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प्राचीन भारत की विधि एवं न्यायिक व्यवस्था का वर्णन कीजिए।

मनु विधि के स्रोत के आधार हैं। मनु के अनुसार सम्पूर्ण वेद धर्म का स्रोत है, फिर परम्परा (स्मृति) है और उनकी परम्परा व व्यवहार, जो वेद को जानते हैं और पवित्र व्यक्तियों के रिवाज तथा अंत में अपना संतोष है।

मनु से मेधातिथि एवं याज्ञवल्क्य भी सहमत थे। अतः मान्यता प्राप्त धर्म के तीन स्रोत हैं-श्रुति से उत्पन्न अर्थात्‌ वेद, स्मृति से उत्पन्न धर्मशास्त्र (स्मृता) और सदाचार (सदगुणों वाले व्यक्तियों का व्यवहार)। कौटिल्य के अनुसार कानून के चार अंग हैं-धर्म (पवित्र कानून), व्यवहार (अनुबन्ध) , चरित्र (रिवाज) और राजा का शासन (शाही आदेश)। इस प्रकार विधि को लागू करने वाली सबसे बड़ी शक्ति राजाही है। नारद ने भी कौटिल्य की तरह विधि के चार स्रोत बताए हैं।

कौटिल्य और नारद के कथन को बृहस्पति की व्याख्या करने वाले स्पष्ट करते हैं। बृहस्पति का मानना है कि जब निर्णय, प्रतिवादी द्वारा शपथ के आधार पर होता था, उसे धर्म कहते थे और जब निर्णय शास्त्र या साक्ष्य या जिरह के आधार पर लिए जाते थे, तब उन्हें व्यवहार कहते थे। निर्णय जब अनुमान या व्यवहार या प्रचलन के आधार पर लिए जाते थे, तो उसे चरित्र कहते थे और वह विवादित मामला जो राजा द्वारा लिया जाता था, उसे राजाजन कहते थे, यह आदेश स्थानीय रिवाजों के ऊपर होता है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि व्यवहार, जिसके अन्तर्गत साक्ष्य पर आधारित दस्तावेज आते थे, को कानून का स्रोत नहीं माना जा सकता। आमतौर पर कानून के तीन सर्वमान्य स्रोत-श्रोत, स्मृता व सदाचार हैं।

मनु ने विधि के 18 शीर्षकों की सूची प्रस्तुत की है, जिससे याज्ञवल्क्य, नारद और बृहस्पति भी सहमत थे। इन्हें निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रखा गया है-

1. ऋण नहीं चुकाना

2. जमा व प्रण

3. बिना स्वामित्व बिक्री

4. साझेदारों की चिन्ताएँ

5. उपहारों का अमान्यीकरण

6. मजदूरी न देना

7. करार का पालन करना

8. खरीद-बिक्री रद्द करना

9. मालिक और उसके नौकरों में मतभेद

10. सीमा को लेकर विवाद

11. प्रहार

12. मानहानि

13. चोरी

14. डकैती एवं हिंसा

15. अवैध सम्बन्ध रखना

16. पति व पत्नी का कर्त्तव्य

17. बाँटवारा

18. जुआ एवं सटूटा।

यह 18 विषयों की सूची मेधातिथि तथा कुलुका के अनुसार सम्पूर्ण नहीं है। इसका कारण वे यह बताते हैं कि समाज की जटिलता के कारण मुकदमेबाजी के कारणों में वृद्धि हुई। धर्मसूत्रों में भी कानून के कुछ विषयों की विवेचना की गई है, जैसे-अवैध सम्बन्ध, चोरी, मानहानि, विरासत। आपराधिक कानून के धीमे विकास के विषय में धर्मसूत्रों से जानकारी मिलती है। गौतम के अनुसार कृषक, व्यापारी, चरवाहे, महाजन तथा शिल्पकारों को अपने वर्ग के लिए नियम बनाने का अधिकार था। इस तरह समाज के महत्त्वपूर्ण समूहों, जैसे व्यापारी, महाजन तथा शिल्पकारों को मान्यता प्राप्त हुई थी।

न्याय प्रशासन राज्य की ओर से लोगों को उपलब्ध कराई गई सुरक्षा का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा था। मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार राजा को कानून अदालतों की अध्यक्षता करनी चाहिए, लेकिन न्याय प्रक्रिया में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ राजा के पास नहीं होना चाहिए। इस सन्दर्भ में राजा को विद्वान ब्राह्मणों और अनुभवी पार्षदों की मदद लेनी चाहिए। मनु के अनुसार यदि अदालत में राजा अनुपस्थित है, तो उसे विद्वान ब्राह्मण को अपने कर्तव्यों के निर्ववन के लिए नियुक्त करना चाहिए और उसकी सहायता करने के लिए तीन सभ्य होने चाहिए। नारद और याज्ञवल्क्य में भी इस व्यवस्था का उल्लेख है। सभ्यों की संख्या की कोई सीमा नहीं थी। मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार न्याय देना अनुष्ठान आयोजित करने के समान है, जिससे उच्चतम आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होता है। अनेक अवसरों पर बृहस्पति ने इस विचार को दोहराया है और वे भी एक कानूनी प्रक्रिया को अनुष्ठान या यज्ञ का रूप मानते हैं। जिस तरह अनुष्ठान के आयोजन में नियमों का पालन निष्ठा से किया जाता है, वैसे ही ग्रन्थों में वर्णित नियमों का न्याय प्रक्रिया में पालन होना चाहिए। राजा शास्त्रों के नियमों से वैसे ही बंधा हुआ है, जैसे अनुष्ठान आयोजित करने वाले उससे सम्बन्धित नियम पुस्तिका से आबद्ध होते हैं। राजा को जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए और हमेशा सच्चाई जानने की कोशिश करनी चाहिए। विधि का कोई नियम तब तक लागू नहीं होना चाहिए, जब तक राजा को उस मामले की पूरी जानकारी न हो।

