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पूँजीवाद के विकास में धर्म की भूमिका पर चर्चा कीजिए।

 वेबर तर्क संगतिकरण की इस धारणा का प्रयोग धर्म, विज्ञान, कला, प्रशासन और राजनीति में परिवर्तन को समझने के लिये करते हैं। वेबर मानते हैं कि पूँजीवाद का जन्म आर्थिक क्षेत्र के तर्कसंगतिकरण की उच्चतम कोटि से हुआ।

वेबर मानते हैं और सिद्ध करते हैं कि विचार विकास की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते हैं। पूँजीवाद के विकास में प्रोटेस्टैंट पंथों के विचारों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। मैक्स वेबर द्वारा रचित 'प्रोटेस्टैंट एथिक एंड स्पिरित ऑफ कैपिटलिज्म' 1904 और 1905 के बीच जर्मन भाषा में प्रकाशित हुआ। तब से यह दुनिया भर के समाज वैज्ञानिकों के लिये चर्चा का विषय बना है। खासतौर पर दूसरे महायुद्ध के बाद तीसरी दुनिया (विकासशील देशों) के विद्वान भी इस चर्चा में हिस्सा लेने लगें।

i) पूरब और पश्चिम

वेबर ने पाया कि पूर्वी देशों की अपेक्षा पश्चिमी देशों में तर्कसंगतिकरण का अधिक विकास हुआ है। आइए विज्ञान का उदाहरण लें। वेबर कहते हैं कि पश्चिमी सभ्यता में ही विज्ञान विकास के उच्च चरण तक पहुँचा है। वह स्वीकार करते हैं कि भारत, चीन और मिश्र (इजिप्ट) में ज्ञान की महान परंपरा थी, फिर भी प्रयोग की पद्धति के अभाव में वे पिछड़ गए। संगीत, वास्तुशिल्प, न्यायव्यवस्था, छपाई,/मुद्रण, दफतरशाही पूँजीवाद जैसे अनेक क्षेत्रों में तर्कसंगतिकरण की मात्रा पश्चिम में अधिक है। तर्कसंगत पूँजीवाद के उदय से संबद्ध तीन मुद्दों पर वेबर ध्यान देते हैं: प्रथम "स्वतंत्र श्रमिकों की तर्कसंगत पूँजीवाद व्यवस्था, दूसरा “व्यवस्थित बाजार की और केंद्रित तर्कसंगत औद्योगिक व्यवस्था", तीसरा “वैज्ञानिक जानकारी का तकनीकी उपयोग” और लागत प्रभावी अनुमान लगाना, हिसाब किताब रखना, बकाया निकालना और उनका मानना है कि ये सब पूँजीवादी व्यवस्था की विशेषताएँ है। पूँजीवाद के उदय से पहले जादुई और धार्मिक शक्तियों को अधिक महत्व दिया जाता था। प्रोटेस्टेंट धर्म ने ऐसी आर्थिक मनोवृत्ति को पैदा किया जिससे तमाम पारस्परिक जादुई धार्मिक शक्तियों विश्वासों का पतन हुआ और पूँजीवाद को पनपने का मौका मिला।

ii) कैथोलिक एवं प्रोटेस्टैंट

कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट अनुयायी अपनी धार्मिक मान्यताओं से अत्यंत प्रभावित थे, और इन्हीं के बल अपना पेशा और शिक्षा चुनते थे। ऑकड़ों का जिक्र करते हुए वेबर बताते है कि प्रोटेस्टैंट अनुयायी अपने बच्चों को तकनीकी, औद्योगिक और वाणिज्यिक शैक्षिक संस्थाओं में भेजते थे। जबकि कैथोलिक बच्चे मानविकी पढ़ते थे। अधिकतर कुशल कारीगर और प्रशासक प्रोटेस्टैंट ही थे।

iii) पूँजीवादी मनोवृत्ति

प्रोटेस्टैंट धर्म, विशेषतः कैल्विनिजम ने एक ऐसी आर्थिक मनोवृत्ति दी जो पूँजीवाद के पनपने में सहायक रही। “आर्थिक मनोवृत्ति के मायने हैं कार्य करने की वे व्यावहारिक प्रेरणाएँ जो धर्म के मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक परिवेश से जुड़ी हुई हैं।” (वेबर 1952:267) बैजामिन फ्रैक्लिन के कुछ उपदेश जैसे “समय धन है” “साख धन है” “पैसे से पैसा पैदा होता है" में यति प्रोटेस्टैंट वाद का सार है। प्रायः पारम्परिक समाजों में लोग आजीविका के लिये कमाया करते थे। पर प्रोटेस्टैंटवाद में कमाना अपने आप में गुण बन गया, कमाना अपने व्यवसाय में कौशल का प्रमाण बन गया। प्रोटेस्टैंटवाद के आगमन के बाद लोगों ने भरपूर कमाया पर हाथ खोल कर खर्च नहीं किया। उन्होंने कठोर परिश्रम किया पर ऐश नहीं की। पूँजीवाद मनोवृत्ति की जड़ें यदि प्रोटेस्टैंटवाद में थीं, जिसके अधिकतर अनुयायी औद्योगिक मध्यम वर्ग के उभरते हुए लोग थे।

