हेनरी पिरेन के अनुसार मध्यकालीन शहरों का जन्म व्यापारी कारवां की बस्तियों से हुआ। शुरुआत में व्यापारी एक मेले से दूसरे मेले और एक साम॑ती क्षेत्र से दूसरे सामंती क्षेत्र तक पैदल घूम-घूमकर अपना सामान बेचते थे। उन्होंने अपने रहने के लिए पुराने रोमन शहरों को चुना, क्योंकि ये क्षेत्र व्यापारिक मार्गों पर स्थित थे। धीरे-धीरे ये क्षेत्र शहर के रूप में परिणत हो गए। इंग्लैण्ड के अनेक शहरों का उदय नदी के मुहाने पर हुआ है। मैनचेस्टर और कैम्ब्रिज पहले गाँव ही थे। नदी के मुहाने पर स्थित होने के कारण इनका तेजी से विकास हुआ। मध्यकालीन शहरों की जनसंख्या का अनुमान लगाना कठिन है। किन्तु यूरोप के कई शहरों का उल्लेख मिलता है, जिनकी जनसंख्या सौ से लेकर हजारों तक थी।
पश्चिमी यूरोपीय शहरों का निर्माण पूँजीवादी संरचना के अनुरूप हुआ। धीरे-धीरे इसने सामंती सामाजिक सम्बन्धों को अपने अन्दर आत्मसात कर लिया। इस काल के यूरोपीय शहर अपने खुलेपन के कारण एक स्वायत्त संसार के रूप में विकसित हुए। पिरेन के अनुसार 11वीं शताब्दी से दूरस्थ व्यापार की शुरुआत होने और इस्लाम के विरुद्ध इसाई धर्म के प्रति आक्रमण के परिणामस्वरूप पुन: शहर और बाजारों का उदय हुआ और बंद अर्थव्यवस्था की दीवारें टूट गईं। इस काल में शहर और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच श्रम विभाजन ने ग्रामीण इलाकों के स्वरूप को बदल दिया। गाँव में रहने वाले लोगों की इच्छाओं में वृद्धि हुई साथ-साथ उनकी जरूरतें भी बढ़ने लगीं। उनका जीवन-स्तर ऊँचा उठ गया। भिन्न-भिन्न शहरों के पास अलग-अलग सीमा तक आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता थी। सामंती व्यवस्था के हासोन्मुख काल में भूमिपतियों द्वारा ग्रामीणों से बलपूर्वक धन वसूलने के कारण गाँव के लोग अपने खेतों को छोड़कर शहर में जाकर बसने लगे। शहरों के खुलेपन के कारण इन ग्रामीणों ने पर्याप्त आजादी महसूस की तथा इन्होंने शहरी अर्थव्यवस्था को गति देने में अपना अमूल्य योगदान दिया। पर इस काल में कई शहर ऐसे भी थे, जो आज के बड़े गाँव की तुलना में कुछ ही बड़े थे। शहरों की जनसंख्या 20000 से अधिक होना अपवाद ही था। 14वीं शताब्दी में केवल इटली और फ्लैंडर्स में ही 40,000 से 50,000 की जनसंख्या वाले शहर पाये जाते हैं।
दूसरी तरफ मध्यकाल के एशियाई शहर कुछ मामलों में यूरोपीय शहरों से भिन्न थे। जहाँ यूरोपीय शहरों का स्वरूप स्वायत्त था, जबकि इस्लामी दुनिया के शहरों में बहुत अल्प मात्रा में स्वायत्तता थी। जैसा कि हम पाते हैं कि बगदाद और कैरो जैसे बड़े शहरों में खलीफा का शासन होता था। इन शहरों में राजनीतिक स्वतंत्रता की कमी थी, किन्तु हम इस्लामी शहरों में भी शहरी जीवन के सभी आवश्यक तत्त्व पाते हैं; जैसे-व्यापारी, वणिक और बुद्धिजीवियों के वर्ग, निर्धन जनता, कारीगर और दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर। शहर शिक्षा के भी केन्द्र हुआ करते थे। ये शिक्षा के केन्द्र मुख्यतः मस्जिदों से जुड़े होते थे। शहरों की सीमा के बाहर रहने वाले बहुत ही पिछड़े कृषक वर्ग भी इन शहरों के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते थे। कुछ मामलों में पश्चिमी शहरों एवं मुस्लिम शहरों में समानता भी देखने को मिलती है। इस्लामी सभ्यता के गढ़ जो एक शहर ही होते थे यहाँ के सड़क, जहाज, कारवां और तीर्थ स्थल एक-दूसरे के समान ही थे।
