोधकर्ताओं के प्रति होता है जो इस शोध कार्य से परामर्श प्राप्त करेंगे।

दूसरा कारण है - अध्ययन के परिणाम कदाचित वर्तमान ज्ञानपुंज में वृद्धि करेंगे। इस अध्ययन का प्रयोग नीति-निर्माताओं द्वारा भी किया जा सकता है। ऐसा कोई भी शोध जो नीतिशास्त्र सम्मत न हो, श्रांतिजनक हो सकता है। शोध में नैतिकता उन लोगों के प्रति उत्तरदेयता को अपरिहार्य कर देती है जिन्होंने शोधकार्य में और साथ ही किसी के शोध परिणामों में योगदान किया हो। चलिए, एक समाजशास्त्री का उदाहरण लेते हैं, जो कि शोधकर्ताओं के एक दल का प्रमुख है। मान लीजिए कि वह दिल्‍ली में युवक-युवतियों में नशाखोरी के मुद्दे पर काम करता है। अब सबसे पहले उसे अपने दल के सदस्यों का कल्याण सुनिश्चित करना होगा, जैसे उन्हें अच्छा वेतन मिले और समय पर मिले। वह सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक वातावरण जिसमें रहकर वे कार्य करेंगे, उनके स्वास्थ्य के अनुकूल होना चाहिए। कभी ऐसी स्थिति भी आ सकती है जब शोधकर्ता को लगता हो कि कोई गतिविधि शोध कार्य के लिए उपयोगी हो सकती है परंतु शोधकर्ताओं के उस दल के लिए नहीं। समाजशास्त्रियों को दल की सुरक्षा और शोधकार्य आगे बढ़ाने के बीच नैतिक दुविधा का सामना करना पड़ता है। (शोधकर्ताओं के दल के स्वास्थ्य को ताक पर रखकर)। इसके अलावा, समाजशास्त्री को सूचनादाताओं की पहचान बचाने के नैतिक मुद्दे का भी सामना करना पड़ता है। ऐसी संभावना होती है कि सामाजिक कार्यकर्ता अथवा पुलिस सूचनादाताओं की पहचान का सुराग लगा लें। शोधकर्ता को उनकी पहचान उजागर कर देने अथवा छिपाकर रखने की नैतिक दुविधा का सामना करना पढ़ता है। तीसरी दुविधा जो समाजशास्त्री के सामने आती है, आँकड़ों की प्रस्तुति से संबंध रखती है। प्रायः सूचनादाता ऐसी सूचना दे देते हैं जो वे सार्वजनिक नहीं करना चाहते हैं। सूचनादाताओं की गोपनीयता को ध्यान में रखते हुए समाजशास्त्री का नैतिक दायित्व ऐसी सूचना (जो कि उसे बहुचर्चित करवा सकती है) के प्रति भी होता है।

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