iv) व्यवसाय करने की भावना

व्यवसाय और श्रम के मायने कैथोलिकवाद, लूथरवाद और कैल्विनवाद में भिन्‍न रहे है। कैथोलिक चर्च के लिये व्यवसाय के मायने थे जग को त्यागना और सन्यास लेना, जबकि लूथर के अनुसार इसका मतलब था अपनी जिम्मेवारियों को निभाना। कैथोलिकवाद के अनुसार श्रम 'स्वार्थ का फल" है जबकि लूथरवाद इसे “बंधु-भाव की अभिव्यक्ति” मानते हैं। लूथर ने कहा कि श्रम विभाजन के कारण प्रत्येक व्यक्ति को दूसरों के लिये काम करना पड़ता है। लूथर के विचार में व्यवसाय का मतलब यही है हर व्यक्ति जग में अपने स्थान को स्वीकार करे, अतः उसकी आर्थिक मनोवृत्ति विकासवादी नहीं थी। पर कैल्विन द्वारा दी गई “व्यवसाय” की अवधारणा और "पूर्वनियति के नियम ने पूँजीवाद के विकास को बढ़ावा दिया, खासतौर पर हॉलैंड, नीदरलैंडस, स्विटजरलैंड जैसे देशों में।

v) कैल्विनवाद और जग से जुड़ी हुई तपस्या

कैल्विनवादी विचारधारा से उत्पन्न पूँजीवादी मनोवृत्ति को समझने के लिये पूर्वनियति का नियम समझना अत्यावश्यक है। इस नियम के अनुसार ईश्वर कुछ लोगों को मोक्ष देता है और कुछ को नरक दण्ड। कैल्विन कहते हैं कि ईश्वर की मर्जी जानना असंभव है, और मनुष्य को इसे जानना भी नहीं चाहिये। जिन लोगों को ईश्वर ने नहीं चुना है, वे कभी भी उसकी कृपा नहीं पा सकेंगे, चाहे वे कुछ भी करें। अपनी आस्था सिद्ध करने के लिये मनुष्य को यह मानकर चलना चाहिये कि ईश्वर ने उसे चुना है, और ईश्वर की महिमा के लिये उसे कठोर परिश्रम करना चाहिये।

पूर्वनियति के नियम के कई सामाजिक मनोवैज्ञानिक असर है। पहले यह है कि व्यक्ति बिल्कुल अकेला हो जाता है, क्योंकि उसके और ईश्वर के बीच मध्यस्थता कोई नहीं कर सकता है, न पुजारी न पंथ। दूसरा यह कि व्यक्ति को मोक्ष का रास्ता स्वयं ढूँढना पडता है, क्योंकि उसके लिये मंत्र, कर्मकांड आदि जादुई रास्ते बंद है। ऐसे में हर अति “धर्मनिष्ठ: खुद से यह सवाल पूछता है “क्या ईश्वर के चुने हुए लोगों में से मै एक हूँ: लेकिन इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है, अपने कर्मों द्वारा भी इन्सान इस बात को जान नहीं सकता है कि ईश्वर ने उसे चुना है या नहीं।

अति धर्मनिष्ठ के पास एक ही मार्ग बचता है, उसे इस बात पर विश्वास करना पड़ता है कि ईश्वर ने उसे चुना है। इस बात पर विश्वास करते हुए उसे सारे सांसारिक सुखों को त्यागकर हर प्रलोभन का सामना आत्मविश्वास के साथ करना पड़ता है। आत्मविश्वास पाने का एक मात्र रास्ता है ईश्वर की महिमा के लिये परिश्रम करना। ऐसा करने से यह स्थापित होता है कि ईश्वर परिश्रमी, आत्मविश्वासी और तपोमय प्यूरिटन के द्वारा काम कर रहा है। मोक्ष की निश्चितता धर्मनिष्ठ को स्वयं सिद्ध करनी पड़ती है, और जीवन का हर कदम संभल कर उठाना पढ़ता है, क्योंकि वह जानता है कि यदि वह चूक गया तो पश्चाताप और प्रायश्चित के लिए कोई जगह नहीं है। प्यूरिटन स्वयं पर नियंत्रण रखता है और कठोर परिश्रम करके अपने उस विश्वास को प्रदर्शित करता है कि वह ईश्वर द्वारा चुने हुए लोगों में से है।

जब अति धर्मनिष्ठ श्रम करके खूब सारा पैसा कमाता है और फिर भी ऐयाशी से दूर रहता है, तब स्वाभाविक रूप से पूँजी इकद्ठी होती है। इस पूँजी का पुनः निवेश होता है। वेबर बताते हैं कि हॉलैंड जैसे देशों में इसी प्रक्रिया को देखा गया है। अन्य प्रोटेस्टैंट पंथों में, जैसे कि पायटिज्म, मेथोडिज्म की तुलना में इन पंथों द्वारा उत्पन्न आर्थिक मनोवृत्ति अधिक प्रभावशाली नहीं थी।

इस प्रकार, प्रोटेस्टैंट पंथों की आर्थिक मनोवृत्ति थी, जिससे पश्चिम यूरोप के देशों में पूँजीवाद के पनपने में सहायता हुई।

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