केन्द्रीय राजनैतिक क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र में प्रशासन अनेक प्रकार से चलाया जाता था और क्षेत्र विशेष पर राजनैतिक नियंत्रण किस हद तक है, यह इस बात पर निर्भर करता था। दिल्ली सल्तनत के शुरुआती सालों में, विशेष रूप में शमशुद्दीन इल्तुतमिश के गद्दी संभालने के बाद अनेक अन्य गुलाम गवर्नरों ने अपनी आजादी के लिए आवाज उठाई। उसके बाद की राजनैतिक उथल-पुथल का मतलब था सुल्तानों का ध्यान सल्तनत के राजनैतिक आधार को स्थिर करने पर केन्द्रित होना, विशेष रूप में ऐसी परिस्थति में जबकि भीतरी और बाहरी दोनों तनाव विद्यमान थे। साम्राज्य के विस्तार के अतिरिक्त जिन क्षेत्रों को हाल में मिलाया गया था, वे ढीले-ढाले तौर पर राजनैतिक प्रशासनिक ढाँचे से जुड़े हुए थे और अक्सर ये सुल्तान या केन्द्र की राजनैतिक सर्वोच्चता को नाममात्र के लिए स्वीकार करते थे। साम्राज्य की उपस्थिति के प्रतीक के रूप में इन क्षेत्रों में केन्द्र द्वारा कुछ अधिकारी नियुक्त किए गए थे, लेकिन प्राय: दिन-प्रतिदिन का प्रशासन स्थानीय हाथों में ही रहता था। केन् की मुख्य चिन्ता इन क्षेत्रों में अधिक थी कि कैसे विशाल साम्राज्य को कायम रखने के लिए राजस्व का संग्रह किया जाए।
सल्तनत प्रान्तों में बंटी हुई थी, जिसके प्रभारी गवर्नर होते थे, जिनको वली या मुक्ती कहा जाता था। सल््तनत के मजबूत होने के साथ 14वीं शताब्दी में प्रान्तों का प्रबन्धन मुश्किल हो गया। इसीलिए प्रशासनिक सुविधा के लिए उनको शिकों में बाँठा गया, जिनका प्रशासन शिकदार तर के द्वारा किया जाता था। इसके पश्चात अफगान काल के दौरान शिक परिवर्तित होकर सरकार बन गए। सरकार क्षेत्रीय इकाई के रूप में अनेक परगनों से बने थे।
सत्ता और अधिकार के पेचीदा होते हुए भी प्रशासन प्राय: अस्पष्ट था। सुल्तान गवर्नर की नियुक्ति आमतौर पर अपने प्रतिनिधि के रूप में करता था, इलाके का पूरा प्रशासन चलाना जिसकी जिम्मेदारी थी। इसके अन्तर्गत राजस्व का संग्रह, कानून-व्यवस्था को कायम रखना और केन्द्रीय सत्ता के विरोधियों को कमजोर करना था। वह के़्द्र द्वारा नियुक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता था और राज्य के प्रान्तों में वह सुल्तान की प्रशासनिक सत्ता का मूर्त रूप होता था। क्षेत्र के लिए अधिकारी नए होने के कारण अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करने के लिए वह सल्तनत से पहले के अपने निजी सैनिक दस्तों के साथ स्थानीय अधिकारियों पर निर्भर रहता था। संगृहीत राजस्व का एक भाग गवर्नर कौ तनख्वाह और उसकी सेना पर खर्च किया जाता था। अतः यह गवर्नर के हित में था कि वह राजस्व की वसूली समय से करे। इसका एक भाग केन्द्रीय खजाने को जाता था। गवर्नरों को इक्ता के तौर पर भूमि अनुदान भी प्राप्त होते थे और गवर्नर को मलिक, अमीर, मुक्ती या इक्तादार कहकर सम्बोधित किया जाता था। अपने अधीन के सैनिक दस्ते का रख-रखाव इक्तादार के कार्यभार का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष था। यह इस कारण महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि लड़ाइयों के समय सुल्तान की मदद करने के लिए उसे अपनी सेना जुटाने के लिए कहा जाता था। इस प्रकार गवर्नर की फौजें केन्द्रीय फौजों के आरक्षित दस्तों के रूप में काम करती थीं। स्थानीय राजाओं द्वारा सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर लेने के कारण उनसे यही आशा की जाती थी कि केन्द्र को सैनिक दस्तों के रूप में जरूरत पड़ने पर सहायता दे। अरिज गवर्नर को इन दायित्वों का निर्वाह करने में मदद करते थे, जिनका काम गवर्नर की निगरानी में सैनिक दस्तों की देखरेख करना था। अरिज अरिज-ए-मुमालिक के अधीन होते थे।
इस प्रकार, गवर्नर और स्थानीय सत्ता-समूह एक-दूसरे के साथ मिल-जुल कर काम करते थे। इससे सुल्तान के लिए केन्द्र में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती थीं। केन्द्र से दूरी होने के कारण इन गवर्नरों को स्थानीय सत्ता समूहों के साथ गठजोड़ करने और केन्द्र में आसीन सुल्तान के खिलाफ बगावत करने का मौका मिल जाता था। अक्सर ऐसा होता था और कई बार तो बगावत का दमन करने के लिए स्वयं सुल्तान को आना पड़ता था या फिर किसी विश्वासपात्र अधिकारी को भेजना पड़ता था। इस प्रकार, राजनैतिक लाभ के लिए गवर्नरों के ओहदे का इस्तेमाल किया जाता था। अगर सुल्तान प्रान्तों में गवर्नरों द्वारा सत्ता हथियाने के प्रयासों को रोकने में विफल हो जाता था, तब गवर्नर द्वारा