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प्रेमचंद की कहानियों में राष्ट्रवादी चेतना पर प्रकाश डालिए

प्रेमचंद की राष्ट्रीय चेतना का परिचय उनके शुरुआती चरित्र और लेखन से ही मिलने लगता है। वे जिस भी विषय को उठाते थे, उसे अपने आलोचनात्मक विवेक से खूब जाँच-पड़ताल कर ही प्रस्तुत करते थे। स्वाधीनता का प्रश्न उनके लिए सबसे बड़ा प्रश्न था। इसलिए स्वाधीनता आंदोलन का चित्रण करते हुए-उन्होंने उन मूल्यों का बारीक चित्रण किया, जो भारतीय राष्ट्रवाद को व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान कर रहे थे और उन्होंने/लगातार उन विसंगतियों पर. भी ,प्रहार किया, जो भारतीय राष्ट्रवाद को संकीर्ण बना रही थीं, जैसे-नारी दुर्दशा, सांप्रदायिक भेदभाव; दलितों का शोषण, किसानों की स्थिति आदि।

प्रेमचंद का देश-प्रेम किसी से छिपा नहीं है। देश-प्रेम करने वालों की उन्होंने खुलकर प्रंशंसा की है। उन्होंने अपनी कहानियों में राष्ट्रवाद की व्यापकता को«चित्रिते-करतें हुए जिन बातों पर विशेष बल दिया है, उनमें पूर्ण स्वराज की माँग, राष्ट्र को सर्वोपरि समझने की भावना, स्त्रियों-शोषितों की भागीदारी और«किसानों को«विद्रोह भाव महत्त्वपूर्ण है। प्रेमचंद की दृष्टि में उस राष्ट्रवाद में व्यापकता नहीं आ सकती, जो क्षुद्र स्वार्थों को महत्त्व दे। बैह अकारंण नहीं है कि उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद में प्रवेश कर रही संकीर्णता कोःनजरअंदाज नहीं किया। प्रेमचंद के सामने यह बिल्कुल स्पष्ट था कि जब तक हमारे जीवन मूल्य उदात्त न होंगे, तब तक हम एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण न कर सकेंगे, जिसमें शोषण, दमन और ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान न हो।

राष्ट्रवाद की व्यापकता को प्रेमचंद ने जानवरों के माध्यम से भी व्यक्त किया है। 'दो बैलों की कथा' शीर्षक कहानी के बैलों के सत्याग्रह को दिखाकर वे यह सिद्ध कर रहे थे कि इस अस्त्र के द्वारा हम विरोधी को हरा सकते हैं।

राष्ट्रवाद की व्यापकता को चित्रित करते हुए एक ओर प्रेमचंद अपनी कहानियों में दिखा रहे थे कि धीरे-धीरे लगभग सारा हिंदुस्तान स्वाधीनता के मुद्दे पर एक हो चुका था। नारियाँ भी इसमें पीछे नहीं थीं। वे दिखाते हैं कि किस प्रकार 'सती' कहानी की नायिका अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए अपनी सेना के साथ रणभूमि में जाती है। उसके इस साहस का चित्रण करके प्रेमचंद दिखा रहे थे कि स्त्रियों को अबला समझना राष्ट्रीय आंदोलन के साथ धोखा करने जैसा होगा। वहीं दूसरी ओर वे अपनी कहानी “कानूनी कुमार” में अपने देश की कमजोरियों को उजागर कर उसे समाप्त करने के तरीकों का चित्रण करते हैं। इस कहानी में वे स्त्रियों की दयनीय दशा पर प्रकाश डालते हुए उसे बदलने की बात करते हैं। उनकी दृष्टि में बिना स्त्रियों की स्थिति सुधारे हम अपने राष्ट्र का सिर ऊँचा नहीं कर सकते। इस प्रकार उनकी नारी दृष्टि नवजागरण की चेतना से अनुप्राणित और प्रगतिशील थी। वे स्त्री शिक्षा के समर्थक और पर्दा प्रथा आदि के विरोधी थे।

प्रेमचंद अपनी कहानियों से दिखा रहे थे कि किस प्रकार से स्वाधीनता आंदोलन पूरे देश में फैल रहा था। 'समर-यात्रा' शीर्षक कहानी में प्रेमचंद ने भारतीय राष्ट्रवाद की व्यापकता का चित्र खींचा है। इस कहानी में उन्होंने इस बात का विस्तार से चित्रण किया है कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सही वाहक वे ही लोग हैं, जो सदियों से सामाजिक-आर्थिक रूप से शोषित होते रहे हैं। इस कहानी में उन्होंने इस वर्ग की उत्सर्ग भावना और साहस का प्रभावशाली वर्णन किया है।

'आहुति' शीर्षक कहानी में उन्होंने इस बात का चित्रण किया है कि स्वयंसेवक किस प्रकार से अपने प्राण हथेली पर लेकर स्वदेशी आंदोलन को आगे बढ़ा रहे हैं। “पत्नी से पति' कहानी में भी राष्ट्रप्रेम को सर्वोपरि स्वीकार किया गया है। “मैक्‌' शीर्षक कहानी में मनुष्य के बदलते भावों को स्वाधीनता-आंदोलन से जोड़कर एक नया आयाम देने का प्रयास किया गया है।

