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क्‍या इस बात से सहमत हैं कि प्रारम्भिक औपनिवेशिक नीति प्राकृतिक संरक्षण क बजाय व्यावसायिक आवश्यकताओं से प्रेरित थी? व्याख्या कीजिए।

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में वन उसकी कृषि व्यवस्था का अभिन्न अंग था। वन भिन्न-भिन्न स्तरों पर बड़ी संख्या में व्यवसायों का पोषण करते थे। इस दौरान वन अर्थव्यवस्थाओं के परिमाप अधिक व्यापक पशुपालक, दस्तकारी और कृषि अर्थव्यवस्था में एक दूसरे पर व्याप्त था। एक ओर वन जनजातियों की जीविका का मूल आधार था। वहीं दूसरी ओर वे रंगरेजों, चर्मकारों, लाख निर्माताओं और पशुपालकों को महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध कराते थे। प्रारंभिक औपनिवेशिक दौर में वनों और राज्य के बीच संबंधों में बदलाव आया। यह बदलाव उस दौरान आया, जब ब्रिटिश शासन रेलवे के निर्माण तथा विकास के लिए इमारती लकड़ी के स्रोत खोजे जाने लगे। औपनिवेशिक शासन से पूर्व के दौर में वनों पर जनजातीय समुदायों का वर्चस्व कायम था, लेकिन बाद में अंग्रेजों ने वन अर्थव्यवस्था को आधुनिक पूंजीवाद के अनुरूप ढाला और बनों को संरक्षण देने की बजाए उसे अपने व्यावसायिक जरूरतों के मुताबिक नियंत्रित किया। यहां यह कहा जा सकता है कि अंग्रेजों ने वनों के संरक्षण का एक सार्वभौमिक ढांचा आधुनिक पूंजीवाद के अनुसार बदला और इसे जनजातीय समुदायों पर थोप दिया। दूसरे शब्दों में अंग्रेजों ने वनों की अर्थव्यवस्था को स्थानीय आवश्यकताओं की बजाए वैश्विक अर्थव्यवस्था से जोड़ा। अंग्रेजों ने प्राकृतिक वनों की एकरूपता तथा उनको इमारती लकड़ी के बागानों के रूप में संरक्षित किया, जिसने वनों की जैविक विविधता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया। औपनिवेशिक शासन के दौरान वनों पर राज्य के एकाधिकार एवं वैज्ञानिक वानिकी से स्थानीय लोग वन भूमियों से विस्थापित और वनों पर अपने अधिकार से वंचित हो गए। अत: यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक वानिकी की शुरुआत एक औपनिवेशिक संक्रमण बिंदु था, जिसके परिणामस्वरूप वनों का वाणिज्यीकरण होने लगा तथा वनों का अंधाधुंध विनाश हुआ। दूसरे शब्दों में, वनों पर औपनिवेशिक नियंत्रण उनके संरक्षण के बजाए वाणिज्यिक आवश्यकताओं से अधिक प्रेरित था।

19वीं शताब्दी में औपनिवेशिक नीतियों का लक्ष्य वनों पर नियंत्रण का विस्तार और यह सुनिश्चित करना था कि वनों का इस्तेमाल साम्राज्यवाद के अधिक व्यापक हितों के लिए हो। औपनिवेशिक शासन में रेलवे के विकास के लिए स्लीपरों में प्रयुक्त होने वाले लकडियों की मांग में वृद्धि हुई, जिससे वनों पर निर्भरता बढ़ी। अंग्रेजों ने वनों के संरक्षण के बजाय अपनी व्यावसायिक जरूरतों को सामने रखा। इस संबंध में उल्लेखनीय है कि मध्य प्रांतों के वन क्षेत्र में साल के वृक्षों की कटाई का ठेका 1864 में दे दिया गया। औपनिवेशिक सरकार ने टिहरी-गढ़वाल के जंगलों को पूट्टे पर दे दिया। इसी प्रकार की संधि हिमाचल प्रदेश, सिक्किम तथा मध्य भारत के शासकों से की गई। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान बड़ी मात्रा में वनों से लकड़ियों की आपूर्ति की गई। मिस्र तथा इराक में सैनिक कार्रवाइयों के लिए 50,000 1 टन से भी अधिक चारा भेजा गया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 1.7 लाख टन लकड़ी का निर्यात किया गया। भारतीय वनों के उत्पाद राल की बड़ी मात्रा अमेरिका के बारूद कारखानों को भेजी गई। इतने बड़े स्तर पर निर्यात के लिए वन संसाधनों पर नियंत्रण तथा दोहन करना जरूरी था। अपनी व्यवसायिक जरूरतों की पूर्ति के लिए अंग्रेजों ने 1878 में एक कानून बनाकर वनों के स्थानीय उपयोग को नियंत्रित करने की कोशिश की।

1878 में वनों के आरक्षण का प्रतिकूल प्रभाव दस्तकारों तथा वनवासियों के संबंध में दिखने लगा। वनवासी लाख की आपूर्ति दस्तकारों के बजाय यूरोपीय फर्मों के एजेंटों को करने लगे। पृट्टा प्रणाली ने वनों और श्रम के ऊपर प्रबंधक कार्यों का एकाधिकार कायम कर दिया जिससे छोटे-छोटे उत्पादक बाजार से बाहर हो गए॥

19वीं शताब्दी के मध्य में सरकार ने वन उत्पादों को प्रमुख और गौण उत्पादों के रूप में बांट दिया। वर्गीकरण के इस सिद्धांत का निर्धारण उत्पाद को निकालने की पद्धति तथा इसके व्यावसायिक मूल्य द्वारा किया गया। उसके व्यावसायिक मूल्य का निर्धारण विश्व मंडी में उसकी मांग के आधार पर तय किया जाता था।

इसके विपरीत मध्य प्रांतों के वनों में औद्योगिक पूंजीवाद और बाजार पहले से कहीं अधिक सक्रिय था। लकड़ी के अलावा अन्य वन्य उत्पादों का इस्तेमाल उस प्रवेशद्वार के रूप में किया गया, जो साम्राज्यवादी बाध्यताओं द्वारा निर्देशित था तथा विश्व पूंजीवादी व्यवस्था में स्थानीय समाज के चुनिंदा एकौकरण की प्रक्रिया की ओर ले जाता था। इसी जरूरत ने मध्य प्रांतों में दो अन्य प्रकृतियों की शुरुआत की। पहले के अंतर्गत औद्योगिक प्रक्रियाओं में वन उत्पादों के स्थान पर अन्य वस्तुओं का प्रयोग आरंभ किया गया। इसका उदाहरण है रंगाई उद्योग। इसमें प्राकृतिक रंगाई के अनेक तरीकों के स्थान पर विदेशी और सिंथेटिक वस्त्रों की रंगाई के लिए रासायनिक रंगों का प्रयोग किया जाने लगा। इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत एक सीमा तक निरौद्योगीकरण हुआ। दूसरा रुझान स्थानीय दस्तकारों की कराधान और उत्पादन को साम्राज्यवादी प्रणाली में शामिल करने का था। परन्तु इन रुझानों में एक रुझान आम था, और वह था विश्व पूंजीवादी व्यवस्था की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए औपनिवेशिक तंत्र का प्रयोग करके स्थानीय परिस्थितियों में फेरबदल करना।

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