संगम साहित्य-प्रारंभिक तमिल ग्रंथों का लेखन संगम साहित्य कहलाता है। संगम साहित्य के प्रारंभिक ऐतिहासिक काल की जानकारी का मुख्य स्रोत माना जा सकता है। यह नाम इसे “संगम' से प्राप्त हुआ है। जहाँ इस साहित्य की रचना अथवा इसका संकलन हुआ था।
संगम-तमिल परंपरा के अनुसार, तीन संगम युग थे। प्रत्येक का दौर हजारों वर्ष तक रहा। इन संगमों को पंड्या शासकों का संरक्षण प्राप्त था। इस संगम की क्रियाविधि एक अकादमी और सभा के रूप में थी। वहाँ अनेक कवि उपस्थित थे। तीसरे संगम युग की रचनाएँ प्रारंभिक मध्य काल में संकलित हुई थीं। कहा जाता है कि पहले दो संगमों में रचित सभी तमिल कृतियों का लोप हो चुका है।
संगम साहित्य प्राचीन तमिलों का मौखिक चरण साहित्य है। इसकी अधिकांश रचनाएँ उन चरणों और कवियों के द्वारा रचित की गयीं, जो राजाओं की प्रशंसा करते और बदले में राजाओं का संरक्षण प्राप्त करते थे।
महत्त्व- 1. ये रचनाएँ उन कवियों के भावात्मक उदगार हैं।
2. इस साहित्य में प्राप्त महत्त्वपूर्ण जानकारी की सहायता से प्रारंभिक ऐतिहासिक तमिल देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक इतिहास के सम्बन्ध में पर्याप्त रूप से ज्ञात किया जा सकता है।
3. इन कविताओं में स्थितियों का वर्णन काव्य की परंपराओं के अनुसार होता था तथापि इन कवियों ने वास्तविक जीवन की स्थितियों और समाज में घटित होने वाली घटनाओं को अपनी उपमाओं, रूपकों और अन्य कूटों और प्रतीकों का आधार बनाया है। प्रतीकों और कूटों में छिपे गूढ़ अर्थ स्पष्ट नहीं हैं।
4. इन प्रतीकों और कूटों का सतर्कतापूर्वक विश्लेषण कर उनसे महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो सकती है।
तोलकप्पियम-व्याकरण ग्रंथ-तोलकप्पियार ने प्राचीन तमिल व्याकरण ग्रंथ तोलकप्पियम की रचना की थी। वे पौराणिक ऋषि अगस्त्य के शिष्य थे। तोलकप्पियम में तमिल साहित्य की रचना के नियम विनियम हैं। तोलकप्पियम के निम्न तीन भाग हैं-
(i) प्रथम-एलुत्ततिकरम अर्थात् वर्तनी
(ii) द्वितीय-चोल्लतिकरम
(iii) व्युत्पत्ति और
(iv) वाक्य संरचना
(iii) तृतीय-पोरुलतिकरम
(i) अकम अर्थात् आंतरिक जीवन
(ii) पुरम अर्थात् बाहय जीवन और
(iii) पिंगल
तोलकप्पियम के रचनाकाल के विषय में मतैक्य का अभाव है। कुछ विद्वान इसकी रचना ईसवी युग के प्रारंभ की मानते हैं, जबकि अन्य विद्वान इसका रचना काल पाँचवीं शताब्दी ईसवी में बताते हैं।
पाथिनेनममेलकनक्वकु ये अठारह प्रमुख रचनाएँ हैं।
पाथिनेनममेलकनक्वकु (अठारह गौण रचनाएँ)-इन अठारह शिक्षा-प्रद गौण रचनाओं का काल 'मेलकनक्कु' की रचनाओं से बाद का है। इस पर मेलकनक्कु की रचनाओं का प्रभाव कम है तथा प्राकृत और संस्कृत की सांस्कृतिक परंपराओं का प्रभाव अधिक दिखाई देता है। इन रचनाओं में जैन और बौद्ध धर्मों का भी प्रभाव है, उनमें प्रायः राजाओं और लोगों के लिए आचार संहिताएँ दी गई हैं। “किलकनक्कु' साहित्य को चौथी पाँचवीं शताब्दी ईसवी में रचा गया था। उस समय तमिल देश का शासक कलाशभ्र था। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध रचनाएँ तिरूवल्लुवर द्वारा रचित मुप्पल और तिरूकुरल हैं। इनके विषय इस प्रकार हैं-
