देसी रियासतों में राजनीतिक गोलबंदी मुख्य रूप से तीन अलग-अलग चरणों में हुई-
(1) प्रथम चरण में गोलबंदी कुछ विशिष्ट स्थानीय समस्याओं, जैसे-रियासत की प्रशासनिक सेवाओं में ढेर सारे “बाहरी लोगों” की नियुक्ति तथा प्रेस और संगठन की स्वतंत्रता का अभाव आदि पर हुई। इस चरण में इस तरह की माँगों के पीछे नव-उदीयमान शहरी शिक्षित समूह थे तथा माँगों की अभिव्यक्ति का मुख्य तरीका आवेदन था। त्रावणकोर में उनन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ही यह चरण प्रत्यक्ष होने लगा था हालाँकि अन्य रियासतों में इसके लक्षण 1910 और 1920 के दशक में उभरने शुरू हुए। 1910 के दशक में रियासतों की शहरी शिक्षित प्रजा ने कुछ जगहों पर प्रजा मंडल या लोक परिषदों का गठन किया। आमतौर पर इन कदमों के पीछे ब्रिटिश भारत में शिक्षित लोग हुआ करते थे।
(2) 1920 के दशक के उत्तरार्धथ और 1930 के दशक के पूर्वार्ध में दूसरा चरण सामने आया। अब आवेदन से आगे बढ़कर जनता के शहरी शिक्षित वर्ग द्वारा सड़क पर किए गए प्रदर्शनों के रूप में प्रत्यक्ष संघर्ष (जार) और सार्वजनिक विरोध शुरू हो गए। इस दौर में मुख्य माँगें वृहत्तर जन प्रतिनिधित्व और राजनीतिक संगठन बनाने का कानूनी अधिकार थीं। 1920 और 1930 के दशक में ऐसे संगठन भावनगर, गोंडल, जूनागढ़ और ज्यादातर राजपूताना क्षेत्रों में पैदा हो गए। पंजाब में पंजाब रियासती प्रजा मंडल का निर्माण हुआ। 1920 के दशक के उत्तरार्ध तक अनेक प्रांतों में अधिक सक्रिय आंदोलन का दौर शुरू हो गया।
(3) 1930 के दशक के उत्तरार्ध और समूचे 1940 के दशक के दौरान तीसरे चरण में किसानों की हुई गोलबंदी इस समय का प्रधान पहलू बन गई। असल में किसान आधारित आंदोलन साथ-साथ विकसित हुए। शहरीह शिक्षित मध्यवर्गाय गोलबंदी के साथ ही इनका विकास हुआ लेकिन किसान आंदोलनों और शहरी राजनीति के बीच बहुत सीधा सॉंगठनिक संबंध नहीं था। ग्रामीण इलाकों में विरोध आंदोलन का सबसे मुखर समर्थक मध्य जातियों के किसान बने। 1920 के दशक में उदयपुर में बिजौलिया के जागीरदारों के विरुद्ध किसानों और आदिवासियों के आंदोलन: हुए॥मनमाने टैक्स, सामंती खिराज और बेगार आदि इस आंदोलन के प्रमुख मुद्दे थे। बहरहाल 1930 के दशक में जाट किसान सभाओं ने राजपूताना रियासतों में आर्थिक शिकायतों के अलावा रीति-रिवाज की स्थिति पर भी ध्यान दियां और हाथी, घोड़ा और ऊँट पर चढ़ने की राजपूतों के विशेषाधिकार को चुनौती दी।
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