दूसरी तरफ मध्यकाल के भारतीय शहर में कई प्रकार कार्य थे। कुछ शहर उत्पादन और विपणन, बैंकिंग और उद्यमी गतिविधियों से जुड़े हुए थे, तो कई शहर तीर्थ और धार्मिक गतिविधियों के केन्द्र थे। मुगलकाल में कई यूरोपीय यात्रियों ने भारत की यात्रा की और यहाँ के शहरों की गतिविधियों एवं सम्पन्नता का विस्तृत विवरण दिया है। उनके अनुसार मुगलकाल के शहर अपनी वाणिज्यिक और व्यापारिक गतिविधियों के साथ-साथ राजनीतिक और प्रशासनिक गतिविधियों के कारण बहुत ही समृद्ध होते थे। जहाँ दिल्ली और आगरा मुगल साम्राज्य की राजधानियाँ थीं वहीं पटना, बुरहानपुर, ढाका, खानदेश, लाहौर आदि महत्त्वपूर्ण शहर थे। ये शहर प्रांतों की राजधानी भी होते थे। लेकिन भारतीय शहरों एवं पश्चिम देशों में एक प्रमुख भिन्नता यह थी कि जहाँ भारतीय शहर की जाति-व्यवस्था ने यहाँ के समुदाय को विभाजित एवं विखण्डित कर दिया था, वहीं यूरोपीय लोगों ने इन सभी प्राचीन बन्धनों को तोड़कर सभी व्यक्तियों ने मिल-जुलकर इन शहरों के विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया।
मध्यकाल में एशिया और यूरोप के शहरों की बाहरी बनावट और सामाजिक और आर्थिक संरचना में भी पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है। मध्यकाल में यूरोप और एशिया के शहर दीवारों और परकोटों से घिरे हुए होते थे, जिससे शहरों को खतरों से सुरक्षित रखा जा सके। पश्चिमी शहरों और इस्लामी शहरों के स्वरूप में भी कई प्रकार की भिन्नता देखने को मिलती है। आरम्भिक यूरोपीय शहर मुख्यतः रिहायशी, बाजार, सरकारी दफ्तर और अदालत आदि में विभाजित होते थे। फिर भी यहाँ के शहरों के निर्माण में किसी योजना का परिचय नहीं मिलता। जैसे-जैसे इन शहरों की जनसंख्या बढ़ती गई, इनका प्रसार भी उसी के अनुसार अनियोजित ढंग से होता गया। शहरों में जनसंख्या की वृद्धि के कारण सड़कें तंग होने लगीं। घर छोटे-छोटे बनने लगे और शहरों की सीमाएं बढ़ने लगीं।
जहाँ तक इस्लामी शहरों का प्रश्न है, उनमें बहुत-सी समानताएँ देखने को मिलती हैं। यहाँ के शहरों की गलियाँ संकरी होती थीं तथा इन गलियों का निर्माण ढलवां किया जाता था, ताकि वर्षा होने पर ये धुल जाएँ। काहिरा, मक्का और जद्दा जैसे शहरों की इमारतें बहुमंजिला होती थीं। इन शहरों में प्रशासन राजा द्वारा नियुक्त अधिकारियों द्वारा चलाया जाता था। साथ ही साथ इन शहरों के प्रमुख क्षेत्रों का योजनाबद्ध तरीके से निर्माण किया जाता था। जैसे साप्ताहिक नमाज पढ़ने के लिए शहर के बिल्कुल बीच में एक विशाल मस्जिद होती थी और इस मस्जिद के बगल में बाजार स्थित होता था। मस्जिद से सटे हुए ही कारीगरों की दुकानें एक क्रम में होती थीं। यह क्रम सामान्यतः इस प्रकार होता था; जैसे-इत्र बनाने और बेचने वाले, कपड़ा बेचने वाले, जौहरी और खाने पीने की दुकान और इसके पश्चात् छोटे व्यापारी, मोची, लोहार, कुम्हार, रंगरेज आदि की दुकानों का क्रम हुआ करता था।
कई प्रकार के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अन्त:आकर्षण के पश्चात् शहरों का विकास हुआ था। क्योंकि बाहर से आने वाले लोग कई प्रकार की अपनी लोक परंपरा, रीति-रिवाज और त्योहार लेकर शहर में आए। लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार अलग-अलग राष्ट्र से अपनी राष्ट्रीयता को लेकर शहर में आए। इन लोगों ने शहर में आकर एक नया सामाजिक जीवन प्रारम्भ किया, जिससे एक नया सामाजिक सम्बन्ध विकसित हुआ। इन लोगों ने अपनी धार्मिक मान्यता के अनुसार अलग-अलग पूजा-अर्चना के केन्द्रों का भी निर्माण किया। अब शहरों में बड़ी संख्या में विद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्थापित किए जाने लगे। यद्यपि प्रारम्भ में तो किताबें महँगी होती थीं, किन्तु 15वीं शताब्दी में मुद्रण प्रौद्योगिकी के विकास के पश्चात् पुस्तकों की पहुँच आम जनता तक हो