(i) दर्शन और
(ii) सूक्तियाँ।
ये अठारह गौण रचनाएँ हैं--
(1) नलादियार,
(2) नानमणि कदिगै,
(3) पालामोलि नानुरू,
(4) ऐंतिने एलुपथु,
(5) ऐंतिने ऐम्बथु,
(6) तिने मलै नुर्रम्बथु,
(7) आचारकोवै,
(8) तिनैमोलि ऐम्बथु,
(9) मुप्पल (तिरूकुरल),
(10) तिरिकदुगम,
(11) चिरूपंचमूलम,
(12) कालवलि नरपथु,
(13) इन्ना नरपथु,
(14) इनियावै नरपथु,
(15) कर नरपथु,
(16) कैनिलै,
(17) इन्निलै, और
(18) एलादि।
2. विदेशी विवरण-पहली शताब्दी ईसवी में रचित “पेरिप्लस मारिस ऐरिश्रेई' (द पेरिप्लल ऑफ इरीथ्थियनस) भारत-रोमन व्यापार का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इस रचना का अज्ञात लेखक एक यूनानी व्यापारी अथवा मिस्र का नाविक था। इस रचना में प्रारंभिक ऐतिहासिक काल के भारत के प्रमुख बंदरगाहों और नगरों का तथा भारत-रोमन व्यापार की वस्तुओं का उल्लेख है।
रोमन लेखक प्लिनी, ज्येष्ठ (23-79 ईसवी) के विवरण भी भारत-रोमन व्यापार के ज्ञान के सम्बन्ध में सहायता मिलती है। प्लिनी ने रोम में मसालों की मांग के कारण रोमन साम्राज्य को धन की निकासी के सम्बन्ध में कहा है। ये विवरण भारत-रोमन व्यापार के विषय में ज्ञान प्राप्ति हेतु सहायक है।
क्लॉडियस टॉलेमी की रचना ज्योग्राफिया, भारत रोमन व्यापार के विषय में ज्ञान प्राप्त करने का एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोत है। यूनानी टॉलेमी मिस्र की रोमन राजधानी ऐलिग्जैंडिया में निवास करता था। वह 27 से 50 ईसवी तक ऐलिग्जैंडिया के प्रसिद्ध पुस्तकालय का प्रमुख था।
3. पुरातात्विक सामग्री-पुरातात्विक प्रमाणों में महापाषाणयुगीन निम्न वस्तुएँ सम्मिलित हैं-
(i) अंत्येष्टि (शवाधान) अथवा स्मारक,
(ii) सिक्के, और
(iii) खुदाई में मिले स्थल, विशेषकर शहरी केद्र।
(1) शवाधान-महापाषाणयुगीन अंत्येष्टि (शवाधान) स्मारक वस्तुत: पूर्वजों की पूजा हेतु बनाए गए थे। महापाषाण का अर्थ है। “बड़ा पत्थर'। ये स्मारक बड़े पत्थर से बनाए जाने के कारण महापाषाण कहलाते थे। ये महापाषाण पूरे तमिल क्षेत्र में प्राप्त होते हैं। मृतकों को लोहे की वस्तुओं काले और लाल मिट्टी के बर्तनों और मनकों और अन्य सामग्री के साथ दफनाकर उन पर स्मारक बना दिए जाते थे। कभी-कभी मृतकों कौ अस्थियों के साथ बहुमूल्य वस्तुएँ भी रखी जाती थीं। शवाधानों में लोहे की वस्तुएँ मुख्यतया आक्रमण के हथियार उपलब्ध हुए।
(2) खुदाई में प्राप्त वास स्थल-तमिल क्षेत्र में अनेक शहरी बस्तियों में खुदाई से प्रारंभिक ऐतिहासिक काल के सम्बन्ध में यथेष्ट जानकारी मिलती है। निम्न स्थानों पर खुदाई में प्रारंभिक ऐतिहासिक काल के महत्त्वपूर्ण वास स्थल मिले हैं-
1. तमिलनाडु के पालार में मुहाने के निकट वासवसमुद्रम,
2. पालार के तट पर काँचीपुरम,
3. पांडिचेरी के निकट अरिकामेडु,
4. कावेरी के मुहाने के निकट कावेरीकट्टिनम,
5. कावेरी के तट पर उरैपुर,
