अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का अधिवेशन सन् 1936 में लखनऊ में आयोजित हुआ। लखनऊ अधिवेशन में पारित घोषणा-पत्र के मुताबिक पूरे भारत में प्रगतिशील लेखक संघ कौ प्रांतीय शाखाएँ गठित की जाने लगीं। इसी क्रम में आंध्र प्रदेश में तेलुगू के प्रगतिशील कवियों ने “अभ्युदय रचयितल संघम्” की स्थापना की। संक्षेप में इसे “अरसम्” भी कहा जाता है, “अरसम्” का प्रथम अधिवेशन 3-4 फरवरी, 1943 में तेनाली में हुआ, तेलुगू के प्रगतिशील रचनाकार तापी धर्मा राव ने इस अधिवेशन की अध्यक्षता की। “अरसम्” के लेखकों का मूल उद्देश्य वही है, जो हिंदी के प्रगतिशील लेखकों का है। इन लेखकों का उद्देश्य सामाजिक विषमता के विरुद्ध संघर्ष करना है। “अरसम्” का घोषणा-पत्र भारत की ज्वलंत समस्याओं, जैसे-गरीबी, शोषण, उत्पीड़न, सामाजिक विषमता और भेदभाव आदि के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए आवाज बुलंद करता है। “अरसम्” ने हाल ही में अपनी स्थापना के 60 वर्ष पूरे कर लिए हैं। तेलुगू के प्रगतिवादी लेखकों में श्री. कोडवटिगंटि कुतुंब राव, रावि शास्त्री, दाशरथी, तापी धर्मा राव, चासो, कालीपट्नम रामाराव आदि हैं।
मार्क्सवादी चिंतन से प्रभावित भारतीय साहित्य के पुरोधा रामाराव साहित्य में सामाजिक यथार्थ के समर्थक हैं। साहित्यद्वारा मानव मूल्यों की स्थापना करने के लिए पुरानी शोषक-उत्पीड़क, सुविधाभोगी और स्वार्थी शक्तियों से संघर्ष करती हुई नई सामाजिक शक्तियों का ही चित्रण होना चाहिए, ऐसा वे मानते हैं। इसलिए इनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता सामाजिक असमानता और शोषण कौ पृष्ठभूमि में समाज के सबसे निचले तबके के जीवन में निहित यातना और संघर्ष और उसके भौतिक कारणों का स्पष्ट चित्रण है। जिन तथ्यों से अवगत न होने से हम जीवन और समाज की परिस्थितियों से समझौता करके चलते हैं, उन तथ्यों को ये कहानियाँ हमारे सामने खोलती हैं और हमें उन स्थितियों को बदलने की प्रेरणा देती हैं।
इनके द्वारा प्रारंभ में लिखी गई कहानियाँ यानी 1955 से पूर्व की अधिकांश कहानियाँ मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवारों की कहानियाँ हैं। नौ वर्ष के लंबे अंतराल के पश्चात् 1964 से लेकर 1972 तक लिखी सोलह कहानियाँ मुख्य रूप से समाज के निचले तबके और प्रायः छोटी जाति के श्रमजीवी वर्ग से संबद्ध हैं। इन कहानियों में चित्रित मूल समस्या उस वर्ग की भौतिक आवश्यकताओं की विकट आपूर्ति और शोषण की है, सामान्य जन द्वारा अपनी स्थिति की बेहतरी के लिए किया जाने वाला संघर्ष है। वे मानते हैं कि आज देश में समाज के सबसे निचले स्तर पर रह रहे लोगों को सामाजिक सुरक्षा प्राप्त नहीं है। कहा जा सकता है कि व्यक्तिगत समस्याओं से आगे बढ़कर पोरिवारिक समस्याओं से होते हुए ये सामाजिक समस्याओं तक पहुँचे हैं। जन को छोड़कर व्यक्तियों के बारे में लिखना उनको अच्छा नहीं लगता।
किसी भी समाज की वित्तीय संरचना का संबंधित समाज के सदस्यों पर, उनकी मनःस्थिति पर षड़ने वाले प्रभाव की झलक रामाराव की कहानियों में प्रत्यक्ष रूप से देखी जा संकती है। इनका विचार हैं थकि “अपने चारों तरफ के समाज को समझने के लिए मनुष्य में केवल निरीक्षण की शक्ति: ही पर्याप्त नहीं होती। उसमें सामान्य जन के प्रति अपार प्रेम और पीड़ा के प्रति इकहरी सहानुभूति का होना भभी आवश्यक है।” उनकी यह 'भी मान्यता, है कि लेखक हो, कलाकार हो या बुद्धिजीवी - सभी मेहनतकश लोगों के-ऋणी हैं, उन लोगों की रचनाएँ हों, कलारूप हों या उनका ज्ञान, ये सब जनता के लिए, समाज की उन्नति की दिशा में प्रयोग होना चाहिए, इसे ही वे"समाज के प्रति अपनी जवाबदेही मानते हैं। उनका कहना है कि ऐसी प्रतिबद्धता. के (साथ लिखकर ही लेखक ़्सामाजिक "ऋण से विमुक्त हो सकता है। रामाराव की प्रतिबद्धता आरोपित नहीं है। संस्कोरगत है। वे दिखावे के लिए ऐसीक्प्रतिबद्धाता का आवरण नहीं ओढ़्ते, अपितु हर उस संघर्ष को समर्थन और सहानुभूति देते हैं, जो शोषण, उत्पीड़त और सामाजिक विषमता पर चोट करता है। ऋणग्रस्तता, अंधविश्वास, व्यभिचार, अवैध यौन संबंध जैसे विषयों के बारे में जनता में बद्धमूल विचारों के प्रतिकूल लेखक का सोचना और पाठक -को सोचने के लिए प्रेरित करना साहस ही कहा जाएगा। शोषित, दलित, पीड़ित वर्ग के प्रति असीम प्रेम भावना प्रकट नहीं होने की स्थिति तक यह असंभव होगा।