प्रेमचंद हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्के समर्थक थे। वे अच्छी तरह जानते थे कि जब तक हम धार्मिक समस्याओं में उलझे रहेंगे, तब तक राष्ट्र की एकता के विषय में नहीं सोच पाएँगे। वे अंग्रेजों की उस नीति को भी समझ रहे थे, जिसके तहत अंग्रेजी सरकार हिंदुओं-मुसलमानों को आपस में लड़ाकर स्वाधीनता आंदोलन को कमजोर करने की साजिश रच रही थी। निश्चित रूप से इसी कारण उनके द्वारा सांप्रदायिकता की समस्या पर अनेक कहानियों की रचना की गई है।

यह सर्वविदित है कि राष्ट्र को एक होकर मजबूत किया जा सकता है-बाँटकर एवं घृणा और द्वेष यो-सांप्रदायिकता से नहीं। सांप्रदायिकता पर लिखी गई प्रेमचंद की एक अति प्रसिद्ध कहानी है-'हिंसा परमो धर्म:।' इस कहानी में प्रेमचंद ने धर्म-परिवर्तन की समस्या का चित्रण करते हुए सांप्रदायिकता के विषवृक्ष को बढ़ता हुआ चित्रित किया है। इस कहानी में हिंदू, मुसलमानों को हिंदू बना रहे हैं और मुसलमान, हिंदुओं को मुसलमान। दोनों वर्ग इस कार्य के लिए भरपूर प्रयास करते हैं। दोनों एक-दूसरे के जान-माल के दुश्मन बने हुए हैं, स्त्रियों की इज्जत लूटी जा«रही है। प्रेमचंद लिखते हैं, “औरत ने जीना तय करके ज्यों ही छत पर पैर रखा कि काजी साहब को देखकर झिझकी। वह: तुरंते/पीछे की तरफ मुड़ना चाहती थी कि काजी साहब ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और अपने कमरे में घस्लीठ लाए। जामिद यह दृश्य देखकर विस्मित हो गया था। यह रहस्य और भी रहस्यमय हो गया था। यह विद्या का सागर, यह न्याय का भंडार, यह नीति, धेर्म|और दर्शन का आगार इस समय एक अपरिचित महिला के ऊपर यह घोर अन्याय कर रहा है।” इसी क्रम में प्रेमचंद दिखाते हैं 'कि धर्मों के ये ठेकेदार धर्म को किस प्रकार से बदनाम करते हैं। यही काजी महोदय उस अनजान औरत से कहतें हैं, “हाँ खुदा का यही हुक्म है कि काफिरों को जिस तरह मुमकिन हो, इस्लाम के रास्ते पर लाया जाए। अगर खुशी से न आएँ तो जब्र से।” इस कहानी में प्रेमचंद दिखाते हैं कि सांप्रदायिकता कैसे मान॑बता पर प्रहार करती है। यह आदमी "को टुकड़े-टुकड़े में बाँट देती है। कहानी के अंत में एक प्रमुख पात्र जामिद के माध्यम से उन्होंने अपनी बात कही है। वे लिखते हैं, “...वह जल्द-से-जल्द शहर से भागकर अपने गाँव पहुँचना चाहता था, जहाँ मजहब का नाम सहानुभूति, प्रेम और सौहार्द था। धर्म और धार्मिक लोगों से उसे घृणा हो गई थी।” दरअसल, यह घृणा: प्रेमचंद को स्वयं हुई थी। क्रिस्ती भी संबेदनशील व्यक्ति को ऐसी घृणा होनी भी चाहिए।

“जिहाद' शीर्षक/ कहानी में भी प्रेमचंद ने दिखाया है कि अज्ञानवश मनुष्य अपने मानव धर्म से किस प्रकार विरत हो जाता है। “मुक्ति धन' शीर्षक कहानी में उन्होंने दिखाया है कि हिंदू-मुस्लिम एक-दूसरे का आदर करना सीख गए हैं। “पंच-परमेश्वर” में उन्होंने हिंदू-मुस्लिम मित्रता का एक आदर्श प्रस्तुत किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रेमचंद अच्छी तरह जानते थे कि धार्मिक कट्टरता राष्ट्रवाद को संकीर्ण बनाती है। यद्यपि यह एक दुखद सत्य है कि संकीर्ण दृष्टि वाले राष्ट्रवादियों को बहुत सफलता मिली। लेकिन फिर भी, स्वाधीनता आंदोलन को सफल और सार्थक बनाने के लिए यह जरूरी था कि लोग धार्मिक कृपमंडूकता से बाहर निकलें, क्योंकि उनकी गलतियाँ राष्ट्रवाद को संकीर्ण बना रही थीं।

