औपनिवेशिक इतिहास लेखन में मुख्य रुझानों के अंतर्गत जिन विचारधाराओं की बात की जाती है, वे निम्नलिखित हैं:
1. औपनिवेशिक दृष्टिकोण
2. राष्ट्रवादी दृष्टिकोण
3. मार्क्सवादी दृष्टिकोण
4. उदारवादी एवं नव उदारवादी दृष्टिकोण
5. आर्थिक सिद्धान्त, मानव विज्ञान एवं पारिस्थितिकी
(1) औपनिवेशिक दृष्टिकोण-उपनिवेशवादी इतिहासकार यह सिद्ध करना चाहते हैं कि भारत के लिए औपनिवेशिक शासन कितना अच्छा था और इससे भारत को कितने फायदे हुए। भारत में ब्रिटिश निवेश से ही रेलतंत्र, सिंचाई व्यवस्था, संचार तंत्र आदि विकसित हुए, जो औपनिवेशिक शासन की देन थे। उपनिवेशवादी इतिहासकार राष्ट्रवादियों की बातों का हर प्रकार से खण्डन करना चाहते हैं।
(2) राष्ट्रवादी दृष्टिकोण-राष्ट्रवादी ब्रिटिश शासन के हर रूप को नकारात्मक बताते हैं। वे यह तर्क देते हैं कि ब्रिटेन ने भारत का हर दिशा, हर क्षेत्र में अनिष्ट किया। धन के निकास की व्याख्या दादाभाई नौरोजी द्वारा की गई। उन्होंने बताया कि किस प्रकार भारत गरीब हो रहा है और उसका धन बाहर भेजा जा रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था को ब्रिटेन अपने अधीन बना रहा है। उद्योगों का विनाश किया जा रहा है, जिससे बेरोजगारी बढ़ रही है। भूमिहीन कृषकों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। राष्ट्रवादियों ने अपना तर्क बड़े प्रभावशाली ढंग से जनता के समक्ष रखा। यहाँ तक कि आर.सी. दत्त ने तात्कालिक मुद्दों पर लॉर्ड कर्जन के साथ वाद-विवाद भी किया।
औपनिवेशिक शासन के बड़े बुरे प्रभाव हुए, जिसके अंतर्गत उपनिवेशवादी इतिहासकारों की यह बात कि कृषि का वाणिज्यीकरण किया गया, को राष्ट्रवादी कहते हैं कि कृषि का वाणिज्यीकरण भारतीय जनता के शारीरिक व आर्थिक शोषण के तहत हुआ। व्यापारियों एवं महाजनों के अत्याचार तो बढ़े ही, साथ ही औपनिवेशिक शासन के तहत अभाव, भुखमरी, मृत्युदर में वृद्धि भी हुई। राष्ट्रवादी इतिहासकारों के अनुसार सिंचाई व्यवस्था, कृषि में निवेश, वैज्ञानिक तकनीकी पर ध्यान न देना भी ओपनिवेशिक शासन की सबसे बड़ी कमी रही।
राष्ट्रवादियों ने सीधे तौर पर उपनिवेशवादियों की इस धारणा का कड़े शब्दों में खण्डन किया कि भारतीयों के लिए ब्रिटिश शासन वरदान था। उनके अनुसार यह वरदान नहीं, अपितु एक अभिशाप बनकर भारतीयों के गले की फांस बना। हर भारतीय इस शासन से त्रस्त था। औपनिवेशिक शासन की मार ने भारतीय अर्थव्यवस्था को पिछड़ा बना दिया। कृषि, सिंचाई, शिक्षा आदि के सम्बन्ध में न के बराबर काम हुए। रेलों के विकास के पीछे भारतीयों के लिए लाभ का कोई पक्ष नहीं था, बल्कि यह ब्रिटिश शासन के लिए ही लाभकारी सिद्ध हुआ। इसे ब्रिटिश शासन ने अपने लाभ के लिए ही शुरू किया था। कृषि का वाणिज्यीकरण भारतीयों के शारीरिक व आर्थिक शोषण पर हुआ। धन के निकास को भारतीय राष्ट्रवादी इतिहासकार सबसे बड़ा दोहन मानते हैं। वे कहते हैं कि भारत से धन विभिन्न रूपों रूप में ब्रिटेन जा रहा है और ब्रिटेन भारत को लगातार दरिद्र बनाने पर तुला हुआ है।
(3) मार्क्सवादी दृष्टिकोण-मार्क्सवादी मानते हैं कि औपनिवेशिक शासन ने भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने अनुरूप ढाला। अर्थात् 1757 में प्लासी के युद्ध में विजय के बाद अंग्रेजों ने बंगाल का शोषण शुरू करके संपूर्ण भारतीय धन का दोहन शुरू कर दिया। मार्क्सवादी मानते हैं कि ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति को शुरू करने में भारतीय धन की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। राष्ट्रवादियों की तरह ही मार्क्सवादी भी मानते हैं कि भारत में औपनिवेशिक शासन का प्रभाव सदैव नकारात्मक रहा और यह हमेशा भारतीय जनता और भारत का आर्थिक शोषण करता रहा। राष्ट्रवादी व मार्क्सवादी कई बातों में समानता रखते हैं। दोनों मतों के समर्थकों का मानना है कि ब्रिटिश शासन का कुप्रभाव भारत पर पड़ा। जैसे-ब्रिटेन की ओर धन का बहाव, औद्योगिक विध्वंस, कृषि का दमनकारी वाणिज्यीकरण, औपनिवेशिक सत्ता द्वारा आम जनता का शोषण आदि। मार्क्सवादियों ने अपनी आलोचना के केन्द्र बिन्दु में साम्राज्यवादी पूँजीवाद को रखा, जबकि राष्ट्रवादियों ने इसकी इतने प्रभावशाली ढंग से आलोचना नहीं की। भारतीय मार्क्सवादी इतिहासकारों में आर.