गई। इससे नये बुद्धिजीवी और अभिजात वर्ग का जन्म हुआ। यह नया शिक्षित वर्ग विज्ञान, कला, साहित्य और नए विचारों से परिपूर्ण था, जिसने शहर के नये स्वतंत्र माहौल को जन्म देने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस प्रकार मध्यमवर्ग ने राजनीतिक और सामाजिक माहौल में परिवर्तन करके, अर्थव्यवस्था पर भी अपना क्रांतिकारी प्रभाव डाला। यूरोपीय देशों के विपरीत इस्लामी देश, भारत और चीन में इस मध्यमवर्ग का उदय नहीं हो पाया, जिसके कारण मध्यकाल के एशिया के शहर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से स्वायत्त नहीं बन सके। इसलिए इन देशों के शहरों में सामंती प्रवृत्तियाँ बनी रहीं, जिसके कारण ये शहर आधुनिक सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक बदलावों को अपना नहीं सकें।
अत: शहरीकरण ने मध्यकाल में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इनके शहरों में अलग अलग समाज एवं संस्कृति के लोग रहते थे, जिन्होंने शहर के माहौल को स्वतंत्र बना दिया, जिसके कारण अनेक प्रकार की प्रशासनिक, सामाजिक और आर्थिक संस्थाओं का जन्म हुआ। ये शहर विकास एवं समृद्धि के प्रमुख केन्द्र के रूप में उभरे, जिसके कारण क्रमश: आधुनिक विश्व का निर्माण हुआ।
शहर एवं गाँव एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। वे एक-दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति भी करते थे। इसलिए गाँव एवं शहर को पूर्णतः विभाजित नहीं किया जा सकता, फिर भी गाँव एवं शहर में मूलभूत अंतर पाया जाता है। चूँकि गाँव के लोग मुख्यतः प्राथमिक कार्य अर्थात् कृषि कार्य के द्वारा अपनी जीविका चलाते थे, वहीं शहर के लोग मुख्यतः द्वितीयक कार्य अर्थात् व्यापार, वाणिज्य, शिल्प आदि कार्यों से जुड़े हुए होते थे। इनके खाद्यान््नों की आपूर्ति आसपास के गाँव करते थे।
कुछ शहर ऐसे भी थे, जहाँ ग्रामीण कार्य भी साथ-साथ चलते रहते थे। अठारहवीं शताब्दी में पेरिस में गडेरिया, खेल- तमाशा दिखाने खाते. वाले, कृषि-मजदूर और वाइन उत्पादन करने वाले रहते थे। मध्यकाल में लगभग प्रत्येक शहर के चारों ओर बागान, खेत और बगीचा रहता था। शहर में रहने वाले कृषि-मजदूर और कारीगर कटाई के समय अपना घर छोड़कर गाँव चले जाते थे। औद्योगिक क्रांति से पहले तक इंग्लैण्ड की भी यही स्थिति थी। सोलहवीं शताब्दी तक फ्लोरेंस में भी यही स्थिति थी। जर्मनी में भी छोटे शहरों और रजवाड़ों में किसानों की जगह कारीगर खेती का काम करते थे।
उत्तर भारत के कस्बे और यूरोप के छोटे शहर बड़े गाँव जैसे ही थे। इन छोटे शहरों एवं कस्बों में गाँवों जैसी विशेषता ही पायी जाती थी। इसलिए इन्हें ग्रामीण शहर' कहा जाता था।
यद्यपि भारतीय गाँव बहुत हद तक आत्मनिर्भर थे, किन्तु ग्रामीण समुदाय का सम्बन्ध शहरों से भी रहता था। गाँव के लोगों को लोहे के औजार, नमक और मसाले की आवश्यकता रहती थी, इसलिए वे अपने सामान को शहर में बेचते थे और इससे जो पैसा प्राप्त होता था, उससे इन सामानों को खरीदते थे। कई कारीगर रोजगार की तलाश में गाँव से शहर आते रहते थे। चीन के गाँव में रहने वाले शिल्पी विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ तैयार करते थे। इसलिए वे शहर के शिल्पियों को कड़ी प्रतियोगिता भी देते थे।
अत: हम कह सकते हैं कि शहर एवं गाँवों के बीच परस्पर सम्बन्ध बना रहता था। शहरों का आसपास के गाँवों से प्रतिदिन सम्पर्क बना रहता था। दूसरी तरफ शहर भी गाँव के लोगों को रोजगार उपलब्ध कराते थे। साथ-साथ शहर छोटी-बड़ी सूचनाओं के केन्द्र भी थे।
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