ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस के प्रति उद्योगपतियों के रवैये का एक विशेष स्वरूप था। शांतिपूर्ण वातावरण में वे खुलकर राष्ट्रीय महत्त्व के सवालों पर कांग्रेस का समर्थन करते थे जबकि जन आंदोलनों के समय वे बेहद हिचकते थे और सरकार के पक्ष में दिखना चाहते थे। हालाँकि 1920 के दशक के बाद से ही कांग्रेस को पूँजीपतियों का समर्थन तरह-तरह से मिलता रहा था लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पँजीपतियों ने कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों को प्रभावित किया। जो भी थोड़ा बहुत प्रभाव था वह कांग्रेस के रूढ़िवादी हिस्से तक सीमित था। कांग्रेस की लोकप्रिय दिशा और विशाल संगठन के कारण वह सीधा पूँजीपति-समर्थक रवैया नहीं अपना सकती थी। हालांकि व्यवसायियों ने कांग्रेस फंड में चंदा दिया लेकिन वे इसकी नीतियों को निर्धारित नहीं करते थे। जो भी हो कांग्रेस के कुल फंड में उनका योगदान अपेक्षाकृत कम था। इसके अतिरिक्त कांग्रेस के प्रति पूँजीपतियों के अस्थिर रवैये के चलते वे कांग्रेस की नीतियों को तय करने की वास्तविक हेसियत में नहीं थे। अगर कांग्रेस विकास के पूँजीवादी रास्ते पर आगे बढ़ी तो ऐसा पूँजीपतियों के किसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दबाव की वजह से नहीं हुआ, बल्कि यह उनकी अपनी विचारधारा का नतीजा था।
औपनिवेशिक सरकार की अनुचित आर्थिक नीतियों का जवाब देने हेतु उनका मुकाबला करने के लिए भारतीय उद्योगपतियों ने कांग्रेस की मदद लेनी चाही। बहरहाल आमतौर पर जनता में उधल-पुथल और खासतौर पर औद्योगिक असंतोष के भय ने ही उन्हें कांग्रेस के लिए पूर्ण समर्थन देने से रोका। उदाहरण के लिए, 1920 के दशक में जहाँ एक ओर ठाकुरदास ने कांग्रेस का विरोध करते हुए एक नरमपंथी राजनीतिक वातावरण तैयार करने हेतु लिबरलों का सक्रिय सहयोग माँगा, वहीं।दूसरी ओर बिडला ने कांग्रेस को पूर्ण समर्थन दिया।
भारतीय पूँजीपति नरमपंथी संवैधानिकता और औद्योगिक विकास के लिए अनुकूल नीतियाँ चाहते थे। अत: 1920 के दशक के पश्चात् उनके द्वारा अधिकतर राष्ट्रीय आंदोलनों का तो समर्थन किया ही गया लेकिन साथ ही संघर्ष के संवैधानिक रूपों और समस्याओं को सुलझाने के लिए समझौता वार्ताओं का-पक्ष भी लिया गया। कांग्रेस और औपनिवेशिक सरकार के बीच उन्होंने तालमेल बिठाना चाहा ताकि मूलगामी जन उभार का डर दूर हो सके। आमतौर पर वे दीर्घकालीन जन-संघर्ष के विरोधी थे क्योंकि इससे क्रांतिकारी ताकतों को सामने . आने का अवसर मिलता जो पूँजीवाद के लिए खतरा था। जो आंदोलन सरकार से दुश्मनी मोल लेता और. व्यावसायिक गतिविधियों को बाधित करता, पूँजीपति ऐसे लंबे समय तक चलने वाले आंदोलन के पूरी तरह खिलाफ थे।
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