पी. दत्त, रामकृष्ण मुखर्जी, इरफान हबीब, उत्सा पटनायक आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इरफान हबीब, लैटिन अमेरिकी इतिहासकार आंद्रे गुडर फ्रैंक और सेल्सो फुर्तादो आदि ने उपनिवेशवाद पर जो लिखा, उससे उपनिवेशवादी स्वरूप को समझने में मदद मिलती है। इन इतिहासकारों ने यह बताया कि अल्पविकास कोई स्वाभाविक घटना नहीं थी, बल्कि यह उपनिवेश को निरन्तर गरीब बनाये रखने का प्रयास था। अत: अल्पविकास स्वयं उत्पन्न न हुआ, बल्कि औपनिवेशिक शासन ने अल्पविकास को बनाये रखा और उसे निरन्तर बनाये रखने पर रखने पर जोर दिया, जिसके परिणामस्वरूप यह अपने भयंकर रूप में सामने आया।
भारतीय मार्क्सवादी इतिहासकारों ने अर्थव्यवस्था में उत्पादन सम्बन्धों कौ बजाय विनिमय सम्बन्धों से पूँजीवाद की व्याख्या की। उन्होंने आर्थिक विकास की प्रवृत्ति को दृढ़ व निर्धारित पाया। इसी कारण ये लोग भारत में परजीविता की धारणा को अस्वीकार कर देते हैं। पश्चिमी मार्क्सवादी विल वारेन ने भी अपनी पुस्तक में इस धारणा की आलोचना की है।
मार्क्सवादियों ने साम्राज्यवादी पूँजीवाद की आलोचना राष्ट्रवादियों से ज्यादा प्रभावशाली ढंग से की है। धन के दोहन की बात को मार्क्सवादियों ने भी स्वीकार किया है। मार्क्सवादियों के अनुसार भारतीय धन के कारण ही ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति को पर्याप्त मदद मिली।
(4) उदारवादी एवं नव-उदारवादी दृष्टिकोण-सन् 1980 के दशक में साम्राज्यवाद मुद्रावाद के उत्थान, ब्रिटेन सहित अन्य देशों के आर्थिक इतिहास का पुनः मूल्यांकन हुआ। इसमें शामिल इतिहासकार थे-कैन एवं हॉपकिन्स, पैट्रिक ओ ब्रायन, डेविस एवं हटनवैक आदि। इन्होंने मार्क्सवादी और वामपंथी उदारवादी विद्वानों द्वारा व्याख्यायित धारणा को गलत कहा। उदारवादी और नव-उदारवादी विद्वान कहते हैं कि साम्राज्यवाद उतना शोषक नहीं था, जितना मार्क्सवादी व वामपंथी उदारवादी दर्शाते हैं। इसके पीछे ये विद्वान तर्क देते हैं कि उपनिवेशों का आर्थिक दोहन स्वयं ब्रिटेन के हित में नहीं था, क्योंकि ब्रिटिश उद्योग और पूँजी निवेश के लिए तैयार औपनिवेशिक बाजारों के परिणामस्वरूप स्वयं ब्रिटेन के घरेलू उद्योगों का विकास अवरुद्ध हो गया था। औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में निरौद्योगीकरण के मुद्दे पर तीर्थंकर राय एडम स्मिथ के दृष्टिकोण से समानता रखते हैं, जो ब्रिटेन द्वारा भारतीय उत्पादों के आयात की महत्ता को भली-भांति समझते थे। उदारवादी व नव-उदारवादी इतिहासकार भारतीय मिलों में श्रमिकों द्वारा उत्पादन में कमी को ही भारत में आयात जारी रखने का कारण मानते हैं।
(5) आर्थिक सिद्धान्त, मानव-विज्ञान एवं पारिस्थितिक दृष्टिकोण-आधुनिक भारत में पर्यावरण और पारिस्थितिकी कौ भूमिका पर कम ही लिखा गया है। जहाँ इसके सम्बन्ध में संदर्भ उपलब्ध होते थे वहीं लिखा जाता था। अलग से इसके सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा गया है। लेकिन 50 वर्ष पूर्व भी कृषि अर्थशास्त्रियों, उद्योग अर्थशास्त्रियों ने पर्यावरण के विभिन्न पक्षों को उजागर किया। 1960 के दशक में भूषण चौधरी ने कृषि के वाणिज्यीकरण के अध्ययन में नील और पोस्त उत्पादन में पारिस्थितिकी के प्रभावों को दर्शाया है, लेकिन ये पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के असली मुद्दे नहीं थे।
औपनिवेशिक शासन के इतिहास लेखन में हमने जिन रुझानों को देखा वे सब अपना-अपना दृष्टिकोण रखते हैं और औपनिवेशिक शासन के प्रभाव को दर्शाते हैं। जहाँ राष्ट्रवादी एवं मार्क्सवादी इतिहासकार इसके प्रभावों को नकारात्मक मानते हैं वहीं उपनिवेशवादी, उदारवादी एवं नव-उदारवादी इसे नकारात्मक नहीं मानते हैं। राष्ट्रवादी व मार्क्सवादी दोनों ही धन के दोहन के सिद्धान्त को बताते हुए कहते हैं कि किस प्रकार भारतीय धन का उपयोग ब्रिटेन ने अपने फायदे के लिए किया। वहीं उपनिवेशवादी इसे गलत बताते हुए कहते हैं कि यह स्वयं ब्रिटेन के उद्योगों के लिए भी खतरा था एवं उनका विकास अवरुद्ध कर सकता था। उदारवादी इतिहासकार भारत में आयात को श्रमिकों की कमी मानते हैं।
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