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स्थायी बन्दोबस्त

1789 में कार्यकारी गवर्नर सर जॉन शोर ने दस वर्षीय भूमि-बंदोबस्त की घोषणा की। 1793 में नए गवर्नर लॉर्ड कॉर्नवालिस के नेतृत्व में इसका स्थान एक अन्य बंदोबस्त ने लिया जिसे स्थाई घोषित कर दिया गया। इसके अनुसार करों की दरें हमेशा के लिए नियत कर दी गईं। यह बंदोबस्त मौजूदा लेखे-जोखे (बिना सर्वेक्षण के) जमींदारों के पक्ष में स्थानीय समझौतों द्वारा किया गया।

ब्रिटेन द्वारा लागू की गई इस व्यवस्था के पीछे कई तर्क थे। इसमें भारत को उन सामान्य नियमों के जरिए शासित करने के तरीके मुहैया कराए गए, जो न्यायालयों द्वारा लागू किए जाने वाले नियमों की लंबी सूची में दिए गए थे। इस तरह के अल्पतम सीधे नियंत्रण को उस समय के राजनीतिक सिद्धांतों का समर्थन मिला। ऐसा सोचा गया कि यह व्यवस्था बंगाल में भारतीय परिस्थितियों और अपेक्षाओं के अनुकूल रहेगी जहां अपूर्ण रूप से संगठित व्यवसायिक कंपनी के स्वार्थी सेवक अब एक साम्राज्य के अधिकारी थे। स्थायी बंदोबस्त को लागू करने के पीछे एक देशी ग्रामीण अभिजात वर्ग को सुदृढ़ करना था। एक अन्य उद्देश्य उत्पादन में सरकारी हिस्से को सुनिश्चित करना था ताकि निवेश, उच्च उत्पादकता और व्यापार को बढ़ावा मिले और जिससे सरकारी आय परोक्ष रूप से बढ़े।

आर्थिक व सामाजिक प्रभाव

एक हद तक उपर्युक्त लक्ष्य हासिल कर लिए गए। हालांकि कंपनी जल्द ही बंगाल की व्यवस्था के विरुद्ध हो गई। कृषि योग्य भूमि का विस्तार किया गया और स्थानीय तथा अंतर्राष्ट्रीय बाजारों के लिए और अधिक फसलें उगाई गईं, जिससे व्यवसायीकृत खेती का विकास हुआ। कुछ क्षेत्रों में विरोध को छोड़कर जमींदारों ने अपनी सैन्य तथा राजनीतिक भूमिकाएं त्याग दीं और नई राजनीतिक व्यवस्था में सहायक तथा कंपनी की प्रजा बन गए। पहले भूमि को बेचना एक मुश्किल काम था, लेकिन इस व्यवस्था ने भूमि की खरीद-बिक्री आसान कर दी। जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ भूमि का एक बहुत उपयोगी बाजार बढ़ा जिसने 1793 और उसके बाद बनाए गए अधिकारों को एक अर्थ दिया। इस व्यवस्था के कारण कुछ जिलों में जमींदारों की संख्या स्पष्ट रूप से बढ़ी। अब कर्ज लेने और गिरवी रखने के लिए भूमि एक विश्वसनीय साधन बन गई। इसलिए वह एक ऐसा जरिया भी बन गई, जिससे व्यापारी और सूदखोर अपने आपको कम से कम खतरे में डालते हुए कम कीमत पर कृषि उत्पाद ऐंठ सकते थे।

स्थाई बंदोबस्त ने भू-स्वामित्व को राजस्व अदायगी से जोड़ा। पहले पैसों की अदायगी न करने वालों को उदाहरण के तौर पर कारावास की सजा हो सकती थी या उन्हें यातनाएं दी जा सकती थीं। ऐसे में उनकी संपत्ति खतरे मे पड़ जाती थी। कुछ बड़े जमींदार तबाह हो गए क्योंकि राजस्व मांग अक्सर ऐसी दरों पर तय की जाती थीं जो शुरू में बहुत अधिक होती थीं। अगले कुछ दशकों में बाकी देय रकम से राहत दिलाने के लिए नए कानून लागू किए गए, जिनमें उन्हें अपने पट्टेदारों और तैयार फसल सहित उनकी संपत्ति पर लगभग पूर्ण अधिकार सौंपे गए। कुछ कृषक वर्गों को अपने पूर्ववत्‌ अधिकारों की मान्यता मिल गई। इसने जमींदारों को दिए गए अधिकारों को मान्यता प्रदान की। कुछ क्षेत्रों में मध्यस्थ भूमिपतियों ने उत्पादन के पूर्ण प्रबंधन से स्थायी बंदोबस्त द्वारा बहुत लाभ उठाया। कुल मिलाकर काश्तकारों की कानूनी स्थिति कमजोर पड़ गई। उन्नीसवीं शताब्दी के अधिकांश काल के दौरान उन्होंने उन्नत खेती से प्राप्त लाभ के रूप में साझेदारी तब तक नहीं कि जब तक कानूनों तथा शासकीय रवैये में परिवर्तन नहीं हुआ। स्थायी बंदोबस्त के कारण अठारहवीं शताब्दी में बेदखल किए गए तथा अवसरवादी लोगों ने देहातों में डाकुओं के गिरोह बना लिए। उन्नीसवीं शताब्दी में सशस्त्र तथा संगठित विद्रोह भड़क उठा जिसमें धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक शिकायतों के विभिन्न रूपों को अभिव्यक्ति मिली। बीमारी, अभाव और अकाल ने ग्रामीण समुदायों की स्थिति और भी खराब कर दी थी। आंशिक तौर पर यह सब-कुछ संपत्ति कानून में परिवर्तनों के प्रभाव के कारण भी हुआ।

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