सुल्तान की उपाधि का इस्तेमाल किया जाना भी वह स्वीकार कर लेता था। बंगाल का बुघरा खान सुल्तान बलबन के शासनकाल में इसका उदाहरण है। इसके विपरीत जब कोई कुलीन अपने क्षेत्र में अधिक शक्तिशाली और लोकप्रियता हासिल करने लगता था, तब सुल्तान उसे वहाँ से हटाकर किसी दूर के प्रान्त में गवर्नर नियुक्त कर देता था। इतिहासकार जिया बरनी के अनुसार सामाना के गवर्नर के रूप में जब जफर खाँ को बहुत प्रसिद्धि मिलने लगी, तब उसके सत्ता के आधार को कमजोर करने और उसकी बढ़ती हुई शक्ति को दबाने के लिए सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने उसको लखनउती स्थानांतरित करने पर विचार किया।
कई गाँवों के मिलने से एक परगना बनता था। मुकद्दम जो गाँव प्रमुख या प्रधान होते थे, पटवारी जो गाँव का लेखाकार होता था, खुत जो गाँव का मुखिया कहलाता था, के अधीन गाँव की प्रशासनिक देखरेख का काम होता था। गाँव और परगना प्रशासन की स्वतंत्र इकाइयाँ होते हुए भी एक-दूसरे से जुड़े हुए थे, जिन पर अधिकारियों के प्रशासनिक अधिकार थे। प्रशासन का सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारी चौधरी होता था, जो गाँव का सबसे प्रभावशाली स्थानीय अधिकारी होता था, जो राजस्व संग्रह के लिए शासक के प्रति जिम्मेदार होता था। इसके अतिरिक्त राजस्व संग्रहकर्त्ता मुतासरिफ या अमील और कानकून (लेखाकार) होते थे। ये सभी गवर्नर के साथ मिलकर कानून व्यवस्था बनाए रखने का भी काम करते थे। फिरोजशाह तुगलक ने 1353 में बंगाल अभियान से पहले अपनी घोषणा में कहा था कि मुकद्दम, मफ्रोजी और मलिक जमींदार थे। इस तरह सम्पूर्ण ग्रामीण श्रेष्ठ वर्ग जमींदार शब्द के अन्तर्गत आता था। कुछ प्रान्तों में राय, राना, रावत, राजा जैसे स्थानीय शासक भी थे, जो गवर्नर को उसके कार्यों में मदद करते थे। स्थानीय शासकों को इस विषय में सुल्तान द्वारा उसके अधीनस्थ के रूप में मान्यता दी गई थी। इस प्रकार, प्रशासनिक मामलों के संचालन में स्थानीय शासकों को प्रभुसत्ता सम्पन्न शासकों के रूप में इजाजत दी गई थी। दिल्ली सल्तनत द्वारा इस परिपाटी को अपनाने का कारण यह था कि इससे सल्तनत नाममात्र की प्रभुसत्ता के आधार पर भौगोलिक विस्तार कर सकती थी और इसके साथ केन्द्रीय खजाने में आर्थिक योगदान भी सुरक्षित हो जाता था।
बारिद सुल्तान तक सीधी पहुँच रखने वाले महत्त्वपूर्ण प्रान््नीय अधिकारी होते थे। स्थानीय मामलों की जानकारी सुल्तान को देने में वे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। सुल्तान इनकी नियुक्ति आमतौर पर सीधे करता था। ये अधिकारी बाहरी क्षेत्रों में सुल्तान के दाहिने हाथ होते थे, जो गवर्नरों पर नियंत्रण रखते थे।
प्रान्तीय स्तर पर जिया बरनी दो अन्य अधिकारियों का उल्लेख करते हैं। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में शिकदर का भी जिक्र है। बरनी ने भी मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में शिकदार और फौजदार का उल्लेख किया है। उनके कार्यभार के विषय में स्पष्ट वर्णन है, लेकिन उनकी भूमिकाएँ लगभग एक समान हैं। शिक का प्रभारी शिकदार होता था और कानून-व्यवस्था कायम रखने में वह गवर्नर की मदद करता था। जरूरत पड़ने पर राजस्व वसूलता था तथा सैनिक सहायता प्रदान करके स्थानीय विद्रोहों को दबाता था। इनकी तनख्वाह इलाके के राजस्व संग्रह से दी जाती थी। यह एक स्थायी पद था, जिसका उल्लेख मोदी काल और उसके बाद भी मिलता है। प्रशासन की देखरेख जैसे छोटे कार्य भी शिकदार करता था। छोटे-छोटे शिकों का जिक्र तुगलकों के अन्तर्गत मिलता है। तुगलक शासनकाल में भी कानून-व्यवस्था कायम रखने में फौजदार शिकदारों की और कार्यों को कार्यान्वित करने में शिकदारों और फौजदारों की मदद अन्य स्थानीय अधिकारी करते थे, जिनमें काजी, अमील, अमीन और कोतवाल आदि प्रमुख थे।
साहिब-ए-दीवान प्रान््त की आमदनी और खर्च का वित्तीय लेखा-जोखा रखता था। वजीर की सिफारिश पर सुल्तान द्वारा उसकी नियुक्ति की जाती थी। प्रान्तीय राजस्व का वह लेखाकार था और मुतसरिफ और कानकून उसके काम में उसकी सहायता करते थे। नाजिर और वाकुफ जैसे अधिकारी का काम राजस्व संग्रह और खर्चे की देखभाल करना था। ख्वाजा के ओहदे का भी उल्लेख है। इक्ता की आमदनी के लेखे-जोखे का काम वह करता था। ख्वाजा की नियुक्ति भी वजीर की सिफारिश पर सुल्तान द्वारा होती थी। सल्तनत में यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण ओहदा था।
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