उत्कृष्ट स्तरीय रचनाएँ केवल हमें आनंद ही प्रदान नहीं करतीं, अपितु हमें रोककर प्रतिप्रश्न करती हैं, जागृत करती हैं, सामाजिक विकृतियों-कुरीतियों को लेकर क्षोभ उत्पन्न करती हैं और आगे बढ़ाने की दिशा में सतत् प्रयत्लतशील रहती हैं। इस प्रकार का क्रांतिकारी क्षोभ उत्पन्न करने वाले प्रभावी लेखकों में रामाराव एक हैं, लेकिन यह क्षोभ पैदा करने का काम ये धीरे-धीरे करते हैं, क्योंकि रामाराव अपने आवेश को छिपाकर पाठक में आवेश पैदा करने वाले कथा शिल्पी हैं। वे एक साधक कलाकार की तरह, स्नेही और विनयी मित्र की तरह हमें दिखाई देते हैं। रामाराव ने प्रेमचंद की ही तरह साहित्य को मनबहलाव के साधन से ऊपर उठाकर जीवन की समस्याओं पर विचार करने और उन्हें हल करने का माध्यम बनाया है। साहित्य की इस भूमिका को रेखांकित करते हुए प्रेमचंद ने कहा है, “जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जगे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति और गति पैदा न हो, हमारा सौंदर्य प्रेम जागृत न हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता उत्पन्न न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।”
प्रेमचंद की ही तरह रामाराव भी साहित्य की सामाजिक उपयोगिता के प्रबल आग्रगी हैं। सामाजिक दृष्टिविहीन रचना को वे श्रेष्ठ नहीं मानते ...जीवन और साहित्य के बीच की सीमा रेखा की वे परवाह नहीं करते, आकर्षक रूप देने के लिए अपने भावों को किसी आवरण में छिपाकर लिखना इनकी प्रवृत्ति के विरुद्ध है। जो सोचा, जिस पर विश्वास किया, केवल वही लिखना इनकी प्रवृत्ति में है। यही इनके साहित्य को अपूर्व सुंदरता प्रदान करता है। इनकी यह व्यावहारिक शैली अनेक तेलुगू लेखकों के लिए प्रेरणाप्रद रही है। इनसे प्रेरणा लेकर अनेक तेलुगू लेखक प्रगतिवादी रचनाकारों के रूप में उभरे हैं। जिस तरह हम राजनीति में प्रजातंत्र के हामी हैं, उसी तरह रामाराव कहानी के स्वरूप में प्रजातंत्र के हामी हैं। शायद इसी कारण इनकी बड़ी कहानियों में एक-दो पात्रों की केंद्रीयता नहीं रहती। इन कहानियों में अनेक पात्र होते हैं। लेकिन कोई नायक नहीं होता। रामाराव व्यक्ति विशेष की कहानियाँ न लिखकर किसी सामाजिक परिस्थिति या व्यवस्था का स्वरूप, जैसे-व्यापक सरोकारों की कहानियाँ लिखना पसंद करते हैं या यों कह सकते हैं कि इनकी कहानियों के वृत्त में परिधि उतनी ही महत्त्वपूर्ण होती है, जितना कि केंद्र। इसलिए उनकी कहानियों में जीवन का कैन्बस बड़ा प्रतीत होता है और उनकी कहानियाँ प्राय: लंबी होती हैं।
हिंदी के पाठकों के लिए रामाराव की रचनागत विशेषताएँ आंचलिक रचनाओं के विशेषज्ञ-फणीश्वरनाथ रेणु का स्मरण कराती हैं। रेणु की ही भाँति रामाराव भी आम जनता के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करते हैं। उनके कथा रूप में श्रीकाकुलम के सामाजिक जीवन की आंचलिक पहचान स्पष्ट दिखाई पड़ती है। रेणु की भाँति ही रामाराव अभागे गाँवों और शहरों की बात कहते हैं, लेकिन दोनों में एक अंतर भी है। रेणु की कला या वैचारिकतो। में किसी प्रकार का कोई अंतिम फैसला या निर्णय जैसी बात नहीं होती। रेणु का लेखक अपनी रचनाओं में छिपा रहताहै, रचनाओं के समापन और निष्कर्ष तक में रेणु की विचारधारा मुखर नहीं हो पाती। वे जीवन को उसके पूरे खुलेपन के साथ हमारे आगे। प्रस्तुत कर देते हैं। इधर रामाराव अपने समस्त थैर्य और आवेशहीनता के बावजूद उनका लेखक चित्रित जीवन में हस्तक्षेप करना चाहता है। उनकी रचनाओं में यह बात मुखरतापूर्वक सामने आती है। एक “विशेष वैचारिक आधार पर*इनको सामाजिक जिंदगी में परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ना पसंद है। इसी कारण पूँजीपति, जमींदार, बड़े अधिकारी, विधायक, मंत्री जैसे पात्रों को उनकी सहानुभूति प्राप्त नहीं है। कहानीकार रामारांव के.-मुताबिक स्पष्ट सामाजिके.दृष्टि के बिना कोई साहित्यकार युगांतकारी रचना करने में सफलता प्राप्त नहीं करूसकता। विषयवस्तु और कथानक ही 'क़िसी रचना को महान बनाता है, न कि कहानी की शैली और शिल्प आदि। बे. अपने को जन्मजात कथाकार॑-नेहीं मानते, कहते हैं, “कहानी के बारे में, कहानी के लेखन के बारे में जानने के।लिए मुझे बहुत समय लगा है।”
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