6. वैगे के मुहाने के निकट अलगनकुलम और
7. ताम्ब्रब्नी नदी के मुहाने के निकट कोरकै।
इनसे भारत-रोमन व्यापार और संगम युग के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इन स्थलों में निम्न चीजें मिली हैं-
(i) ईंटों के ढाँचे,
(ii) तमिल ब्राह्मी लिपि से युक्त मिट्टी के बर्तन, और
(iii) रोम से आयातित मिट्टी के बर्तन (अम्फोरा)।
खुदाई में प्राप्त स्थल संगम साहित्य के कालक्रम को सुनिश्चित करने की दिशा में भी परोक्ष रूप में सहायक हें।
(3) तमिल ब्राह्मण अभिलेख-एक अन्य प्रकार का साक्ष्य जैन भिक्षुओं के निवास हेतु निर्मित पत्थर के बसेरों पर और मिट्टी के बर्तनों पर तमिल ब्राह्मणी अभिलेखों के रूप में प्राप्त होता है। ये अभिलेख संगम साहित्य के काल निर्धारण में साक्ष्य के रूप में कार्य करते हैं। ये मदुरै और करूर के निकट अनेक स्थलों में प्राप्त हुए हैं। करूर के निकट युगालूर में उपलब्ध अभिलेख चेर राजाओं की वंशावलीके सन्चत्या में ज्ञात होता है।
(4) सिक्के-भारतीय और रोमन-प्रारंभिक ऐतिहासिक काल के सिक्के तमिलनाडु में अनेक स्थलों में मिलते हैं। इनमें संगम, चेरों, चोलों और पंड्यों के सिक्के सम्मिलित हैं।
इन स्थानीय सिक्कों के अतिरिक्त सोने चाँदी, और ताँबे के रोमन सिक्के भी पाए गए हैं। रोमन सिक्कों के अधिकांश भण्डार कोयम्बदूर क्षेत्र में हैं, क्योंकि इस क्षेत्र ने भारत-रोमन व्यापार में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया।
कालक्रम-विशिष्ट साक्ष्य के अभाव में संगम साहित्य का काल निर्धारण करना जटिल है। दिद्वानों में संगम साहित्य के रचनाकाल को लेकर सर्वसम्मति का अभाव है।
1. कुछ विद्वान इसका काल तीसरी शताब्दी ई.पू. और पाँचवीं शताब्दी ईसवी के मध्य बताते हैं।
2. अन्य विद्वान इसे पहली शताब्दी और पाँचवीं शताब्दी के मध्य का मानते हैं।
संगम साहित्य के कालक्रम निर्णयन में मुख्यता निम्न मानदंडों का प्रयोग किया जाता है-
(i) संगम साहित्य में प्रयुक्त तमिल भाषा के विकास के आधार पर इन रचनाओं को दूसरी शताब्दी ई.पू. और तीसरी शताब्दी ईसवी के मध्य माना है।
(ii) संगम साहित्य में उल्लिखित तमिल ब्राह्मणी लेखों के सदृश व्यक्तिगत नाम दूसरी शताब्दी ई.पू. से चौथी ईसबी तक की अवधि के हैं।
(iii) “पेरिप्लस मारिस एरिश्रेई! आदि विदेशी विवरणों में संगम साहित्य में उल्लिखित व्यापार केंद्रों का काल ईसवी युग की प्रारंभिक शताब्दियों में कहा गया है।
(iv) संगम साहित्य में पल्लव राजाओं का संदर्भ न होना यह संकेत करता है कि ये रचनाएँ पल्लव शासन से पूर्व की हैं।
संगम साहित्य के सम्पूर्ण भंडार के व्यापक रचना काल तो सरलतापूर्वक निर्धारित हो सकता है पर आंतरिक कालक्रम में कठिनाई उत्पन्न होती है। संगम साहित्य में पाथिनेनकिलकनक्कु की रचनाओं को पाथिनेनमेलकनक्कु में भी कलितौ के और परिपतल के अपवाद सहित एत्तुतोकै प्राचीनतम रचना थी। अर्खपपदै साहित्य का कुछ अंश भी पूर्व काल का है।
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