प्रेमचंद समाज और राजनीति में हर तरह की संकीर्णता के विरुद्ध थे, इसलिए वे संकीर्ण राष्ट्रवाद के आलोचक थे। उन्होंने भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के दिनों में विकसित हो रहे राष्ट्रवाद की संकीर्णता को उजागर करते हुए कई अन्य कहानियाँ भी लिखीं। उनके लिए यह चिंता का विषय था कि इस देश के जमींदार, राजे-रजवाड़े और आर्थिक रूप से संपन्‍न लोग अपने ही गरीब भाइयों के विषय में कुछ नहीं सोचते हैं। वे अपने लेखों में भी अपनी इस चिंता को व्यक्त कर रहे थे। जिस 'आहुति' शीर्षक कहानी में उन्होंने स्वयंसेवकों के त्याग का वर्णन किया है, उसी कहानी में उसकी नायिका बेधने वाला प्रश्न खड़ा करती है। वह कहती हैं, “अगर स्वराज आने पर भी संपत्ति का यही प्रभुत्व बना रहे और पढ़ा-लिखा समाज यों ही स्वार्थान्ध बना रहे तो मैं कहूँगी कि ऐसे स्वराज का न आना ही अच्छा है। अंग्रेज महाजनों की धनलोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। जिन बुराइयों को दूर करने के लिए आज प्राणों को हथेली पर लिए हुए हैं, उन्हीं बुराइयों को क्या प्रजा इसलिए सिर चढ़ाएगी कि वे विदेशी नहीं स्वदेशी हैं? कम-से-कम मेरे लिए स्वराज का यह अर्थ तो नहीं कि जान की जगह गोबिन्द बैठ जाए। मैं समाज की ऐसी व्यवस्था देखना चाहती हूँ, जहाँ कम-से-कम विषमता को आश्रय न मिल सके।” प्रेमचंद ने यह दृष्टि अपने समय के क्रांतिकारियों से प्राप्त की थी। सरदार भगत सिंह के विचार भी ऐसे ही थे।

प्रेमचंद को यह दृष्टि कितना प्रभावित किए हुए थी, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने उपन्यास “गबन' में भी देवीदीन के माध्यम से यही विचार व्यक्त किया है। प्रेमचंद रूपमणि या देवीदीन से सिर्फ अपना मंतव्य प्रकट करवाकर ही नहीं छोड़ देते, बल्कि “ब्रह्म का स्वाँग'” कहानी के नायक की सोच के माध्यम से अपने संशयों को आधार भी देते हैं। 'ब्रह्म का स्वाँग' कहानी के नायक दिखावा करते हुए स्त्रियों के राष्ट्रीय संघर्ष में शामिल होने की बात करते हैं। उनकी पत्नी संकीर्ण विचारों की महिला है। वह छूत-छात में विश्वास रखती है। लेकिन जब उसमें परिवर्तन आ जाता है, तब वह अपनी सुध-बुध खोकर देश सेवा में लग जाती है। अछूतों को घर में सम्मान देने लगती है। यहाँ प्रेमचंद दिखाते हैं कि दिखावा करने वाले पति महोदय को यह अच्छा नहीं लगता। वे सोचते हैं, “वूंदा सोचती होगी कि भोजन में भेद, करना नौकरों पर अन्याय है। कैसा बच्चों जैसा विचार है। नासमझ। यह भेद सदा रहा है और रहेगा। मैं राष्ट्रीय एक्स का अनुरोगी हूँ। समस्त शिक्षित समुदाय राष्ट्रीयता पर जान देता है, किंतु कोई स्वप्न में भी कल्पना नहीं करता कि मजदूरों या सेवावृत्तधारियों को समता का स्थान देंगे।”

इस प्रकार प्रेमचंद दिखा रहे थे कि संपन्न वर्ग स्वाधीनता आंदोलन में भी राष्ट्रीयता के नाम पर अपनी रोटी सेंक रहा था। अपने वर्चस्व को कायम रखने की साजिशों में लिप्त था। लेकिन यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि ऐसे संशयों के बावजूद प्रेमचंद स्वाधीनता का हर संभव समर्थन करते हैं। शायद एक उम्मीद रही हो; कि स्वाधीनता के बाद लोगों के विचार बदलेंगे। प्रेमचंद इस विडंबना की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करते हैं कि 'बौडम' कहोन्नी की तरह मालदार लोगों के साथ ही एक बड़ा शोषित हिस्सा भी आजादी के दीवानों को बौड़म समझता है। कहने की आवश्यकता नहीं. है कि यह बड़ा शोषित हिस्सा

मध्यवर्ग ही हो सकता है; जो अपने स्वार्थों के आगे कुछ नहीं देखता और शासकों की फेंकी हुईं हड्‌डी के आगे भागता रहता है। प्रेमचंद की दृष्टि में ऐसी प्रवृत्तियाँ राष्ट्रवाद की व्यापकता को खंडित करती हैं। वे ऐसी. प्रवृत्तियों के सख्त विरोधी थे, जिनसे प्रेरित होकर उन्होंने राष्ट्रवाद पर कहानियाँ लिखीं।

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