बृहस्पति ने चार तरह की अदालतें बताई हैं-(1) प्रतिष्ठित, जो नगर जैसे एक निश्चित स्थान पर स्थापित होती है; (2) अप्रतिष्ठित, एक स्थान पर स्थापित नहीं होतीं, लेकिन गतिशील होती हैं; (3) मुद्रित, न्यायाधीश का दरबार जो शाही मुहर का इस्तेमाल करने के लिए अधिकृत होता है और (4) ससित और सम्नित, वह न्यायपालिका, जिसकी अध्यक्षता राजा द्वारा होती है। इस प्रकार, राजा ही अपने क्षेत्र का सर्वोच्च न्यायाधीश होता है और उसे अपनी प्रजा की सुरक्षा का कर्त्तव्य तथा जिम्मेदारी निभानी चाहिए और आश्वासन देना चाहिए कि प्रजा के झगड़े न्यायपूर्ण तरीके से निपटाए जाएँगे। उसे स्मृति लेखकों द्वारा सलाह तथा निर्देश दिए जाने चाहिए। इन अदालतों के अलावा न्यायिक व्यवस्था के अभिन्न अंग कचहरियाँ भी थीं। याज्ञवल्क्य, बृहस्पति और नारद के अनुसार कानूनी मुकदमों का निपटारा वरीयता के आधार पर कुल, श्रेणी, गण, पुत्रग, न्यायाधीशों तथा राजा द्वारा किया जाता था। इन अदालतों का अधिकार-क्षेत्र उन नियमों द्वारा प्रदर्शित होता है, जिनके अन्तर्गत कुल, श्रेणी, गण, पुत्रग की सभा जो विभिन्न व्यवसायों में संलग्न थे, को साहस के अतिरिक्त अन्य सभी मामलों में निर्णय लेने का अधिकार प्राप्त था, जो राजा द्वारा प्रदत्त था। मिताक्षर का मानना है कि कुल के निर्णय के खिलाफ श्रेणी में अपील की जा सकती थी और उसके बाद पुग में। पुत्रग के निर्णय के बाद राजा के पास अपील की जाती थी।

याज्ञवल्क्य और बृहस्पति के अनुसार कानूनी प्रक्रिया की चार श्रेणियाँ निम्नलिखित थीं-अर्जीदावा, जवाब, साक्ष्य और निर्णय। कौटिल्य के अनुसार भ्रष्ट न्यायाधीशों के लिए जुर्माना तथा शारीरिक सजा की भी व्यवस्था थी। याज्ञवल्क्य, नारद और कात्यायन भी भ्रष्ट सहयोगी न्यायाधीशों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की चर्चा करते हैं।

न्यायिक प्रक्रिया का विवरण स्मृति लेखकों के द्वारा दिया गया है। साधारण स्मृति नियमों के अनुसार अदालत में जो सबसे पहले लिखित अर्जी के साथ जाता है, वह याचिकाकर्त्ता या मुददई होता है। बचाव पक्ष द्वारा जवाब दाखिल किए जाने से पहले कभी भी अर्जी दावे में संशोधन किए जाने का प्रावधान था। नारद ने मुहदई को अधिकार दिया है कि वह बचाव पक्ष पर चार प्रकार के कानूनी प्रतिबन्ध लगाए, जिसके अन्तर्गत कुछ प्रक्रियाएँ हैं, जैसे-निर्णय से पहले गिरफ्तारी या अंतरिम आदेश जब तक राजा तलब न करे, ताकि बचाव पक्ष फरार न हो सके। मुद्दई के दावे के आधार पर बचाव पक्ष को अपना उत्तर देना पड़ता है। नारद ने उत्तर के चार प्रकार बताए हैं-अस्वीकार करना, स्वीकार करना, विशेष निवेदन और फैसले से पूर्व का निवेदन। बचाव पक्ष से उसी दिन अपना जवाब देने की अपेक्षा की जाती थी, लेकिन विशेष परिस्थितियों में उसे इसके लिए कुछ समय दिया जाता था। मुद्दई तथा बचाव पक्ष के बयानों को दर्ज करने के बाद साक्ष्य को अदालत के सम्मुख लाया जाता था। मानवीय व दैवी दो प्रकार के सबूत होते थे। गवाह तथा दस्तावेज मानवीय साक्ष्यों के अन्तर्गत आते थे, जबकि देवी साक्ष्य दैवी सत्य परीक्षा के रूप में होते थे।

यह बात उल्लिखित है कि दैवी मानवीय साधन उपलब्ध या सम्भव नहीं होने की स्थिति में ही दैवी सत्य परीक्षा उपयोग में लाई जानी चाहिए। बृहस्पति के अनुसार गवाह अनुमान पर हावी होता है और अंत में दस्तावेज गवाहों पर हावी होते हैं। बिना अवरोध के तीन पीढ़ियों पर बिना स्वामित्व दोनों पर हावी होता है। अंत में पक्षों को अदालत से जाने के लिए कहा जाता था ताकि साक्ष्यों के आधार पर सभ्य विचार-विमर्श कर सकें। विजयी पक्ष को लिखित प्रमाण मिलता था, जिसे जयपत्र कहा जाता था, जबकि हारे हुए पक्ष को शास्त्र के अनुसार राजा दंडित करता था। कुछ जयपत्रों में राजा की मुहर लगती थी, जबकि कुछ में मुख्य न्यायाधीश की। मुद्दई के हारने पर दस्तावेज को हीनपत्र कहा जाता था।

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